 मेरे होंठों के तबस्सुम कहीं गुम हो गए हैं
जब से सुना है ग़ैर के वो हो गए हैं
मेरे अरमानों को ना अब जगाना
बड़ी मुश्किल से थक कर सो गए हैं
मेरी यादों को ज़ेहन से मिटा दिया उसने
आज इतने बुरे हम हो गए हैं
ग़ैर की छोड़िए अपनों से मुलाक़ात नहीं
सोच के दायरे अब कितने छोटे हो गए हैं
व़क्ते पीरी भी दुश्मनों ने याद रखा मुझे
दोस्त तो न जाने कहां गुम हो गए हैं
कौन निकला है सैरे गुलशन को
सारे कांटे गुलाब हो गए हैं
मेरे होंठों के तबस्सुम कहीं गुम हो गए हैं
जब से सुना है ग़ैर के वो हो गए हैं
मेरे अरमानों को ना अब जगाना
बड़ी मुश्किल से थक कर सो गए हैं
मेरी यादों को ज़ेहन से मिटा दिया उसने
आज इतने बुरे हम हो गए हैं
ग़ैर की छोड़िए अपनों से मुलाक़ात नहीं
सोच के दायरे अब कितने छोटे हो गए हैं
व़क्ते पीरी भी दुश्मनों ने याद रखा मुझे
दोस्त तो न जाने कहां गुम हो गए हैं
कौन निकला है सैरे गुलशन को
सारे कांटे गुलाब हो गए हैं
 
 दिनेश खन्ना
मेरी सहेली वेबसाइट पर दिनेश खन्ना की भेजी गई ग़ज़ल को हमने अपने वेबसाइट में शामिल किया है. आप भी अपनी कविता, शायरी, गीत, ग़ज़ल, लेख, कहानियों को भेजकर अपनी लेखनी को नई पहचान दे सकते हैं…
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   दिनेश खन्ना
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