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ग़ज़ल- मेरे होंठों के तबस्सुम कहीं गुम हो गए हैं (Gazal- Mere Honthon Ke Tabassum Kahin Gum Ho Gaye Hain…)
मेरे होंठों के तबस्सुम कहीं गुम हो गए हैं
जब से सुना है ग़ैर के वो हो गए हैं
मेरे अरमानों को ना अब जगाना
बड़ी मुश्किल से थक कर सो गए हैं
मेरी यादों को ज़ेहन से मिटा दिया उसने
आज इतने बुरे हम हो गए हैं
ग़ैर की छोड़िए अपनों से मुलाक़ात नहीं
सोच के दायरे अब कितने छोटे हो गए हैं
व़क्ते पीरी भी दुश्मनों ने याद रखा मुझे
दोस्त तो न जाने कहां गुम हो गए हैं
कौन निकला है सैरे गुलशन को
सारे कांटे गुलाब हो गए हैं
दिनेश खन्ना
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