ग़ज़ल- मेरे होंठों के तबस्सुम कहीं गुम हो गए हैं (Gazal- Mere Honthon Ke Tabassum Kahin Gum Ho Gaye Hain…)
Share
5 min read
0Claps
+0
Share
मेरे होंठों के तबस्सुम कहीं गुम हो गए हैं
जब से सुना है ग़ैर के वो हो गए हैं
मेरे अरमानों को ना अब जगाना
बड़ी मुश्किल से थक कर सो गए हैं
मेरी यादों को ज़ेहन से मिटा दिया उसने
आज इतने बुरे हम हो गए हैं
ग़ैर की छोड़िए अपनों से मुलाक़ात नहीं
सोच के दायरे अब कितने छोटे हो गए हैं
व़क्ते पीरी भी दुश्मनों ने याद रखा मुझे
दोस्त तो न जाने कहां गुम हो गए हैं
कौन निकला है सैरे गुलशन को
सारे कांटे गुलाब हो गए हैं
दिनेश खन्नामेरीसहेलीवेबसाइटपरदिनेशखन्नाकीभेजीगईग़ज़लकोहमनेअपनेवेबसाइटमेंशामिलकियाहै. आपभीअपनीकविता, शायरी, गीत, ग़ज़ल, लेख, कहानियोंकोभेजकरअपनीलेखनीकोनईपहचानदेसकतेहैं…यह भी पढ़े: Shayeri