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बच्चों की बिहेवियर प्रॉब्लम्स व उनके स्मार्ट हल

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बच्चे अगर ग़लतियां नहीं करेंगे, तो सीखेंगे कैसे? और अगर शरारत नहीं करेंगें, तो बच्चे कैसे कहलाएंगे? बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए लाड़-प्यार बहुत ज़रूरी है, लेकिन कहीं आपका भरपूर प्यार-दुलार या ज़रूरत से ज़्यादा सख़्ती उन्हें ज़िद्दी तो नहीं बना रहा?
बच्चों की आदतों व समस्याओं पर बातचीत के दौरान कई कॉमन प्रॉब्लम्स सामने आईं. कई बार ये आदतें पैरेंट्स के लिए सिरदर्द बन जाती हैं. तो आइए, बात करते हैं सायकिएट्रिस्ट व सायकोलॉजिस्ट श्रुति भट्टाचार्य से और जानते हैं इन बिहेवियर प्रॉब्लम्स के स्मार्ट हल.
कई बच्चे सुबह उठने में काफ़ी परेशान करते हैं. तीन-चार बार जगाना पड़ता है, फिर कहीं जाकर जल्दबाज़ी में स्कूल के लिए तैयार होते हैं.
सबसे पहले तो यह देखिए कि वो रात को समय से सोएं. सोने से पहले स्कूल की सारी तैयारी कर ले. उठाने की प्रक्रिया की बजाय धीरे-धीरे उसे ख़ुद से उठने की आदत डालने की कोशिश करें. समय लगेगा, लेकिन कुछ समय बाद वह अपने आप उठने लगेगा. स्कूल के दिनों में आप उठाइए, लेकिन छुट्टी के दिन अलार्म लगाकर उठने की आदत डालिए. समय निर्धारित कीजिए. समय से न उठने पर अनुशासन तोड़ने के लिए सज़ा दीजिए, जैसे- मनपसंद ब्रेकफ़ास्ट या टीवी प्रोग्राम या घूमने से वंचित करना आदि.
कई पैरेंट्स बच्चों की शेयर न करने की आदत से परेशान होते हैं.
संयुक्त परिवार है या आप अधिक सोशल हैं, तो बच्चे बचपन से ही शेयर करना सीखते हैं, क्योंकि वहां सब कुछ मिल-बांटकर किया जाता है, किन्तु अकेला बच्चा अपनी चीज़ों के प्रति बहुत अधिक एकाधिकार की भावना रखता है. अतः शेयरिंग की आदत सिखाने के लिए ज़रूरी है कि जब भी आप उसके लिए कुछ लाएं, तभी सबके साथ मिलकर शेयर करना सिखाएं. कभी-कभी किसी पार्क या दूसरों के घर भी उसके खिलौने लेकर जाएं, जहां वो उनके साथ खेल सके. इस तरह शेयरिंग भी सीखेगा और एंजॉय भी करेगा.
आज ज़्यादा मांएं बच्चों की फूड हैबिट्स को लेकर काफ़ी परेशान रहती हैं. खाने के मामले में बच्चे बेहद मूडी हो गए हैं. उन्हें रोज़ वेरायटी भी चाहिए और स्वाद भी. घर का सीधा-सादा खाना उन्हें पसंद नहीं आता.
इसके लिए बच्चों को दोष देना ग़लत होगा. आज बचपन से ही बच्चे पैरेंट्स के साथ रेस्टॉरेंट के भोजन का स्वाद चख लेते हैं. वे फ़ास्ट फूड कॉर्नर्स में भी जाते हैं. इसके अलावा टीवी पर विज्ञापन और मैग्ज़ीन्स में स्वादिष्ट डिशेज़ देखते हैं, तो वेरायटी की चाहत स्वाभाविक है, लेकिन रोज़ ऐसा खाना खिलाना तो संभव नहीं है. छोटे बच्चों को तो घर के खाने को थोड़ा कलरफुल व रुचिकर बनाकर दिया जा सकता है और बड़े बच्चों को एक समय सादा व संतुलित भोजन दीजिए. दूसरी बार उनकी मनपसंद डिश दीजिए. साथ में फल व हरी सब्ज़ियों की शर्त भी होनी चाहिए. रविवार को उन्हें मनपसंद फूड की खुली छूट दी जा सकती है. साथ ही उन्हें ख़ुद बनाने की प्रेरणा दीजिए. समस्या अपने आप सुलझ जाएगी.
बच्चों को बहुत जल्दी ग़ुस्सा आता है और ग़लत संगत में अक्सर ग़लत शब्द भी बोलने लगते हैं.
यह सच है कि आज बच्चों में ग़ुस्सा और हिंसा बढ़ती जा रही है. इसके लिए आपको घर के माहौल पर ध्यान देना होगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी छोटी-छोटी ग़लतियों पर आपका हाथ उठ जाता है या ग़ुुस्सा आ जाता है. आपका संयमित व्यवहार ही इस समस्या का समाधान है. ऐसे खिलौने न दें, जो हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ाते हैं. ऐसे प्रोग्राम भी न देखें और न देखने दें. यदि फिर भी काबू में न आएं, तो समय रहते काउंसलिंग दीजिए. ग़लत शब्द भी वो सुनकर ही सीखता है. इसलिए स्वयं पर, उसके दोस्तों पर और आसपास के माहौल पर नज़र रखिए.
बच्चों में बहस करने की आदत तथा पलटकर जवाब देने की आदत पैरेंट्स को परेशानी में डाल रही है.
बहस की आदत जिज्ञासा का परिवर्तित रूप भी कहा जा सकता है. जब बच्चे को किसी काम के लिए कहा, टोका या मना किया जाता है, तब वह उसका कारण जानना चाहता है. अक्सर पैरेंट्स किसी कारण को सही तरी़के से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं और कह बैठते हैं ङ्गकरना हो तो करोफ या ङ्गमानना हो तो मानोफ, ङ्गफ़ालतू की बहस मत करोफ. यहीं से पलटकर जवाब देने की आदत पड़ती है. बच्चों की जिज्ञासा या प्रश्‍न को धैर्य के साथ सही तरी़के से स्पष्ट करना ज़रूरी है.
पढ़ाई के समय बच्चों में एकाग्रता की कमी देखी जाती है.
मेरे विचार में बच्चों में एकाग्रता की कमी नहीं है, क्योंकि अपने मनपसंद कार्य को वो बड़ी ही एकाग्रता के साथ घंटों कर सकते हैं. वो घंटो वीडियो गेम खेल सकते हैं, टीवी प्रोग्राम देख सकते हैं, लेकिन पढ़ाई के मामले में 15-30 मिनट भी मुश्किल से बैठते हैं. इसका कारण हो सकता है कि पढ़ाई में उसकी रुचि न हो. पढ़ाई में रुचि तब कम होती है, जब विषय समझ में नहीं आता है. इस बात को ध्यान में रखिए. एकाग्रता से पढ़ाई करते समय किसी भी प्रकार का व्यवधान न आने पाए. पढ़ाई का समय व स्थान निर्धारित कीजिए. मदद के लिए स्वयं को फ्री रखिए, यदि वह मन लगाकर पढ़ता है, तो प्रशंसा कीजिए. इस तरह उसे प्रोत्साहन मिलेगा. साथ ही इस बात को भी याद रखिए कि हर बच्चे की एकाग्र शक्ति अलग-अलग होती है. उसकी दूसरों से तुलना मत कीजिए, किंतु अनुशासन ज़रूरी है.
भाई-बहन की आपसी लड़ाई से माता-पिता दुखी हो जाते हैं.
भाई-बहन के बीच लड़ाई, कहा-सुनी व तर्क-वितर्क हर व्यक्ति के बचपन का ऐसा हिस्सा होता है, जिसे वे बड़े होने पर बड़े प्यार से याद करते हैं. इसलिए यह चिंता का विषय नहीं है, बल्कि इससे तर्क शक्ति बढ़ती है, अपना दृष्टिकोण रखना आता है, हार और जीत को स्वीकार करना आता है और लड़ाई ख़त्म होने पर प्रेम बढ़ जाता है. बस, आप उनके पूरे तर्क-वितर्क सुनिए बाद में ज़रूरत हो, तो सलाह दीजिए. ग़लत-सही का परिचय कराइए और हां, इस बात का ध्यान रखिए कि बच्चे हिंसक न होने पाएं.
ब्रैंडेड व महंगी वस्तुओं के प्रति बच्चों की ज़िद बढ़ रही है और न मिलने पर ग़ुस्सा हो जाते हैं.
समस्या की जड़ में कुछ हद तक ज़रूरत से ज़्यादा लाड़-दुलार है और थोड़ा-बहुत पियर प्रेशर यानी दोस्तों की देखा-देखी चीज़ों की फ़रमाइश है. इसमें विज्ञापन जगत का भी ज़बरदस्त हाथ है. बच्चों को आरंभ से ही अपनी आर्थिक स्थिति से अवगत कराते रहें और अपनी सीमाएं बताते रहें. जितना आपके वश में है और जो ज़रूरी है, ज़रूर दिलाइए. लेकिन ज़िद को बढ़ावा मत दीजिए. ङ्गनाफ कहना सीखिए, लेकिन ङ्गनाफ कहने से पहले बच्चे की ज़िद के औचित्य या अनौचित्य को गहराई से समझ लीजिए. एक बार ना कहने के बाद उस पर अटल रहिए, फिर उसके ग़ुस्से या ज़िद की परवाह मत कीजिए.
आज के बच्चों को पैसे की कद्र नहीं है.
यह स्थिति प्रायः वर्किंग पैरेंट्स के बच्चों में ज़्यादा दिखाई देती है. ख़ासकर वहां, जहां समय न दे पाने के कारण पैरेंट्स अनाप-शनाप ख़र्च करके बच्चों को ढेरों ख़ुशियां देना चाहते हैं. पैरेंट्स अपने अपराधबोध से तो छुटकारा पा लेते हैं, लेकिन बच्चों को ग़लत शिक्षा देते हैं. यह बहुत ज़रूरी है कि पैसा देखकर व ज़रूरत पर ही ख़र्च किया जाए. यह काम तो पैरेंट्स को ही करना होगा. ख़ुद भी संभले और बच्चों को भी संभालें.
झूठ बोलना एक अपराध है. कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनका बच्चा झूठ बोले, फिर भी कई बच्चे इस आदत का शिकार हो जाते हैं.
जब पहली बार बच्चे का झूठ पकड़ें, तो उसे सहजता से न लें. न ही किसी से छिपाने की कोशिश करें. अक्सर हम अपने बच्चे की ग़लती इसलिए दूसरों से छिपा लेते हैं कि उसका अपमान न हो. लेकिन यहीं से बच्चे के झूठ की शुरुआत होती है. बचपन का झूठ मासूम होता है, लेकिन इसे हल्केपन से न लें. झूठ किसी भी कारण से बोला गया हो, उसे शय देना बिल्कुल ग़लत होता है. साथ ही इस बात पर भी ध्यान दें कि उसके झूठ बोलने का कारण क्या है. यदि डर या तनाव है, तो धैर्य व दिलासा से भविष्य में नियंत्रण लाया जा सकता है. झूठ से अपनों का विश्‍वास टूटता है. समझाने से बच्चे समझते भी हैं और आपके साथ व विश्‍वास से झूठ पर रोक भी लग सकती है.
अक्सर बड़ों को शिकायत होती है कि आज के बच्चे सोशल नहीं हैं.
पर, ऐसा है नहीं. शायद, बच्चों का दायरा बदल गया है. वो अपने मित्रों या हमउम्र लोगों के साथ घंटों समय बिता सकते हैं, लेकिन घर आए मेहमान के साथ औपचारिक ङ्गहाय-हेलोफ से ज़्यादा का आदान-प्रदान नहीं होता. न ही पैरेंट्स के साथ कहीं जाना पसंद करते हैं. इसके अलावा ये बातें घर के माहौल पर भी निर्भर करती हैं. फ़िलहाल यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा सोशल हो, तो शुरुआत कीजिए उसके फ्रेंड्स व पैरेंट्स से. जी हां, उन्हें अपने घर आमंत्रित कीजिए. दो बार ऐसी पार्टी होगी, तो तीसरी बार वो ख़ुशी-ख़ुशी आपके साथ जाएगा भी और घर आए मेहमानों के साथ भी समय बिताएगा.
आज के बच्चे सेल्फ़ सेन्टर्ड यानी ख़ुदगर्ज़ हो गए हैं.
देखिए, बच्चों में कुछ जन्मजात प्रवृत्तियां होती हैं और कुछ बातें वो वातावरण से अर्जित करता है. ख़ुदगर्ज़ी माहौल की देन हो सकती है या भावनात्मक विकास की कमी के कारण भी हो सकती है. अक्सर, हर इंसान जो पाता है, वही देता है. इसके लिए ज़रूरी है कि आप आसपास के माहौल पर ध्यान दें. बचपन से ही केयरिंग व शेयरिंग की आदत सिखाएं. जो लोग दूसरों की केयर करते हैं, दूसरों के प्रति संवेदनशील होते हैं, वो ख़ुदगर्ज़ नहीं हो सकते हैं.
- प्रसून भार्गव

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