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हिंसा और हमारे बच्चे (Help Your Child Battle With Violence)

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दिन ब दिन समाज में बढ़ते अपराध और हिंसा से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं मासूम बच्चे. इससे न स़िर्फ उनकी मानसिकता प्रभावित हो रही है, बल्कि उनके स्वाभाविक विकास पर भी बुरा असर पड़ रहा है. इसके पहले कि इनका जीवन ख़तरे में पड़ जाए, पैरेंट्स को सचेत हो जाना चाहिए.
मासूम बचपन को चाहिए मखमल-सी हरी-भरी धरती, उड़ने को खुला आसमान, आंखों में रंगीन इंद्रधनुष और सुरक्षित माहौल... लेकिन कहां हैं ये सब? पैरेंट्स के नज़रिए से देखें, तो देश की सुरक्षात्मक प्रगति के बावजूद बच्चे असुरक्षित वातावरण में पल रहे हैं, हिंसा और आतंक का नज़ारा देख रहे हैं. अभिभावक चिंतित, परेशान व अनिश्‍चित हैं, साथ ही विवश भी कि उन्हें कैसे सुरक्षा दें? ज़बरदस्ती से बंद कराई जा रही दुकानें, लाठीचार्ज, तोड़-फोड़, गाड़ियों पर बरसते पत्थर, ट्रेन के बम धमाके, स्कूल ट्रिप की बस से नदी में गिरते, बहते, मरते बच्चे... ऐसी अनन्त घटनाएं, ऐसे अनेक हृदयविदारक दृश्य, ख़बरों का सिलसिला मासूम मन को इस कदर प्रभावित कर देता है कि या तो वो प्रश्‍नों की झड़ी लगाकर भय के प्रति आश्‍वस्त होना चाहते हैं कि उनके साथ या उनके परिवार के साथ तो ऐसा कुछ नहीं हो जाएगा या फिर अन्दर ही अन्दर सहम जाते हैं. यदि बच्चा प्रश्‍न पूछता है, तो उसे आश्‍वासन भरा उत्तर देना कठिन है. यदि वह चुप रहता है, तो उसकी मानसिक व शारीरिक प्रतिक्रिया रोग का रूप ले सकती है.
क्या करें और हालात से कैसे निबटें?
ऐसा नहीं है कि दुनिया में अच्छे लोग नहीं हैं, बुरे हैं तो अच्छे भी हैं. कहां से लाएं ऐसा वातावरण कि बच्चों का सुरक्षित विकास हो. हालांकि आज के शिक्षित पैरेंट्स यहां भी अपने बच्चे को सही दिशा दिखलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. हम भी सिखाते हैं- * अनजान व्यक्ति से बात मत करना. * ज़रूरत हो तो पुलिस से बात करना. * किसी अनहोनी की स्थिति में पुलिस से सम्पर्क करना. लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि अपने बच्चे की सुरक्षा स़िर्फ हमें देखनी है. जब हम बच्चों को सच्चाई और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं, अच्छा इंसान या नागरिक बनने के लिए प्रेरित करते हैं, तब भी हमारा मन शंकित होता है कि क्या वाकई चंट-चालाक या हिंसक माहौल में वह ऐसा बन पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि आदर्शों का पालन करते हुए मेरा बच्चा अन्याय ही सहता रह जाए? इसके लिए पैरेंट्स बाल मनोवैज्ञानिक व मनोचिकित्सक डॉ. माधवी सेठ द्वारा बताए गए कुछ महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान दें- * दोषारोपण बहुत आसान है, किन्तु क्या हम पूरी तरह से निर्दोष हैं? * हिंसा का भय बच्चों में बढ़ रहा है, किन्तु आज कोई भी पैरेंट्स इस विषय से अनजान नहीं हैं. * क्यों पैरेंट्स दिनभर टीवी देखते हैं. मीडिया से तो ओवर एक्पोज़र मिलता है. * यदि हमें अपने बच्चों को बचाना है, तो टीवी देखना कम करें. * ख़ासकर ऐसे दृश्य, जिनसे बाल मन प्रभावित होता है. * न्यूज़ ज़रूर देखें, लेकिन ऐसी घटनाओं की पल-पल की ख़बर बच्चों के साथ तो न देखें या मित्र-परिवार के साथ उनकी ज़्यादा चर्चा न करें. न्यूज़ में और भी बहुत कुछ आता है. * प्रश्‍न पूछे जाने पर आप जवाब इस तरह दें कि उनका मन भयभीत न हो. * अपनों की चिन्ता बड़ों की तरह ही बच्चों को भी होती है, अत: जवाब ऐसा हो कि उनका मन आश्‍वस्त हो जाए और वो दूसरी ओर मन लगा सकें. * हिंसा, तोड़-फोड़ या ब्लास्ट जैसे माहौल में दूसरी बातें करें, जो बालमन के अनुकूल हों. * जवाब सरल और सुलझा हुआ दें, ताकि उसका मन भी हल्का रहे. * जवाब देते समय बात प्रासंगिक है या अप्रासंगिक इस बात को भी ध्यान में रखें. * बच्चे अक्सर अपने पिता, भाई या बहन के प्रति सबसे पहले शंकित होते हैं, वो आ जाएंगे ना? उन्हें तो कुछ नहीं होगा ना? आदि प्रश्‍नों का उत्तर सकारात्मक होना चाहिए. * यदि बच्चा थोड़ा बड़ा है, तो उसे आत्म अनुभव करा दीजिए. * जब वह देखेगा कि घर के बाहर भी सब कुछ सामान्य है, तो उनका डर अपने आप ही निकल जाता है. * थोड़ा-बहुत डर तो हर बच्चे में होता है. चिन्ता तब होती है, जब यह सीमा से परे हो जाता है. * बड़े बच्चों से तो आतंकवाद या सुरक्षा जैसी समस्याओं पर भी स्वस्थ दृष्टिकोण से विचार-विमर्श किया जा सकता है. * मीडिया की हर बात को यथा स्वरूप नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वहां ज़रूरत से ज़्यादा ही चर्चा हो जाती है. * बार-बार वही बातें दोहराई जाती हैं. ऐसे में बच्चे समझने लगते हैं कि यह घटना चार दिन तक घटती रही है. * हम बाहर की दुनिया को नहीं रोक सकते, किन्तु उन घटनाओं या स्थितियों के प्रति सही दृष्टिकोण को सामने ज़रूर ला सकते हैं और बच्चों को आत्म सुरक्षा का पाठ भी ज़रूर पढ़ा सकते हैं. * साथ ही एक स्वस्थ सोच और सकारात्मक माहौल बनाने का प्रयास भी ज़रूर कर सकते हैं. आख़िर बच्चे हमारी निधि हैं, हमारा भविष्य हैं.
-प्रसून भार्गव

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