"तुम मुझसे डरती हो क्या?" पता नहीं क्यों मुझे भी शरारत सूझी थी इसलिए कह दिया, "हां." उसने बैचेनी से पूछा था, "पर क्यों?" मैंने उसे और सताने के लिए कह दिया, "आप बंगाली नहीं हो इसलिए." पर उसने तपाक से जवाब दिया था, "मैं बंगाली नहीं पर मुझे बंगला पढ़ना-लिखना आता है."
तोमार ओई आंखी दुटी की जादू जाने हाय ततो काछे टाने जतो दुरे जाई... (तुम्हारी उन आंखों में ना जाने क्या जादू है, जितना दूर जाता हूं, उतना पास खींचती है...) बस इतना ही पढ़ा था मैंने और थर-थर कांप उठी थी और उसकी तरफ़ देखते हुए कांपते स्वर में पूछा था, ये क्या है?"
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था, "मेरे दिल का हाल, आगे पढ़ों न."
पर मैंने उस काग़ज़ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे और वहां से भागकर अपने घर आ गई थी. हां, भागते हुए मुझे इतना ही सुनाई दिया था, "प्यार हो गया है तुमसे..."
नहीं, ये कोई कहानी नहीं है, मेरी कुछ यादें हैं, जिनके बारे में मैंने अब तक किसी को नहीं बताया है. पर कहते हैं न पहला प्यार कभी भूले नहीं भूलता... शायद इसलिए मैं उसे अब तक भूल भी नहीं पाई हूं.
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वह पड़ोस में ही अपने भैया के घर रहने आया था. उस पंजाबी परिवार में पति-पत्नी और एक नन्हा सा बच्चा था, जिनके घर हमारा आना-जाना लगा रहता था.
एक दिन जब मैं "भाभी... भाभी..." चिल्लाते हुए उनके घर के अंदर गई तो एक अनजान नौजवान को देखकर ठिठक गई थी और सोच ही रही थी कि वहां से दुम दबाकर भागूं कि भाभी आ गई थी और मुझसे हंसकर बोली थीं, "आ जा बहना, ये मेरा देवर है. आज ही आया है."
एक रुढ़िवादी परिवार में जन्म लेने की वजह से शायद मैं थोड़ी ज़्यादा अन्तर्मुखी थी और लड़कों से बात करने की तो मैं सोच ही नहीं सकती थी. पर उस नौजवान में ना जाने क्या था मैं धीरे-धीरे उससे दो-चार बातें करने लगी थी. वैसे भी वो ख़ुद ज्यादा बोलता नहीं था. पर जब भी मैं भाभी के घर जाती, वो घर पर ही मिलता और भाभी के नन्हें बच्चे से खेलते हुए हमारी बातें सुनता था. अगर भाभी कुछ पूछती तो हां... हूं... में जवाब दिया करता था. पर मुझे आभास होने लगा था कि वो चुपके से मुझे देखता रहता था. बच्चे के साथ खेलना सिर्फ़ एक बहाना था. मुझे पता चला था वो अपनी पढ़ाई समाप्त कर नौकरी की तलाश में यहां आया था.
कुछ समय यूं ही बीत गए थे और मैं समझ गई थी कि मैं धीरे-धीरे उसकी तरफ़ खींचती जा रही हूं. जब भाभी के घर जाती, वो नहीं दिखता तो बेचैन हो जाती थी और जब वो सामने होता, तो उससे आंखें चुराती थी. किन्तु जब अपने घर पर रहती तो उसकी याद सताती थी. मैं समझ रही थी कि आजकल मैं उससे बात करने को बेताब रहती हूं और जान-बूझकर भाभी के घर ज़्यादा समय बिताती थी. मेरा दिल कहता था कि वो शुरुआत करें तो मैं उससे कुछ कहूं, पर वो ज़्यादातर चुप ही रहता था और मुझे अनजान लड़कों से बात करना तो आता ही नहीं था.
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उस दिन जब मैं भाभी के घर गई तो वो कहीं गई हुई थीं, पर उनका बेटा पारस वहीं अपने चाचा के साथ खेल रहा था. भाभी को घर पर न पाकर मैं वापस लौटने ही वाली थी कि उसने अचानक पूछा था, "तुम मुझसे डरती हो क्या?" पता नहीं क्यों मुझे भी शरारत सूझी थी. इसलिए कह दिया, "हां."
उसने बैचेनी से पूछा था, "पर क्यों?"
मैंने उसे और सताने के लिए कह दिया, "आप बंगाली नहीं हो इसलिए."
पर उसने तपाक से जवाब दिया था, "मैं बंगाली नहीं पर मुझे बंगला पढ़ना-लिखना आता है."
मैं शायद उससे बातें करने का मौक़ा ही देख रही थी, इसलिए मुस्कुराकर कहा था, "झूठी बातें तो कोई पंजाबियों से बोलना सीखे."
मेरी बात सुनकर वो दो मिनट के लिए चुप हो गया था और फिर टेबल पर पड़े एक काग़ज़ पर कुछ लिखते हुए बोला था, "दो मिनट रुको, मैं बंगला लिखकर साबित कर दूंगा में झूठा नहीं."
उसने झट कुछ लिखकर मेरे हाथ में रखा और पढ़कर मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं-
तोमार ओई आंखी दुटी की जादू जाने हाय
ततो काछे टाने जतो दुरे जाई...
शुद्ध बंगला में लिखी हुई थी ये कुछ पंक्तियां... जो मेरे होश उड़ाने के लिए काफ़ी थे.
उस दिन के बाद मैंने भाभी के घर जाना बंद कर दिया. मेरी इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उसका कोई जवाब दे सकूं. उसके प्यार को अपनाना मेरे लिए मुनासिब नहीं था, क्योंकि उस ज़माने में ना लड़कियों को कुछ बोलने का हक़ था और ना ही अंतर्जातीय विवाह का चलन. और अपने माता पिता, छोटे भाई-बहनों को छोड़कर घर से भागने की बात मैं सोच भी नहीं सकती थी. मैंने बाहर निकलना बंद कर दिया था. अब सिर्फ़ कॉलेज जाती थी और वो भी अपनी बड़ी दीदी के साथ और वह रोज़ कहीं न कहीं खड़ा मिलता... अपनी बड़ी बड़ी उदास आंखों से ना जाने क्या ताकते हुए, पर कभी आगे बढ़कर मुझसे बात नहीं की और मैं तो ऐसा दिखावा करती थी कि जैसे मैं उसे जानती ही नहीं हूं.
उसके कुछ दिन बाद वो वहां से चला गया. मेरे छोटे भाई के हाथों मेरे लिए एक ख़ूबसूरत कार्ड छोड़कर जिसमें सिर्फ़ लिखा था- "अलविदा.. ख़ुश रहना." शायद वह समझ गया था इस रास्ते पर चलना मेरे लिए मुमकिन नहीं है और वह मेरी मुश्किलें और बढ़ाना नहीं चाहता था.
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उसके एक साल बाद मेरी भी शादी हो गई और मुझे अपने ससुराल में रमना पड़ा सब कुछ भूलकर, पर आज लगभग तीस साल बाद भी क्या मैं उसे भूल पाई हूं? शायद नही
इसलिए मेरी कहानियों में बार-बार घूम-फिरकर एक प्यारा सा पंजाबी मुंडा आता है जिसकी बड़ी-बड़ी आंखें, तीखी नाक, गोरा चिट्टा रंग और मुस्कुराते होंठ एक डरी हुई भोली भाली लड़की को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और उस मुंडे की मासूमियत पर फ़िदा होते हुए वह दुनिया जहान को भूल जाती है.
- डॉ. पूर्णिमा बनर्जी

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