उस लाल गुलदस्ते को जब मम्मी फेंक रही थीं, मैंने एक गुलाब चुराकर अपने पास रख लिया था. वो अब भी मेरे पास है, अब भी महकता है.. पहले प्यार की निशानी है न!..
बहुत सालों पहले ये सब हुआ था, यक़ीन नहीं होता. लगता है जैसे कल की ही बात हो. मैं अपनी छत पर पापड़ सुखा रही थी कि बगल वाली छत से कीचड़ लगी एक गेंद आकर कई पापड़ ख़राब कर गई. मम्मी ने चिल्लाकर पूछा, “कौन है, सामने आओ, अभी ठीक करती हूं.” डरते-डरते सामने आया एक सीधा-सादा लड़का, जिसकी हालत ख़राब थी. डर तो मुझे भी लग रहा था कि बेचारा पीटा जाएगा, लेकिन उस लड़के के पीछे खड़ी उसकी मम्मी को देखकर माहौल ही बदल गया.
“माला तुम? यहां?” मम्मी बांहें फैलाए उस ओर दौड़ पड़ीं, यही हालत माला आंटी की भी थी. बचपन से ही मैंने मम्मी के मुंह से उनकी सहेली माला का नाम इतनी बार सुना था कि इनके रिश्ते की गहराई अच्छी तरह पता थी.
“नमस्ते आंटी.” मेरे बोलते ही उन्होंने टोक दिया, “आंटी नहीं, मौसी बोलो. हम दोनों सहेलियां नहीं बहनें हैं.” जिस समय दोनों सहेलियां खिलखिलाकर पुराने दिनों का हिसाब चुकता कर रही थीं, उसी समय एक जोड़ी निगाहें मुझे छुप-छुपकर देख रही थीं, मुझे ये भी पता था. हमारा परिचय हुआ, तो पता चला कि हम दोनों ही कॉलेज के फर्स्ट ईयर में थे. माला आंटी इस शहर में साल भर के लिए आई थीं. धीरे-धीरे दोनों घर एक ही घर बन गए थे. हमारे यहां खीर बनती, तो वहां जाती. वहां छोले-भटूरे बनते, तो हमारे यहां भेजे जाते.
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खाना इधर से उधर करने का काम करने वाले दो डाकिए कब दोस्ती की राह पर निकल पड़े, पता ही नहीं चला. वो तो भला हो फ्रेंडशिप डे का, जिसके चलते हमारे रिश्ते को एक नाम भी मिल गया. ‘मेरी सबसे प्यारी दोस्त के लिए.’
आलोक ने कॉलेज जाते समय मुझे चुपचाप वो कार्ड पकड़ा दिया था, जिसके जवाब में मैंने घर के बगीचे से एक सफ़ेद गुलाब तोड़कर उसके कमरे में जाकर रख दिया था. अब हमारे बीच रंगों का खेल शुरू हो चुका था. अगली बार मुझे मिला एक गुलाबी रंग का गुलाब और उसके बाद... दीपावली की रात मैं छत पर दीपक रखने गई थी, पता नहीं कैसे ठीक उसी व़क्त आलोक भी छत पर आ गया था.
“आज बहुत प्यारी लग रही हो. एक मिनट यहीं रुकना, कहीं जाना नहीं.” मुझे वहां रोककर वो अपनी छत पर गया और पल भर में ही कुछ लेकर वापस भी आ गया.
“क्या है, दिखाओ तो?” उसने मेरी आंखें बंद कर दीं. पल भर में ही गुलाबों की महक मेरे आसपास फैल गई.
“ये... ये कितना सुंदर है.” मैं हैरत से उस गुलदस्ते को देख रही थी जो दिल के आकार का था और लाल गुलाबों से बना हुआ था! “तुमको पसंद आया?” इससे पहले कि मैं कुछ कहती, घर से आती मम्मी की आवाज़ मुझे चौंका गई.
“मम्मी बुला रही हैं.” मैं गुलदस्ता लेकर सीढ़ी की ओर बढ़ी तभी अपनी बुद्धि पर तरस आया, इसे लेकर घर जाऊंगी? वापस छत पर आकर एक ड्रम के अंदर छुपा दिया, आलोक की हंसी सुनाई दी, “मेरे दिल का तुमने ये हाल किया?” किसको पता था कि हम दोनों के दिल का यही हाल होनेवाला था.
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अगली सुबह मम्मी ने पापा को छत पर ले जाकर वो गुलदस्ता दिखाया था. अदालत लगी हुई थी, कटघरे में खड़ी थी मैं.
“मुझे नहीं पता, किसका है ये? कोई छुपा गया होगा.” मैं इससे ज़्यादा और कुछ कह नहीं पाई. मम्मी शायद कुछ समझ रही थीं, तब तो कुछ नहीं बोलीं, लेकिन रात में मेरे कमरे में आकर सब कुछ साफ़-साफ़ कहती गईं, “तुम्हें वो गुलदस्ता आलोक ने दिया है न? तुमको शर्म नहीं आई, माला को मौसी कहती हो और उसके बेटे से...” “ये आप क्या कह रही हैं? पहली बात तो हम दोनों केवल अच्छे दोस्त हैं, दूसरी बात है कि माला आंटी आपकी सहेली हैं, बहन नहीं.” विद्रोह का ये स्वर मम्मी के लिए ख़तरे की घंटी थी. उन्होंने हमारे बीच के सारे पुल ध्वस्त कर दिए. हमारा उनके यहां आना-जाना लगभग बंद हो गया. उनकी माला आंटी से कहासुनी भी हो गई. हमारी छत के बीच एक ऊंची दीवार भी उठ गई. मुझे याद है, जिस दिन उनका सामान यहां से जा रहा था, वो आलोक के साथ मिलने आई थीं. मुझे रोना आ रहा था, लेकिन मम्मी तटस्थ बैठी थीं. आलोक ने मम्मी के पैर छुए, मैं माला आंटी के गले लगकर रो पड़ी. जाते समय आलोक ने मुझे एक निगाह भरकर देखा था.. वो निगाह कभी भूलती नहीं!
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अरे, एक बात तो मैंने बताई ही नहीं, उस लाल गुलदस्ते को जब मम्मी फेंक रही थीं, मैंने एक गुलाब चुराकर अपने पास रख लिया था. वो अब भी मेरे पास है, अब भी महकता है.. पहले प्यार की निशानी है न!
- लकी राजीव
