रेटिंगः ****
विकलांगों पर दया या सहानुभूति न दिखाएं, बल्कि उनके अंदर छिपी अद्भुत क्षमता की सराहना करें. उन्हें एहसास कराएं कि वे भी हमारी तरह ही नहीं, बल्कि हमसे कई बढ़कर हैं. इसी तरह का संवेदनशील और प्रेरणादारी संदेश देती है राजकुमार राव की श्रीकांत फिल्म.
इसके शीर्षक क़िरदार में राजकुमार राव का लाजवाब अभिनय न केवल दिल को छू जाता है, बल्कि प्रभावशाली ढंग से यह भी एहसास कराता है कि ये दिव्यांग बेचारे नहीं, बल्कि ख़ास और स्पेशल हैं. इस स्ट्रॉन्ग मैसेज को बेहतरीन तरी़के से प्रस्तुत करते हैं निर्देशक तुषार हीरानंदानी, इसके लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है, वरना इस तरह के विषय पर फिल्म बनाना बड़ी बात नहीं, लेकिन दर्शकों को बांधे रखने के साथ उन्हें देखने लिए प्रेरित करना भी निर्देशक-कलाकारों की ख़ूबी रहती है.
एक सच्ची घटना, श्रीकांत बोल्ला, जो जन्म से नेत्रहीन पैदा होते पर आधारित है श्रीकांत- आ रहा है सबकी आंखें खोलने. उनके बायोपीक में राजकुमार राव का उत्कृष्ट अभिनय. आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव मछलीपट्टनम में एक ग़रीब परिवार में बेटे के जन्म पर उसके पिता ख़ुशी से झूम उठते हैं. घर के चिराग़ होने का जश्न वे अपने अंदाज़ में पीते-नाचते-गाते मनाते हैं. वे अपने लाडले को भारत के विस्फोटक अफलातून बल्लेबाज कृष्णम्माचारी श्रीकांत की तरह क्रिकेटर बनाना चाहते हैं. (यह अस्सी के दशक की बात है, तब भारतीय क्रिकेट टीम में श्रीकांत का बल्ला ख़ूब बोल रहा था).
लेकिन उनकी उम्मीदों पर तब वज्रपात होता है, जब पता चलता है कि शिशु देख नहीं सकता यानी नेत्रहीन है. परिवार-रिश्तेदार दबाव डालते है कि बच्चे को पालना बेमतलब है उसे दफ़न कर दें. पिता यह कदम उठाते भी हैं, लेकिन मां की ममता आड़े आ जाती है. वो पति को ऐसा करने से रोकती है. क़िस्मत देखिए फिर श्रीकांत का एक और भाई होता है, जो बिल्कुल स्वस्थ है.
बच्चों के साथ पढ़ाई करते समय श्रीकांत की विलक्षण स्मरणशक्ति और नॉलेज से शिक्षक से लेकर हर कोई प्रभावित होता है. लेकिन कहते हैैं ना कुछ ऐसे सहपाठी भी होते हैं, जिन्हें यह रास नहीं आती. वे उसे परेशान करते हैं, मजबूर करते हैं क्रिकेट खेलने के लिए और प्रताड़ित भी करते हैं. ऐसे में शुभचिंतकों की सलाह पर माता-पिता उसे हैदराबाद के ब्लाइंड स्कूल में भेज देते हैं, जहां उसकी उचित शिक्षा और हर तरह की व्यवस्था उपलब्ध होती है. वहीं श्रीकांत को मिलती है उसकी यशोदा मां यानी देविका टीचर.
टीचर-स्टूडेंट का ख़ूबसूरत रिश्ता, जो हर मोड़ पर एक-दूसरे का साथ देते हैं. कई बार तो इमोशनल सीन्स पर आंखें भर आती हैं. लेकिन श्रीकांत का कहना कि मैं देख नहीं सकता, भाग नहीं सकता, पर लड़ सकता हूं. अपने इसी जज़्बे के कारण साइंस की पढ़ाई के लिए एडमिशन पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने में वह संकोच नहीं करता. उसके हर संघर्ष और उतार-चढ़ाव में उसकी टीचर उसका साथ देती है. फिर आईआईटी में आगे की पढ़ाई के लिए एडमिशन न मिलने पर विदेश के एमआईटी में संभावनाओं को तलाशना दिलचस्प है. श्रीकांत के आगे बढ़ने और अपने पढ़ने के अधिकार के लिए लड़ने की कहानी न जाने कितने श्रीकांत जैसे लोगों को प्रोत्साहित करती है. वे भी प्रेरित होकर कामयाबी की बुलंदियों को छूते हैं.
कुछ प्रसंग तो दिल को छू जाते हैं, जैसे विद्यार्थी-शिक्षिका का निश्छल प्रेम व स्नेह से भरा रिश्ता, जो ताउम्र बना रहता है. टीचर की भूमिका में ज्योतिका का जबर्दस्त परफॉर्मेंस, उस पर आलया एफ. जैसी प्रेमिका और साथी का मिलना, शरद केलकर जैसे सहयोगी, दोस्त, पार्टनर का साथ, राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब से मुलाक़ात… श्रीकांत का पहला नेत्रहीन राष्ट्रपति बनने का सपना… हर स्थिति-परिस्थिति बहुत को सोचने-समझने के साथ भावुक कर देती है. वैसे भी निर्देशक तुषार हीरानंदानी के अनुसार, उनके लिए तो हर सीन ख़ास रहा. उनके लिए ये बेहद ख़ुशी की बात रही कि इतने बढ़िया कलाकारों का साथ रहा, जिससे फिल्म बेहद ख़ास बन गई.
भूषण कुमार, कृष्ण कुमार और निधि परमार हीरानंदानी द्वारा निर्मित और चॉक एंड चीज़ फिल्म्स की श्रीकांत एक ऐसी फिल्म है, जो मार्गदर्शन करती है कि इंसान में आत्मविश्वास के साथ कुछ कर गुज़रने का हौसला हो, तो वो भी श्रीकांत की तरह बोलैंट इंडस्ट्रीज स्थापित करके एक सफल उद्योगपति बन सकता है, तब कोई भी शारीरिक कमी मायने नहीं रखती.
प्रथम मेहता की सिनेमाटौग्राफी सराहनीय है. कहानी की ज़िम्मेदारी सुमित पुरोहित और जगदीप सिद्धू ने बख़ूबी निभाई है. संजय सांकला और देबास्मिता मित्रा को फिल्म की लंबाई थोड़ी कम करनी चाहिए थी, फिर भी दो घंटे दो मिनट की यह फिल्म कहीं भी नीरस नहीं होने देती. इशान छाबरा का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है.
टी-सीरीज़ के बैनर तले पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा… गाने का रिक्रिएशन ख़ूबसूरत है. आनंद-मिलिंद, सचेत-परंपरा, तनिष्क बागची, आदित्य देव व वेद शर्मा के संगीत में विशषेकर तुम्हें ही अपना मानना है… अरिजीत सिंह की आवाज़ में जीना सीखा दें… सुमधुर है. निर्देशक से लेकर सभी कलाकार फिर वो राजकुमार राव, ज्योतिका, शरद केलकर, आलया एफ ही क्यों न हों सभी ने अपना बेस्ट दिया है. हां, अपने सरल, सहज के साथ एक पड़ाव पर अभिमान करते गुरूर में डूबे शेड में भी राजकुमार राव ने सभी से बाजी मारी है.
निर्देशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक व्यक्ति विशेष की भावनाओं के हर रंग को उकेरा है, फिर उसमें स्नेह, प्यार, क्रोध, अहंकार और ईर्ष्या ही क्यों न हो. इस तरह की फिल्में बहुत कम बनती हैं, इसलिए इसे देखना अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं है. शेष फिर…
- ऊषा गुप्ता
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