पहली बार जब मिले थे तब राजी बी
स बरस की जवान लड़की और बिंदा दु
बला-पतला शर्मिला-सा किशोर. पं
द्रह बरस की उम्र में भीवह बारह
-तरह बरस का लगता. बिंदा राजी की मां की मुंहबोली बहन का बेटा था. दोनों एक ही शहर की रहने वाली
थी. अक्सर अपनीमां के साथ बिं
दा राजी के घर आता रहता था. दो
नों की मांएं अपने शहर की गलियों की पुरानी बातों में खो जाती औ
र बिंदा अपनी मांकी बातों की उं
गली थाम कर थोड़ी देर तक तो अपरि
चित गलियों में घूमता-फिरता रहता फिर उकता जाता. तब राजी उसके म
न कीस्थिति समझ कर उसे पढ़ने को
कहानियों की कोई किताब या कॉमि
क्स देती और अपने पास बिठा लेती
थी. बिंदा गर्दन झुकाए चुपचापकि
ताब में सिर घुसा कर बैठा रहता.
उसे राजी के पास बैठना न जाने
क्यों बहुत अच्छा लगता, क्यों ल
गता यह तक वह समझ नहीं पाताथा,
लेकिन बस इतना ही उसे समझ आता कि राजी के आसपास रहना उसे अच्छा
लगता है. एक खुशबू सी मन को मो
हती रहती. वहबहुत कम बात करता.
बस यदा-कदा गर्दन उठाकर पलभर कम
रे में नजर फिराता हुआ राजी को
भी देख लेता और फिर सिर नीचा कर
केकिताब में खो जाता.
फिर साल भर बाद बिंदा के पिता का तबादला दूसरे शहर हो गया और वह
लखनऊ चला गया. जाने के पहले उस
की मां बिंदा को लेकरराजी की मां से मिलने आई. राजी की मां ने सा
मान लाने के लिए उसे पास की दु
कानों तक भेजा. राजी अपनी काइने
टिक उठाकर बाजारजाने लगी तो बिं
दा से बोली, "चल बिंदे तुझे भी घुमा लाऊं."
और बिंदा कुछ सकुचाता हुआ उसके
पीछे बैठ गया. गाड़ी जब चली तो
राजी का दुपट्टा उड़ता हुआ बिं
दा के कंधे और चेहरे को छूते हु
एउसके मासूम मन को भी सहला गया.
राजी की यही छवि बिंदा के मन प
र छप गई तस्वीर बनकर. सालों बीत
गए पर बिंदे के मन पर छपीऔरत की यह तस्वीर धुंधली नहीं हो पाई
बल्कि उसके रंग और गहरे ही होते
गए. उस रोज बिंदा राजी के साथ
बाजार से घर लौटा तोउसके हाथ रा
जी की दी हुई चॉकलेट, बिस्किट,
टॉफीओं की सौगात से भरे हुए थे
और उसका दिल राजी के दुपट्टे की
छुअन की सौगातसे.
फिर तेरह साल बाद जब बिंदा राजी
से मिला तब वह अट्ठाइस बरस का
लंबा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा जवान था जो फौज में भर्ती हो चुका थाऔर
तैतीस बरस की राजी दो बच्चों की मां थी. राजी अपनी मां के ही घ
र थी जब बिंदा भरी दोपहरी में उ
सके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ.
"हाय रब्बा बिंदा तू...?" राजी
बित्ता भर के बिंदे की जगह छह फु
ट ऊंचे फौजी मेजर बलविंदर को दे
खकर देखती रह गई.
"क्या कद निकाला है रे तूने, वा
री जाऊं. पता नहीं होता कि तू आ
ने वाला है तो मैं तो कभी पहचान
ही नहीं पाती तुझे."
बिंदा मुस्कुरा दिया. उसकी आंखों मे राजी का तेरह बरस पुराना दु
पट्टा लहरा गया. बिंदे ने देखा
बरामदे में राजी की वही पुरानीका
इनेटिक अब भी खड़ी थी. थोड़ी दे
र सबसे बातें करने के बाद बिंदा
अचानक उठ खड़ा हुआ.
"चलो मुझे काइनेटिक पर घुमा ला
ओ."
"चल हट बिंदे मजाक करता है? भला अब तू क्या बच्चा रह गया है? गा
ड़ी उठा और खुद ही घूम आ. रास्
ते तो तेरे पहचाने हुए हैं ही."
राजी को हंसी आ गई "फौज में तो
तू बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाता हो
गा. भला अब मैं क्या तुझे अपने
पीछे बिठाऊंगी."
"पर मुझे तो तुम्हारे ही पीछे
बैठना है. चलो न."
बलविंदर ने बहुत जिद की तो राजी
गाड़ी निकाल लायी. अब उसे चार
पहियों वाली गाड़ी में आगे की सी
ट पर बैठने की आदत हो गईथी. वह
डर रही थी कि पता नहीं चला भी पा
एगी की नहीं काइनेटिक, लेकिन हि
म्मत करके चला ही ली. बिंदा एक
बार फिर उसके पीछेबैठा था. एक अ
नजानी खुशबू से महकता हुआ. आज बिं
दे के गालों को फिर से राजी का
नारंगी दुपट्टा सहला रहा था. वही दुपट्टा जोफौज की कठिन ट्रेनिं
ग के बीच जब तब उसे पिछले सालों
में नरमाइ से सहलाता रहा है. जो रातों को खुशबू बन ख्वाबों में
महकता रहा हैऔर जिसकी खुशबू के
बारे में उसके सिवा कोई नहीं जा
नता, खुद राजी भी नहीं. वह चा
हता भी नहीं कि कोई जाने. वह तो
बस इसखुशबू में अकेले ही भीगना
चाहता है और कुछ नहीं.
बिंदे के मुंह पर आज वही किशोरों वाली झिझकी सी मासूम खुशी है औ
र राजी के चेहरे पर वही बीस बरस
की उम्र वाली लुनाई औरचमक थी.
एक आजाद खुशी. जाने बिंदे ने रा
जी को उसका अल्हड़ और आजाद कुंवा
रापन एक बार फिर कुछ पलों के लि
ए लौटा दियाथा या राजी ने आज बिं
दे के दोनों हाथ उसके मासूम कि
शोरपन की प्यार भरी सौगात से भर
दिए थे… नहीं जानता था मेजर बल
विंदर. जानना चाहता भी नहीं था.
वह तो बस कुछ पलों के लिए राजी
के आसपास रहना चाहता था. उसके
दुपट्टे की छुवन को महसूस करनाचा
हता था जो उसके दिल को छू जाती
थी. न जाने क्यों. यह पहले प्
यार का अहसास था या कुछ और, नहीं जानता था बलविंदर. जानना चाहता
भी नहीं था.