पहला अफेयर: एक अधूरा ख़्वाब... (Pahla Affair: Ek Adhoora Khwab)
"शाम को पार्टी में आना न भूलना. एक नामचीन हस्ती को बुलाया है, उनसे तुम्हारी मुलाक़ात करवाऊंगी", इतना कहने के साथ ही अवनि ने लाइन काट दी. ...न जाने इस बार किससे मिलवाने वाली है अवनि? एक क्षण सोचकर मैं फिर अपने काम में मसरूफ़ हो गई. दिनभर के काम निपटाने के बाद पार्टी में जाने की तैयारी करने लगी. पार्टी में कई चेहरे जाने-पहचाने थे और कुछ बिल्कुल अनजाने. मिलने-जुलने का सिलसिला जारी था. मैं भी इसी सिलसिले में शामिल हो गई. तभी मेरी दोस्त अवनि ने मुझे आवाज़ दी, "अरे राजी, इधर आओ. इनसे मिलो- जाने-माने लेखक शेखरजी." सामने खड़े शख़्स को देखकर चंद लम्हों के लिए मेरे भीतर एक जलजला-सा महसूस हुआ, फिर मैं सामान्य हो गई. "आपका नया नॉवेल एक अधूरा ख़्वाब पढ़ा, काफ़ी अच्छा है." मैंने ख़ुद को समेटकर कहा. "तारीफ़ के लिए शुक्रिया. कुछ ख़्वाब कभी हक़ीक़त की शक्ल अख़्तियार नहीं करते और कुछ ख़्वाबों को हम ख़ुद अपने हाथों से तार-तार कर देते हैं. कई बार ऐसा होता है, जब हम ख़ुद को बंधनों में न बंधने देकर उस पल तो राहत महसूस करते हैं, पर व़क़्त बीतने के साथ वही आज़ादी हमें काटने-कचोटने लगती है." इस जुमले के साथ ही शेखर दूसरों से बातचीत करने में मशगूल हो गए. यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: आवाज़ की दुल्हन यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: ख़ामोश-सा अफ़साना घर लौटने पर उनके शब्द मेरे कानों में गूंजने लगे. गुज़रा हुआ व़क़्त करवटें लेने लगा- पहली बार मैं और शेखर एक काव्य सम्मेलन में मिले थे. मुझे कविताएं लिखने का शौक़ था और शेखर तो अपने फन में माहिर थे ही. मैं शेखर की लेखनी से बहुत प्रभावित थी. धीरे-धीरे शेखर मेरे दिलो-दिमाग़ पर छाने लगे. अक्सर हम लोगों का मिलना-जुलना लगा रहता. एक दिन हल्की बारिश हो रही थी और हम दोनों कॉफ़ी हाउस में बैठे हुए थे. सहसा शेखर ने कहा, "तुम्हें नहीं लगता कि हम दोनों में बहुत कुछ एक-सा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी पसंद भी एक-सी है." बहुत देर तक शेखर मेरी आंखों में आंखें डाले देखते रहे. मैं लाजवश कुछ न कह सकी. "मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूं." प्रेम का इज़हार इस तरह सुनकर मेरा चेहरा सुर्ख हो गया. फिर तो मेरे दिल में हरदम शेखर की बातें और उसका ख़याल रहने लगा. देखते-देखते अरसा बीत गया. जब घरवालों ने शादी के लिए मुझ पर दबाव डालना शुरू किया तो मैंने शेखर से कहा, "हमारे प्रेम को अगर सामाजिक स्वीकृति मिल जाए तो..." "राजी, मुझे बंधन पसंद नहीं. मैं खुले आकाश में आज़ादी से उड़ना चाहता हूं. मैंने अभी तक वो मुक़ाम हासिल नहीं किया है, जिसकी मुझे तमन्ना है. यदि शादी की, तो आगे बढ़ने का कोई सवाल ही कहां रहेगा? हम दोनों चाहें तो ताउम्र अच्छे दोस्त बनकर रह सकते हैं, पर हमारे प्यार को रिश्ते में बांधने की कोशिश न करो, प्लीज़..." मेरा दिल तोड़ने में शेखर ने ज़रा भी संकोच नहीं किया. मैं हतप्रभ रह गई. आंखों से आंसू थमे ही नहीं. वो हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी. जब रास्ते ही बदल गए तो शेखर के वजूद को भी मैंने अपनी ज़िंदगी और अपने दिल से अलग कर दिया. कहते हैं, व़क़्त के साथ ज़ख़्म भर जाते हैं. शेखर ने शोहरत व दौलत कमाई और मैंने अपना घर बसाया. जब उसने रिश्ता तोड़ा था तो कितना आहत हुई थी मैं, लेकिन आज शेखर से मिलने के बाद लगा कि उसके ज़ख़्म नासूर बन चुके हैं और वो आज अपने फैसले पर पछता रहा है. दिल ने कहा, "शेखर, तुम मेरी ज़िंदगी का ऐसा ख़्वाब हो, जिसे मैं भूल से भी याद नहीं करना चाहती और मैं तुम्हारी आंखों का वो अधूरा ख़्वाब हूं, जिसे तुमने कभी पूरा करना ही नहीं चाहा. तुम्हें बद्दुआ भी तो नहीं दे सकती. आख़िर मेरे जीवन का पहला प्यार हो तुम."- राजेश्वरी शुक्ला
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