तन्हाई में अक्सर दिल के दरवाज़े पर तुम्हारी यादों की दस्तक से कुछ खट्टे- मीठे और दर्द में भीगे लम्हे जीवंत होकर मानस पटल परमोतियों की तरह बिखर जाते हैं. उन्हीं में से एक खुबसूरत लम्हा है… ‘मैं, तुम और मॉनसून.’
आज भी याद है मुझे हमारे प्रणय का प्रथम मॉनसून...
तुम मेरे सामने वाले घर में किरायेदार के रूप रहते थे और हमारा खुद का घर था. संयोग था हमारा कॉलेज एक ही था. साथ-साथ कॉलेज जाते थे, एक-दूसरे के घरों में भी आना-जाना था, धीरे-धीरे कब एक-दूसरे के दिलों में उतर गए दोनों को ही खबर ना थी... बेखबर और बेपरवाह थे.
आज की तरह मोबाइल पर मैसेज आदान-प्रदान करने की सुविधा नहीं थी, लेकिन हमारी आंखों के इशारे ही हमारे मैसेज थे... चिट्ठी-पत्री में भी विश्वास नहीं था, एक-दूसरे की खामोशी को शब्दों में ढालकर पढ़ने का जबरदस्त हुनर था हम दोनों में.
एक बार यूं ही प्लान बना लिया ताजमहल देखने का. शायद दोनों के मन में प्रेम के प्रतीक ताजमहल के समक्ष अपना प्रणय निवेदन करने की चाह थी. बसएक रोज़ निकल पड़े ताजमहल निहारने. घरों से अलग-अलग निकले छिपते-छिपाते... सावन का महीना था, बादल सूरज से लुका-छिपी का खेल खेल रहे थे, हल्की-फुल्की बौछारों से नहाए ताजमहल की खूबसूरती में चार चांद लग रहे थे, संगमरमर से टपकती बूंदों सेउस वक्त मुहब्बत के साक्षात दर्शन हो रहे थे... उस हसीन नज़ारे को देखकर हम दोनों भावुक हो उठे... एक नज़र ताजमहल पर डाली, तोलगा जैसे प्रकृति ने बारिश की बूंदों के रूप में पुष्पों की बारिश करके उसे ढक दिया है, जिससे उसका सौष्ठव और दैदीप्यमान हो उठा है.
अचानक बादलों की तेज़ गड़गड़ाहट से मैं डरकर तुम्हारे सीने से लग गई और तुमने मुझे इस तरह से थाम लिया जैसे मैं कहीं तुमसे बिछड़ना जाऊं… और फिर ज़ोर से झमाझम बारिश होने लगी. मैं तुम्हारी बाहों में लाज से दोहरी होकर सिमट गई... मैं झिझक रही थी, लजा रही थी और तुम्हारी बाहों से खुद को छुड़ाने का असफल प्रयास कर रही थी. बारिश जब तक थम नहीं गई, तब तक हमारी खामोशियांरोमांचित होकर सरगोशियां करती रहीं. मौन मुखर होकर सिर्फ आंखों के रास्ते से एक-दूसरे के दिलों को अपना हाल बता रहा था. बारिश में भीगते अरमान मुहब्बत के नग़मे गुनगुना रहे थे.
मॉनसून अपने शबाब पर था और हमारा प्रेम अपनी चरम पराकाष्ठा पर. मेरेलाज से आरक्त चेहरे को अपलक निहारते हुए तुमने कहा था, "अनु ,एक बात कहूं तुमसे?" "नहीं, अभी इस वक्त कुछ भी नहीं... सिर्फऔर सिर्फ मुहब्बत" मदहोशी के आलम में मेरे अधर बुदबुदा उठे थे. एक तरफ श्वेत-धवल बारिश की बूँदों से सराबोर ताजमहल सेमुहब्बत बरसती रही, दूसरी तरफ तुम्हारी असीम चाहतों की बारिश में भीग कर मेरी रूह तृप्त होती रही. तुम्हारी बात अधूरी रह गई... सालों बाद फिर तुमसे मुलाकात हुई ताजमहल में... तुम्हारे साथ ताज के हसीन साये में मुझे याद आया... “जब हम दोनों पहली बारताजमहल में मिले थे तब तुम मुझसे कुछ कहना चाहते थे… अब वो अधूरी बात पूरी तो कीजिए जनाब, मौका भी है और दस्तूर भी है."
सिगरेट के धुएं को इत्मीनान से आकाश की तरफ उड़ाते हुए तुमने दार्शनिक अंदाज़ में कहा , "जान… तुम्हारी मुहब्बत में पागल हो गया हूं मैं."
"ये क्या कह रहे हो?"
"किसी ने सच कहा है कि मुहब्बत इंसान को मार देती है या फिर पागल कर देती है, इसका जीता-जागता प्रमाण आगरा है. यहांपागलखाना और ताजमहल दोनों हैं.”कहकर तुम ज़ोर से पागलों की तरह हंसने लगे... मेरे लाख रोकने पर भी तुम लगातार हंसते ही रहे... यह नज़ारा देखकर तमाम भीड़ इकट्ठा हो गई… सचमुच मैं डर गई, कहीं तुम सच में पागल तो नहीं हो गए? तुम्हारी बात अधूरी ही रह गई... और हमारी मुहब्बत भी...
- डॉ. अनिता राठौर मंजरी