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कविता- वह स्त्री (Poem- Woh Stri)

बड़ी ही ख़ूबसूरत लग रही थी वह स्त्री 

उसे देखते ही मेरी नज़रें, उसके चेहरे पर थम गई

अपलक मैं उसे निहारती ही रह गई 

स्वत: ही मेरे दिल में उतर गई वह स्त्री

ना कजरारे थे उसके नैन

ना गोरा बदन था उसका 

ना होंठों पर लाली थी

और ना ही था बालों में गजरा

फिर भी ना जाने क्यों

ख़ूबसूरती को मात दे रही थी वह स्त्री

मैंने बड़े गौर से उसे देखा

मैले कुचैले कपड़े में, धूल से सनी थी वह स्त्री 

मिट्टी से भरी टोकरी सिर पर लादे

अर्धनग्न बच्चे को कमर पर बांधे 

नंगे पैर श्रम की भट्टी में तप रही थी वह स्त्री

शायद इसलिए इतनी ख़ूबसूरत लग रही थी वह स्त्री...

- डॉ. प्रेमलता यदु

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Photo Courtesy: Freepik

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