अनकही ही रह जाती हैं कितनी ही कविताएं
क्यों न उनके हिस्से में हम नए ख़्याल लिख दें
आजकल रद्द हो चुकी हैं तितलियों की उड़ानें
क्यों न उनके हिस्से में एक आसमान लिख दें
हर किसी को कहां मिला मन के मुताबिक़ जहां
क्यों न उनके हिस्से में मनचाहा क़िरदार लिख दें
सुनो, नेकियां तो उनकी कभी सराही नहीं गईं
क्यों न उनके हिस्से में एक अलग ख़िताब लिख दें
वो सहती रही चुपचाप क़िस्मत की लाचारियां
क्यों न उसके हिस्से में ख़ुशिया बेहिसाब लिख दें
बने रहे जो उम्रभर सिर्फ़ और सिर्फ़ नींव के पत्थर
क्यों न उनके हिस्से में ऊंची एक मीनार लिख दें
व्यस्त ही रहा वो ताउम्र दुनिया की उलझनों में
क्यों न उसके हिस्से में मन की बातें चार लिख दें
वो जो प्रेम की ख़ातिर भटकते रहे दर-ब-दर ही
क्यों न उनके हिस्से में एक 'मुलाक़ात' लिख दें
कब तक लिखते रहेंगे हम एक दूसरे को कविताओं में
वश अगर चले, अपने हिस्से में हम दीदार लिख दें…
- नमिता गुप्ता 'मनसी'
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