“कह देना उन लोगों को, उस समाज को कि मेरे दिव्यांश यहीं कहीं हैं. मेरे आस-पास. मेरी यादों में रचे बसे हैं. चल मेरे साथ मंदिर में.” प्रेरणा घसीटते हुए उसे मंदिर में ले गई.
“देख वो मूरत देख, जो पत्थर की है. हम उसकी पूजा करते हैं और पुजारी लोग इसी के नाम का तिलक लगाते हैं. दिव्यांश भी ऐसे ही हैं… ईश्वर हो गए हैं वो… चाहे आसमां का सितारा हो गए हैं… या अमर आत्मा या कोई देह बन गए हैं फिर से, फिर ये रूप क्यों?" और प्रेरणा ने ईश्वर के साक्ष्य में दीपा के आज्ञा चक्र पर गोल मैरून बिंदी रख दी. दोनों सहेलियां गले मिलकर फफक पड़ीं.
ओजस्वी चेहरा… हिरणी-सी आंखें… तेजस्वी माथा और उस पर गोल मैरून बिंदी दीपा को हमेशा आकर्षित करती थी. दीपा के कॉलेज में बॉटनी की प्रोफेसर वालिया जब पढ़ाते हुए अपने चेहरे के भाव व्यक्त करती थीं, तो उनके माथे पर कभी आड़ी सिलवटें, तो कभी खड़ी शिकन पड़ती और उसका असर उनकी गोल बिंदी पर पड़ता, जो आड़ी सिलवटों से ऊपर-नीचे हिंडोले लेती, तो कभी खड़ी शिकन के साथ दाएं से दबकर बाएं तरफ़ खड़ी हो जाती. ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं इस पूरे खेल में दीपा को महसूस होता कि वह बिंदी कहीं गिर ना जाए और वो अपनी चुन्नी की झोली फैलाए उनके चेहरे के नीचे उनकी बिंदी लपक ले और गिरने न दे. क्लास में प्रोफेसर वालिया के आते ही दीपा की नज़रें सबसे पहले उनकी बिंदी पर जातीं. वो अपने नोट्स लेने से पहले कॉपी के दाईं तरफ़ बिंदी का निशान बना लेती. एक दिन क्लास में उसके पास बैठी दीपा की सबसे ख़ास सहेली प्रेरणा ने पूछ ही लिया, “तू क्या बनाती है ये गोल-गोल.” वो बोली, “बिंदी, ये बिंदी कभी नहीं उतरनी चाहिए.” और वो दोनों हंस पड़ीं.
कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई, तो दीपा के माता-पिता ने उसका विवाह रचाकर अपना दायित्व पूरा कर दिया. विवाह की ख़रीददारी में उसने ढेर सारी बिंदियां ख़रीदीं. हर साड़ी के साथ मैचिंग बिंदियां हरी, नीली, पीली, लाल, बैंगनी उसकी कलेक्शन में सब रंग थे. कोई जगमगाती, तो कोई स्टोनवाली, कोई मोतीवाली तो कोई दोहरे रंगवाली, कोई गोल तो कोई लंबी तिलक के आकार में, कोई सितारा, तो कोई चांद के आकार में दीपा को तो बाज़ार में उपलब्ध हर वेरायटी चाहिए थी.
प्रेरणा उसके ट्रूज़ों में इतनी सारी बिंदियां देखकर बोली थी, “ओ हो! क्या पूरे मोहल्ले में बांटेगी या शहर के नुक्कड़ पर अपनी बिंदियों की दुकान खोलेगी?
“नहीं-नहीं प्रेरणा, पर मैं चाहती हूं बिंदी कम नहीं होनी चाहिए. पूरा संसार बिंदीमय हो… ये ले…” और उसने बिंदी के कार्ड से गुलाबी रंग की बिंदी निकालकर प्रेरणा के माथे पर रख दी. प्रेरणा झल्ला उठी, “ना…ना… मुझे नहीं लगानी ये बिंदी-विंदी. बहनजी लुक देता है और हर समय ध्यान भी आंखों के बीच रहता है. इरिटेशन-सा लगता है.”
“ना लाड़ो ना. ऐसा नहीं कहते. बिंदी तो सुहाग की निशानी होती है और कुंआरी लड़कियों के लिए अच्छे सुहाग की आशा भी. देख, तेरा चेहरा बिंदी लगाते ही कितना दमक उठा है.” दीपा की मां चाय लेकर कमरे में आई और दोनों सहेलियों की बातचीत में दख़ल देते हुए बोली. और ना जाने क्या सोचकर प्रेरणा ने अपने माथे की बिंदी नहीं हटाई.
वरमाला के समय जब दीपा तैयार होकर आई, तो उसकी नगवाली बिंदी लशकारे मार रही थी और उसके दोनों ओर कमानीदार भौंहों के सहारे लाल और स़फेद बिंदियों की कतार कनपटी पर जाकर समाप्त हो रही थी. प्रेरणा ने दीपा के कान में फुसफुसाते हुए कहा, “आज तो तेरी बिंदिया की इच्छा ख़ूब पूरी हुई.” दीपा लाज के मारे गुलाबी हो गई.
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दिव्यांश भी दीपा के बिंदी के शौक़ से जल्दी ही वाक़िफ़ हो गए थे, क्योंकि जब भी दिव्यांश दीपा को मोटरसाइकिल पर लॉन्ग ड्राइव पर ले जाते, वो वापसी में तंग गलियोंवाले बाज़ार में चलने की इच्छा ज़रूर प्रकट करती, क्योंकि तंग गलियों में बिंदी के कार्ड अच्छे मिलते हैं. कभी नुक्कड़ पर खड़े अस्थायी दुकान, तो कभी रास्ते पर सजी-धजी दुकानें, तो कभी राह से गुज़रनेवाले ठेले… दीपा कहीं भी बिंदी की ख़रीददारी करने से नहीं चूकती.
कभी-कभी तो दिव्यांश दीपा के इस शौक़ पर चिढ़ जाते, “अरे भाई! बिंदी का इतना भी क्या शौक़. आख़िर बिंदी का ये झंझट पालती ही क्यों हो.” दीपा पहले तो हंसने लगी, फिर आंखें मटकाते हुए बोली, “दिव्य! ये जो मस्तक पर आंखों के बीच और नाक के ऊपर का जो स्थान है ना, इसे आज्ञा चक्र कहते हैं और आज्ञा चक्र के पीछे हमारी ध्यान इन्द्रिय होती है. यहां लगाई गई बिंदी हमें हमेशा अपने इष्ट का ध्यान करवाती है. पुजारीजी भी अपने माथे पर गोल या लंबी बिंदी लगाते हैं ना. उनका इष्ट ईश्वर होता है और हमारे इष्ट मालूम है कौन हैं? हमारे इष्ट हैं आप.” और दीपा ने दिव्यांश का नाक पकड़कर अपने समीप खींच लिया. दिव्यांश दीपा के दर्शन पर स्तब्ध थे.
“दीपा, तुम कब से ये दर्शन बघारने लगी?”
हां! दीपा का ये बचकाना आकर्षण अब गहरे दर्शन में बदल गया था और दिव्यांश जब-तब इस दर्शन को छेड़ने लगे थे. यूं कभी तो दीपा का माथा बिंदी के बिना सूना नहीं रहता था, पर कभी अलसायी सुबह दीपा के सोकर उठने से लेकर नहाने तक कभी बिंदी से महरूम माथा देखकर दिव्यांश कहते, “भई, आज तो हम कहीं गिर गए…” तो दीपा हंस पड़ती. कभी लंबे तिलक की दिशा बदल जाती तो दिव्यांश कह उठते, “भई, आज तो हम टेढ़े हो गए हैं…” और कभी उल्टी बिंदी को देखकर दिव्यांश कह उठते, “भई, आज हम उल्टे कैसे लगे हैं.” और कभी-कभी तो दिव्यांश बिंदी के कार्ड से एक बिंदी निकालकर दीपा के माथे पर रखकर चुंबन लेते हुए कहते, “अरे भाई, हम यहां हैं.” और दोनों एक साथ ठहाका मारकर हंस पड़ते.
उधर प्रेरणा की शादी भी हो गई थी. वो अपने पति प्रीत के साथ ख़ुश थी. अपने कॉलेज की दोस्ती निभाने कभी-कभार दीपा के घर आ जाती. दिव्यांश और प्रीत जितने संजीदा होते, दीपा और प्रेरणा उतनी ही मुखर हो जातीं.
वर्ष दर वर्ष हंसी-ख़ुशी बीत रहे थे. पर प्रेरणा को बिंदी का शौक़ विवाह के बाद भी नहीं था. वो परवाह भी नहीं करती थी कि बिंदी लगी भी है या नहीं. एक दिन प्रेरणा दीपा के घर बिंदी लगाए बिना ही चली गई, तो वहां जाते ही दीपा ने उसे टोक दिया, “अरे! बिंदी कहां है तेरी?”
“इसका बिंदी का ये जुनून अभी भी नहीं गया, क्यों जीजाजी?” प्रेरणा दिव्यांश की ओर रुख करती हुए बोली.
“हां, पहले तो हमे माथे पर टांगे-टांगे फिरती हैं. और फिर ना जाने कौन-से आज्ञा चक्र का दर्शन हमारे सामने बघारने लगती हैं.”
दीपा अपने ड्रेसिंग टेबल में सजे हुए ढेर सारे बिंदी के कार्ड ले आई. और प्रेरणा के माथे पर उसके नीले सूट से मेल खाती नीली बिंदी रखते हुए बोली, “अरे, ज़िंदगी में इन बिंदियों की तरह ना जाने कितने रंग बिखरे हैं. लाल, पीले, हरे, बैंगनी हमें हर रंग में रहना सीखना है. क्या पता कब कौन-सा रंग इस ज़िंदगी से ख़त्म हो जाए.”
“अरे-अरे, आप तो बड़ी दार्शनिक बातें कर लेती हैं.” प्रीत आज मुखर हो उठे थे.
“ये तो बचपन से ही ऐसी बातें करती आई है. कॉलेज में कभी प्रोफेसर की बिंदी निहारती थी, तो कभी पड़ोस की आंटीजी की.” प्रेरणा आज अपनी पूरी जानकारी दे देना चाहती थी. आज दिव्यांश भी बोलने में पीछे नहीं रहे थे, “प्रेरणाजी! आपकी सहेली ने तो बिंदी के पीछे हमें ना जाने कहां-कहां घुमाया. एक बार तो थ्रीडी बिंदी के चक्कर में सारा शहर ही छान मारा. अब साइंस स्टूडेंट का ये भी तो नुक़सान है कि वो अपनी ही भाषा बोलते हैं. फिर मैंने ही दुकानदार को समझाया कि भैया! वो बिंदी जो चारों तरफ़ से लशकारे मारे और दुकान पर खड़े सारे ग्राहक हंस पड़े.”
दिव्यांश के हर जुमले पर प्रीत अपनी चुटीली टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे थे. प्रीत यह कहने से भी बाज़ नहीं आए कि भई प्रेरणा को तो हमारी परवाह ही नहीं, हम गिरें, टेढ़े हों या उल्टे लटके रहें.
अगले दिन प्रेरणा ने दीपा को फोन किया, “भई, कल तो तेरे घर मज़ा ही आ गया. प्रीत भी ख़ुश थे तेरे बिंदी दर्शन पर. अब तो मुझे हर समय बिंदी का ख़्याल रखना पड़ेगा, वरना प्रीत व्यंग्य करने से नहीं चूकेंगे.”
“हां-हां, बिंदी लगाया कर तू. पता नहीं ज़िंदगी में कितने दिन बिंदी लगाना लिखा है.” दीपा फोन पर ही भावुक हो उठी.
“अब ये तेरा कौन-सा नया दर्शन है दीपा.” प्रेरणा ने मीठी झिड़की देते हुए कहा.
“ना रे प्रेरणा, तू नहीं समझेगी. पर तू बिंदी ज़रूर लगाया कर. आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकरजी कहते हैं कि महिलाओं को बिंदी ज़रूर लगानी चाहिए. इससे उन महिलाओं को रोज़गार मिलता है, जो बिंदी के व्यापार में संलग्न हैं.”
“अब ये तेरा कौन-सा नया फंडा है?”
“अरे, इससे भी ऊपर. अपना आज्ञा चक्र है ना जो माथे पर, वहां बिंदी लगाने से अपने इष्ट की तरफ़ ध्यान रहता है. हम महिलाएं इसलिए तो हमेशा ज़िंदगी की भागदौड़ में भी अपने दायित्वों के प्रति ध्यान मुद्रा में रहती हैं.”
“लो भई! ये दर्शन भी सुनो.” प्रेरणा मंत्रमुग्ध हो गई थी दीपा के तर्कों से. “अच्छा भई ज़रूर लगाऊंगी बिंदी. कभी मिस नहीं करूंगी.”
समय चक्र कब रुका है. अनवरत चलता है वो, बिना किसी की परवाह किए. 10 वर्ष बीत गए थे दीपा के सुखी वैवाहिक जीवन की सजी-धजी गाड़ी को चलते हुए. एक दिन प्रेरणा को ख़बर मिली कि दिव्यांश की दोनों किडनी फेल हो चुकी हैं. अस्पताल के आईसीयू में वेंटिलेटर पर रखा है. दीपा की हंसती-खेलती ज़िंदगी पर गाज गिरी थी. प्रीत और प्रेरणा ख़बर सुनकर तुरंत अस्पताल भागे थे.
दीपा का आंसुओं से तर चेहरा, कांच की खिड़की से झांकते दिव्यांश की
टूटती-जुड़ती सांसों के बीच झूलता शरीर प्रेरणा को उद्वेलित कर रहा था. कभी ना सूना रहनेवाला दीपा का माथा आज आंसुओं के समुद्र में अपनी बिंदी बहा चुका था और बिंदी का कार्ड हर समय सामने लेकर खड़े रहनेवाले दिव्यांश ज़िंदगी से जंग लड़ रहे थे. प्रेरणा ने अपने छोटे से पर्स से गोल मैरून बिंदी निकालकर दीपा के माथे पर रख दी और भीगे स्वर में बोली, “जब से तूने बिंदी का दर्शन समझाया है न, तब से बिंदी का कार्ड हमेशा अपने पास रखती हूं. चलो, हम दिव्यांश के लिए प्रार्थना करते हैं.”
“पर प्रेरणा, डॉक्टर ने जवाब दे दिया है. वो इस स्टेज पर हैं कि कोई इलाज, कोई ट्रांसप्लांटेशन काम नहीं आएगा.” दीपा के चेहरे पर बनती भंगिमाओं और भावनाओं के सैलाब के बीच में बिंदी उठती-गिरती महसूस हो रही थी.
प्रेरणा को लगा कि वो अपनी झोली फैला ले और उसकी बिंदी गिरने ना दे, जैसे दीपा अपनी क्लास में प्रोफेसर वालिया के लिए सोचा करती थी.
सच! कोई प्रार्थना काम नहीं आई और दिव्यांश सदा-सदा के लिए सो गए. आंसुओं का सैलाब बाढ़ बनकर उतर आया. दीपा भागकर दिव्यांश के गले लग गई. प्रेरणा ने देखा उसकी लगाई बिंदी भी काम नहीं आई. दीपा का माथा सूना हो गया. प्रेरणा ने दीपा को दिव्यांश से अलग करते हुए अपने सीने से लगा लिया. कहां गई वो बिंदी जो प्रेरणा ने लगाई थी. उसने देखा वो मैरून बिंदी चिरनिद्रा में लीन दिव्यांश की कमीज़ के कॉलर से झांक रही थी.
दिव्यांश के जाने के बाद टूट-सी गई थी दीपा. प्रेरणा दीपा के घर अब ज़्यादा जाने लगी थी. बच्चों का वास्ता देकर उसमें जीने की ललक पैदा करती. फिर से स्कूल में नौकरी के लिए तैयार करती. जीना तो पड़ेगा जैसे दर्शन से रू-ब-रू करवाती, पर उसके ड्रेसिंग टेबल के सामने जाते ही प्रेरणा को जैसे काठ मार जाता. रंग-बिरंगे बिंदी के पत्ते और सजने-संवरने का सामान देखकर प्रेरणा का कलेजा मुंह को आ जाता.
संभल गई थी दीपा इन दो सालों में. अपनी स्कूल की नौकरी पर भी जाने लगी थी. वैभव दसवीं में और विपुल आठवीं में आ गया था. दीपा वैभव के करियर के बारे में सोचती, उसके पापा होते, तो जैसा होता वैसा ही मुझे करके दिखाना है. यही उसके जीवन का उद्देश्य बन गया था.
पर प्रेरणा को उसका सूना माथा बेहद खलता. प्रेरणा ने तो उसी की वजह से बिंदी लगाना सीखा था. वो हर समय अपने आज्ञा चक्र पर उंगली का स्पर्श कर अपनी बिंदी संभालती रहती. एक दिन स्कूल से लौटते हुए प्रेरणा ने दीपा को कहा था, “दीपा, एक बात पूछूं? तू बिंदी क्यों नहीं लगाती.”
“क्या?” दीपा चौंकी थी.
“बिंदी कहां अब मेरे भाग्य में?”
“क्यों?” प्रेरणा के स्वर में तल्ख़ी थी.
“हमारे समाज में विधवाएं बिंदी नहीं लगातीं.” बेहद कड़े शब्दों में दीपा का जवाब था. इतने कठोर शब्द सुनकर प्रेरणा का दिल छलनी हो गया था. फिर भी प्रेरणा ने हार नहीं मानी थी. वो बोली, “पर बिंदी तो आज्ञा चक्र पर लगाई जाती है ना.”
“तो?” दीपा स्कूल के मेन गेट से बाहर निकलने लगी.
“तो क्या, आज्ञा चक्र पर लगाने से इष्ट का ध्यान होता है ना.” प्रेरणा ने दीपा का हाथ सख़्ती से पकड़ लिया और उसे मेन गेट से बाहर निकलने नहीं दिया. इतने दिनों से मन में चल रहे चक्रवात को प्रेरणा आज मन के बाहर लाना चाहती थी.
“मतलब?”
“मतलब साफ़ है दीपा. तू ही तो कहती थी ना कि इस आज्ञा चक्र के पीछे इष्ट का ध्यान होता है और हम औरतें इसलिए ध्यान की मुद्रा में रहती हैं. सच बताना दीपा. जब से दिव्यांश गए हैं, क्या तू उन्हें एक मिनट के लिए भी भुला पाई. वही थे न तेरे इष्ट?”
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“पर अपने समाज में यह प्रावधान नहीं है कि एक विधवा बिंदी लगाए.” दीपा बेहद सजग होकर जवाब दे रही थी.
“तू एक बार सोचकर देख दीपा, दिव्यांश तेरे आस-पास ही रहते हैं, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, वो हमेशा तेरे साथ होते हैं. फिर ये बिंदी हटाकर तुम क्या बताना चाहती हो समाज को?”
“हां प्रेरणा, इस बात से इंकार नहीं कि मुझे हर समय दिव्यांश के अपने आस-पास होने का एहसास होता है. मुझे लगता है वो अमर हैं.”
“फिर बताओ दीपा, एक बिंदी हटाकर तुम दिव्यांश को पीछे क्यों करना चाहती हो? तुमने तो हमेशा बिंदी को दिव्यांश का पर्याय माना है ना. फिर अपने माथे को बिंदी से महरूम करके क्यों हमें भी कष्ट देती हो?”
“पर प्रेरणा, बिंदी तो सुहागन का प्रतीक होती है ना?”
“हां होती है, पर दीपा कहां गया तुम्हारा वो दर्शन कि पुजारी भी अपने इष्ट को याद करके आज्ञा चक्र पर तिलक लगाते हैं. उनका इष्ट तो ईश्वर होता है ना, जो दिखाई भी नहीं देता. कहां गया तुम्हारा वो दर्शन कि महिलाएं अपने पति और दायित्वों को अपना इष्ट मानकर आज्ञा चक्र पर बिंदी लगाती हैं और हर समय ध्यान मुद्रा में रहती हैं? क्या हुआ जो तुम्हारे दिव्यांश दिखाई नहीं देते.”
“पर वो लोग? वो समाज?”
“कह देना उन लोगों को, उस समाज को कि मेरे दिव्यांश यहीं कहीं हैं. मेरे आस-पास. मेरी यादों में रचे बसे हैं. चल मेरे साथ मंदिर में.” प्रेरणा घसीटते हुए उसे मंदिर में ले गई.
“देख वो मूरत देख, जो पत्थर की है. हम उसकी पूजा करते हैं और पुजारी लोग इसी के नाम का तिलक लगाते हैं. दिव्यांश भी ऐसे ही हैं… ईश्वर हो गए हैं वो… चाहे आसमां का सितारा हो गए हैं… या अमर आत्मा या कोई देह बन गए हैं फिर से, फिर ये रूप क्यों?”
और प्रेरणा ने ईश्वर के साक्ष्य में दीपा के आज्ञा चक्र पर गोल मैरून बिंदी रख दी. दोनों सहेलियां गले मिलकर फफक पड़ीं. अश्रुधार के बीच दीपा के चेहरे पर स्मित रेखा थी.
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