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कहानी- आख़री ख़त (Short Story- Aakhri Khat)

औरत को ये क़ैद क्यों मिलती है? शायद तुम्हारे मौन का कारण तुम्हारी अपनी क़ैद ही रही हो. पुरुष प्रधान समाज में औरत पा ही क्या सकती है? मेरे धैर्य की सीमा टूट चुकी है. औरत की ज़िंदगी में ठीक कुछ नहीं होता. ठीक होगा भी नहीं. काश! तुमने ज़रा सा सहारा दिया होता, तो शायद मैं इतना बड़ा निर्णय न लेती. मैं कहीं भी अपने पैरों पर खड़ी हो जाती. मैं तो दस्तकें देती रही हूं, लेकिन तुम सब बहरे हो गए हो.

तुम्हारी बेटी का यह ख़त तुम्हारे नाम आख़री ख़त होगा. पहले भी जाने कितने ख़त तुम्हें लिखे. सब में अपनी व्यथा-कथा उड़ेलती रही. हर आहट पर चौंक कर दरवाज़े की ओर देखती रही. शायद मेरे वीर को भेजकर तुम मुझे क़ैद से आज़ाद करा सको. वह वीर, जिसकी कलाई पर पिछले चौबीस साल से राखी बांधा करती थी और तुम हर बार हुमायूं कर्णवती की कहानी सुनाकर भाई का मान बढ़ाया करती थी. मैं वह कहानी बड़े मनोयोग से सुनती थी. कर्णवती की राखी पा कर एक विजातीय भाई उसको मदद के लिए लश्कर सहित पहुंच गया. तो क्या मेरा भाई बहन की पुकार पर नहीं दौड़ पड़ेगा? इसी उम्मीद के सहारे जाने कितनी बार शब्दों की बैसाखी लिए अपने भाई को पुकारती रही. लगता है मेरी आवाज़ तुम तक नहीं पहुंची.
पहुंचती भी कैसे? बेटी की ससुराल और मायके के बीच एक शीशे की नाज़ुक दीवार जो खिंच जाती है. ससुराल की देहरी पर खड़ी बेटी बड़ी हसरत से दीवार के पार झांकती रहती है, लेकिन उसकी आवाज़ शीशे की दीवार से टकराकर उसके ही पास लौट आती है.
तुम नहीं जानती कि जितने भी ख़त मैने तुम्हें लिखे कैसे लिख पाई. देह को काग़ज़ बना आंसुओं से ढेरों इबारतें रची. स्वयं ही बांच-बांच कर धोती रही और जब थक गई, तो रात के स्याह अंधेरों में अपने ज़ख़्म सहलाती काग़ज़-कलम लेकर बैठ गई. तुम्हारी स्मृति का लेपन मेरे घावों को सुखकर लगा. ये काग़ज़-कलम भी मुझे कैसे उपलब्ध होते.

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मेरी ननद अपनी सहेली के घर गई होती और सास पड़ोस में गप्पे हांक रही होती. बस मौक़ा हाथ लग जाता. उसकी कॉपी के बीच के दो पृष्ठ निकाल लेती. उसको फेंकी बेकार कलम मैं उठा लेती. खाली रिफिल से भी दो-चार लाइनें लिख ही जातीं. बिना टिकट मैं बैरंग चिट्ठी नन्हीं पूजा के द्वारा पोस्ट कराती.
पूजा कौन है यह नहीं बताऊंगी, क्योंकि मेरी मृत्यु के बाद जब यह पत्र तुम्हें मिलेगा, तुम पूजा को खोजोगी. पूजा उसका असली नाम नहीं है. मुझ डूबती को तिनके का सहारा वही तो है, इसीलिए मैं उसे पूजा कहती और समझती हूं.
इस पूरे समाज और दोनों परिवारों में एकमात्र वही मेरी अपनी है. तुम्हें यह पढ़कर शायद अच्छा न लगे, क्योंकि मां से बढ़कर कोई अपना नहीं होता. पति से बढ़कर कोई परमेश्वर नहीं, लेकिन अब मैं किसी के भले-बुरे का एहसास समाप्त कर चुकी हूं.
हां, तो मैं कह रही थी मेरे बैरंग पत्र शायद तुमने न भी छुड़ाए हो. मेरा पता उनमे था नहीं. अतः मुझ तक लौटकर आ नहीं सकते थे. शायद पोस्ट ऑफिस की रद्दी की टोकरी में पड़े हों. यह मेरी मजबूरी थी कि मैं टिकट के लिए पैसे न जुटा सकी.
पता नहीं क्या सच है, क्या झूठ, लेकिन मैं जब भी तुम्हारे पास आती, तुम्हें अपनी व्यथा-कथा सुनाती, सास-ससुर की फ़रमाइशें तुम्हें बताती. इस परिवार को मुझसे अधिक टीवी, फ्रिज और स्कूटर की आवश्यकता थी. एक अदद औरत का मूल्य इतना भी नहीं. अपनी प्रताड़ना के चिह्न अपनी देह पर दिखाती. तुम निर्निमेष देखती आंसुओं की झड़ी लगा देती. फिर आहिस्ते से मेरी पीठ पर हाथ रखकर कहती, "धैर्य रख कुन्तल, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा."

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मैं तुम्हारी आंखों में झांकती. धैर्य की सीमा तलाशती. एक बेचारगी के अलावा कभी कुछ भी तो नहीं मिला. हर बार जैसे आती वैसे ही खाली चली जाती. किसी की आंखों में अपने लिए स्नेह के कण भी न पाती. जब भी लौटती और ज़्यादा प्रताड़ना के साथ.
एक बार शायद तुम मेरा दुख सह न सकी थी. तुमने बाबूजी से कहा था. बाबूजी भड़क उठे थे.
"कुन्तल से कहो एडजस्ट करना सीखे. मां-बाप का फर्ज़ बेटी की शादी कर ससुराल पहुंचाना होता है. वह हम पूरा कर चुके. भला-बुरा सब बेटी के भाग्य से मिलता है. हम क्या कर सकते हैं?"
बाबूजी ने मेरी नियति मुझे समझा दी थी. शादी के बाद मैं आप लोगों के लिए एक व्यर्थ की वस्तु बनकर रह गई थी. न तो भाई की भुजाओं में इतना दम रहा और न मां के ममता भरे आंचल की छांह रही. पिता का आशीर्वाद भी नहीं. मैं क्या से क्या हो गई. पूरे बाइस साल जिस आंगन में उगी-पनपी, वही बेगाना हो गया. फिर अपना कौन था? न यहां, न वहां.
औरत को ये क़ैद क्यों मिलती है? शायद तुम्हारे मौन का कारण तुम्हारी अपनी क़ैद ही रही हो. पुरुष प्रधान समाज में औरत पा ही क्या सकती है? मेरे धैर्य की सीमा टूट चुकी है. औरत की ज़िंदगी में ठीक कुछ नहीं होता. ठीक होगा भी नहीं. काश! तुमने ज़रा सा सहारा दिया होता, तो शायद मैं इतना बड़ा निर्णय न लेती. मैं कहीं भी अपने पैरों पर खड़ी हो जाती. मैं तो दस्तकें देती रही हूं, लेकिन तुम सब बहरे हो गए हो.
इस पत्र की समाप्ति के पांच मिनट बाद मैं भी नहीं रहूंगी, लेकिन अन्तिम निवेदन है कि मेरी लाश की क़ीमत मत वसूल करना. तुम्हारे ही शब्दों में मेरी शादी के साथ तुम सबका फर्ज़ पूरा हो गया था. अतः अब उन पत्रों को भुलाने की कोशिश मत करना, जो मैंने तुम्हें लिखे थे.
मैं रोज़ ही सुनती हूं कि बेटी के मरने के बाद मायकेवालों को बेटी का मोह होता है. जीते जी तो वे नरक से निकाल नहीं सकते. मरने के बाद लड़केवालों से रक़म वसूली के लिए सारे हथकण्डे अपनाते हैं. मुझ जैसी कितनी ही कुन्तलें केवल इसीलिए दम तोड़ देती हैं कि उनकी मां भी अपनी नहीं रहती.

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मैं जानती हूं आपको अनिता के ब्याह की चिन्ता है, लेकिन मेरी लाश और पत्रों से वसूले धन से अनिता का ब्याह नहीं होगा. यह पत्र लिखा भी इसलिए है कि अनिता को 'कुन्तल' न बनना पड़े.
अलविदा!

- सुधा गोयल

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