डायरी की आख़िरी लाइन पर रोहन रुक गया. “अगर कभी मेरी जगह कोई और आए तो उससे यह ज़रूर पूछ लेना, ‘थक गई क्या?’... बस यही शब्द किसी का जीना आसान कर सकते हैं.” रोहन के हाथ कांप रहे थे.
रात के ग्यारह बज चुके थे. पूरा घर गहरी नींद में था, बस रसोई से आती धीमी सी छन-छन की आवाज़ उस सन्नाटे को तोड़ रही थी. टेबल पर आधी भरी थाली रखी थी सब्ज़ी ठंडी हो चुकी थी, रोटी सख्त और उसके पास बैठी अनाया चुपचाप थाली को देख रही थी. उसकी आंखों में नींद नहीं, बस थकावट और नमी थी. दरवाज़े के पार से किसी ने झांका पर उसे देखने वाला कोई नहीं था…
सुबह के पांच बजते ही घर के बाकी लोग करवटें बदल रहे थे और अनाया रसोई में झाड़ू लगा रही थी. गैस पर दूध चढ़ चुका था. सास के लिए चाय बन रही थी. बच्चों के टिफिन में आलू परांठे जा रहे थे और पति रोहन का शर्ट प्रेस हो रहा था.
“इतनी देर क्यों लगा दी, चाय ठंडी हो गई!”
सास के ये शब्द रोज़ की तरह कानों में पड़े. अनाया ने कुछ नहीं कहा. बस सिर झुकाकर दोबारा चाय बनाई, जैसे उसने अपनी ज़ुबान भी किसी आलमारी में बंद कर दी हो.

रोहन ऑफिस जाते वक़्त बस इतना बोला, “कपड़े ठीक से रख देना. मीटिंग है, देर हो जाएगी.”
ना “अलविदा” कहा, ना “ध्यान रखना”...
बस चाबियां टेबल पर पटक दीं और निकल गया.
दोपहर तक पूरे घर की सूरत चमक रही थी, बस वह ख़ुद फीकी पड़ गई थी.
सास अपने कमर दर्द का रोना रो रही थीं, ससुर टीवी पर समाचार देख रहे थे, बच्चे स्कूल में थे और वह ख़ुद को दीवारों में टांग चुकी थी.
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थकान उसकी उंगलियों में उतर आई थी, पर फिर भी उसने सबके खाने की तैयारी की.
जब ख़ुद खाने बैठी तो सब्ज़ी ठंडी और रोटी सूख चुकी थी.
उसी वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी. पड़ोसन माधवी दीदी थीं.
“अरे अनाया, तू तो दिनभर काम में घुसी रहती है. कभी अपने लिए भी वक़्त निकाल लिया कर.”
अनाया ने मुस्कुराने की कोशिश की वो वही मुस्कान थी, जो चेहरे पर होती है पर दिल में नहीं.
“समय... मेरे हिस्से में बस झाड़ू और बर्तन लिखे हैं दीदी.” उसने धीरे से कहा.
शाम को जब बच्चे लौटे तो उनके लिए दूध, स्नैक्स, और होमवर्क का पहाड़ तैयार था.
रोहन आया तो फोन पर किसी से हंस कर बात कह रहा था.
“आज ऑफिस में बहुत काम था?” अनाया ने पूछा.
वह बोला, “हां, थक गया हूं.” और सीधा टीवी ऑन कर दिया.
अनाया कुछ कहना चाहती थी, “मैं भी थक गई हूं रोहन.” पर उसने होंठों को चुप करा दिया, क्योंकि उसे मालूम था उसके थकने का हक़ इस घर में किसी ने दिया ही नहीं.
रात गहराने लगी.
बच्चे सो चुके थे सास-ससुर अपने कमरों में.
अनाया अभी भी रसोई में थी. गैस बंद कर रही थी, सिंक साफ़ कर रही थी, अगले दिन की सब्ज़ी काट रही थी.
अचानक उसका सिर चकराया. उसने दीवार का सहारा लिया. गला सूख गया था. आंखें भारी हो गईं. वो कुर्सी पर बैठ गई और पता ही नहीं चला, कब उसकी आंख लग गई.
रात के क़रीब दो बजे रोहन की नींद खुली. रसोई की लाइट जल रही थी. वह झुंझलाया, “यह अभी तक क्या कर रही है?”
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वो वहां गया तो देखा अनाया सिर झुकाए बैठी है, बिल्कुल स्थिर.
“अरे अनाया, सो गई क्या?” कोई जवाब नहीं. वो पास गया. उसका कंधा हिलाया शरीर ठंडा था.
रोहन के हाथ से पानी का ग्लास गिर पड़ा.
वो घबरा गया, चिल्लाया, “मां... मां..!” पूरा घर दौड़ा आया. डॉक्टर बुलाया गया, पर देर हो चुकी थी. डॉक्टर ने बस इतना कहा, “शरीर पूरी तरह थक चुका था… शायद कई दिनों से बुखार में थीं, पर आराम नहीं किया.”
रोहन के कानों में जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. वो बड़बड़ाने लगा, “पर उसने तो कभी कहा ही नहीं कि वो बीमार है…”
डॉक्टर ने गहरी सांस ली, “कहने के लिए सुनने वाला भी तो चाहिए था.”
सुबह सूरज निकला, पर उस घर में सन्नाटा था.
रसोई की मेज़ पर वही आधी खाई हुई थाली रखी थी- ठंडी, सूनी और ख़ामोश.
सास अब चाय बनाते हुए रो रही थीं, “कभी सोचा ही नहीं था कि वो इतना कुछ झेल रही थी…”
बच्चे पूछ रहे थे, “मां कहां है?”
रोहन बस चुप था.
उसने उस थाली को देखा, जहां अब किसी के हाथ की रोटी नहीं रखी जाएगी.
दिन बीतते गए.
रसोई अब साफ़ रहती थी, पर उसमें वो ख़ुशबू नहीं थी, जो अनाया के हाथों से आती थी.
घर चल रहा था, मगर जीवन रुक गया था.
एक शाम, जब रोहन ऑफिस से लौटा तो उसे आलमारी में एक डायरी मिली.
उस पर लिखा था- मेरी ख़ामोशियां...
उसने खोला. पहला पन्ना पढ़ते ही आंसू बह निकले.
“आज बुखार है, पर काम तो फिर भी करना है.
अगर मैं रुक गई तो ये घर रुक जाएगा. कोई पूछेगा क्या कि मैं ठीक हूं? शायद नहीं...
मैं बस एक ‘सिस्टम’ बन गई हूं, जो सुबह शुरू होता है और रात को टूट जाता है.”
अगले पन्ने पर लिखा था-
“मुझे डर है कि किसी दिन मैं गिर जाऊंगी और कोई ध्यान नहीं देगा. शायद उन्हें तब एहसास होगा कि घर सिर्फ़ दीवारों से नहीं, एक नारी की सांसों से चलता है.”
डायरी की आख़िरी लाइन पर रोहन रुक गया.
“अगर कभी मेरी जगह कोई और आए तो उससे यह ज़रूर पूछ लेना, ‘थक गई क्या?’... बस यही शब्द किसी का जीना आसान कर सकते हैं.”
रोहन के हाथ कांप रहे थे.
वह रोया पहली बार, शायद सच्चे मन से.
उसने ख़ुद से वादा किया कि अब किसी और महिला को उस ख़ामोशी का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा.
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उस दिन के बाद उसने रसोई की लाइट के नीचे वो थाली संभालकर रख दी, याद दिलाने के लिए कि एक नारी की मेहनत कभी हल्की नहीं होती, भले ही उसकी आवाज़ कोई सुन न पाए. अंत: हर घर में एक 'अनाया' होती है, जो सबका ध्यान रखती है, मगर ख़ुद भुला दी जाती है.
वो बोलती नहीं, पर उसके हाथ, उसकी आंखें और उसकी थकान रोज़ चीखती हैं.
कभी उसके पास बैठकर बस इतना पूछ लेना, “थक गई क्या?” क्योंकि यही सवाल किसी की जान बचा सकता है!..
- एक पाठक

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