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कहानी- आंखें बोलती हैं (Short Story- Aankhen Bolti Hain)

“हां गुड़िया, पर मुझे एक बात आज तक समझ नहीं आई कि बिन बताए उनकी परेशानी तुम कैसे समझ गई थी, कितनी छोटी थी तुम.”
“समझनेवाली बात क्या थी मां, इंसान की आंखें सब बोलती हैं. बस पढ़नेवाला चाहिए.”
“हां, यही कारण होगा. बड़े लोग अपने जीवन की आपाधापी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि किसी की आंखों की तो क्या, मुंह से कही बात भी पकड़ नहीं पाते. अच्छा एक बात बता, तुझे आज चंदा की आंखों में कुछ नज़र नहीं आया? वो कितनी थकी हुई, खोई-खोई सी काम कर रही थी, जैसे कोई ज़िंदा लाश हो. तभी उसकी नज़र हम पर नहीं पड़ी.” रूबी को सुनकर थोड़ा धक्का लगा. 

रूबी बर्तन ऐसे मांज रही थी जैसे कुछ खुन्नस निकाल रही हो... ज़ोर-ज़ोर से बर्तन पटकने की आवाज़ें, एक-आध हाथ से छूटकर गिर जाने की टनटनाहट, धीमी-धीमी बड़बड़ाहट की गुनगुन, झल्लाए तेवर और तेज़ी से चलते हाथ. रूबी का हाल वही था, जो अक्सर कामवाली बाइयों के अचानक से न आने की ख़बर सुन किसी भी गृहस्थन का हो जाता है और सोने पर सुहागा तब होता है, जब घर में मेहमान भी आए हुए हों. कितना भी पहले बोलकर रखो इन लोगों को, मगर ठीक ऐन टाइम पर छुट्टी मारती हैं. दो महीने से बोल रखा था चंदा को, मई के पहले दो हफ़्ते कोई छुट्टी मत लेना, मां आ रही हैं. वैसे भी मां मेरे पास नहीं आतीं. बड़ी मुश्किलों से राज़ी किया था कि कभी तो बेटी के पास भी रह जाया करो. बच्चे भी बोलते हैं, सबकी नानियां आती हैं, एक हमारी ही नहीं आती. तब जाकर पूरे पांच साल बाद आई हैं. सोचा था, उनके आने पर चंदा से कुछ एक्स्ट्रा काम करा लिया करूंगी, ताकि उन्हें ज़्यादा समय दे सकूं, कुछ घुमा-फिरा सकूंगी. मगर ये महारानीजी तो अपना काम करने से भी रही. घर कितना गंदा पड़ा है, बर्तन भी मुझे ही मांजने पड़ रहे हैं... बड़बड़ाते हुए रूबी की नज़र बार-बार घड़ी की ओर जा रही थी. घड़ी की सुइयों के साथ उसके हाथों की गति भी बढ़ रही थी. ओह! कितना लेट हो गया. लगता है आरती तक ही पहुंच पाएंगे. रूबी की मम्मी निर्मलाजी अपने गृहनगर बरेली से बाहर कम ही आती-जाती थीं. वे अधिकतर पूजा-पाठ और सेवा कार्यों में ही व्यस्त रहतीं. मुंबई तो जैसे उन्हें दुनिया का दूसरा कोना लगता, इसलिए बेटी-दामाद के लाख आग्रह के बाद भी उन्हें टाल दिया करती थीं. वैसे भी मुंबई की भागती-दौड़ती ज़िंदगी और उमस उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी. फिर भी इस बार आ गई थीं. रूबी बहुत कोशिश करती कि उन्हें कहीं घुमा लाए, मगर भीड़ से उनका जी घबराता था. आज पास की ही सोसायटी में रूबी की एक पुरानी परिचिता स्मिता के यहां गृहप्रवेश की पूजा चल रही थी. निर्मलाजी वहां जाने के लिए तैयार हो गईं. रूबी ने वहां समय से पहुंचना तय किया था, मगर सुबह उसकी बाई चंदा का फोन आ गया कि उसे बहुत ज़रूरी काम से गांव जाना पड़ रहा है, अतः वह दो दिन काम पर नहीं आ पाएगी. फोन सुनकर रूबी का जो हाल हुआ, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. उसे वही समझ सकता है, जो ऐसी मुसीबत से गुज़रा हो.


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रूबी का मन तो किया आज ही निकाल बाहर करे चंदा को, पर कैसे? आज से पहले तो उसने ऐसा धोखा कभी नहीं दिया. पैसे तो काट ही लूंगी, पर कैसे काट सकती हूं. महीने की दो छुट्टियां तो मान्य हैं. मगर कुछ मां के आने का तो लिहाज़ करती... उसकी बड़बड़ जब निर्मलाजी के कानों में पहुंची, तो वे रूबी को समझाने आ गईं. “क्यों इतना खून जला रही हो गुड़िया. ऐसा क्या ग़ज़ब हो गया? वो भी इंसान है, बाल-बच्चोंवाली है. क्या उसे कोई ज़रूरी काम नहीं हो सकता? काम का क्या है. वापस आकर हम दोनों निपटा लेंगे. चल अब तू शांत हो जा. मैं तेरे लिए अदरक की चाय बनाती हूं. उसे पीकर रिलैक्स हो और आराम से तैयार हो जा.” मां के समझाने पर रूबी उखड़े मन से ही सही, मगर मुस्कुरा पड़ी. दोनों जब पूजा में पहुंचे, तो आरती ही चल रही थी. रूबी को पूजा हॉल में प्रवेश करते हुए बड़ी शर्म महसूस हुई. जब कोई उसके घर ऐसे सीधे आरती में पहुंचता था, तो वह मन ही मन चिढ़ती थी, ‘लो आ गए सीधा प्रसाद खाने...’ और अब वही ऐसे आई है, स्मिता क्या सोचेगी. आरती के बाद भोजन का आयोजन था और उसके कुछ देर बाद सुंदरकांड शुरू होना था. भोजन के लिए बाहर एक अलग पंडाल की व्यवस्था थी. स्मिता को बधाई और गिफ्ट देकर रूबी और निर्मलाजी ने लंच की प्लेट लगाई और पंडाल के एक कोने में सही जगह देखकर बैठ गए. खाना खाते हुए यूं ही रूबी की नज़र हवा से हिल रहे पर्दों के बाहर चली गई, तो वह चौंक पड़ी... ‘अरे ये क्या, चंदा यहां.’ बाहर उसकी बाई चंदा बैठी बर्तन मांज रही थी. यह देख रूबी के भीतर यकायक जो ज्वालामुखी फूटा, यदि उसका लावा बाहर आ जाता, तो चंदा के साथ-साथ सभी बर्तन-भांडे भी बहाकर ले जाता, मगर रूबी कैसे बहने देती. सामने उसकी मां जो बैठी थी. मां के सामने अपनी छवि कैसे ख़राब होने देती कि उसकी इतनी समझदार, मैच्योर, टफ बेटी एक बाई के धोखे से हिल गई. ख़ैर, रूबी ने जैसे-तैसे ख़ुद को संभाला और प्लेट में बचा खाना लगभग निगला और स्मिता के पास जाकर बातचीत करने लगी. “यार स्मिता, एक बात तो बता, ये जो मेड बाहर बर्तन मांज रही है, ये तेरी परमानेंट मेड है क्या?” “अरे नहीं, ये मेरी मेड की पहचानवाली है. मुझे दो दिन के लिए एक्स्ट्रा कामों के लिए एक मेड चाहिए थी, तो वह इसे ले आई. भली औरत है, सुबह से चुपचाप काम कर रही है. जो बोलो कर देती है.” 
“अच्छा, कितना लेती है एक दिन का? अच्छी है, तो मैं भी कभी आगे बुला सकती हूं.” रूबी अंजान बनकर पूछने लगी. “500 पर डे पर बात हुई है. सुबह छह बजे आ गई थी, रात तक रहेगी. इसने मेरी समय पर बड़ी मदद की, इसलिए सोच रही हूं, कल जाते समय कुछ खाना-पीना और एक साड़ी दे दूंगी. रिश्तेदारों को बांटने के लिए थोक में मंगाई थी, कुछ बच गई हैं.” स्मिता अपनी धुन में बोलती जा रही थी, मगर रूबी के तन-बदन में जैसे आग लग गई थी. वाह, मेरे यहां से छुट्टी लेकर यहां अपनी जेब गरम कर रही है. दो दिन में हज़ार कमा लेगी. आए तो वापस एक बार, बताती हूं इसे... रूबी का मन ही मन भुनभुनाना शुरू हो गया. सुंदरकांड शुरू हो चुका था. लंका दहन की चौपाईयां पढ़ी जा रही थीं. उधर रूबी के भीतर सुलगी आग में भी लपटें उठ रही थीं. ‘तीन साल में कितना ख़्याल रखा उसका. पिछले महीने बीमारी में हफ़्तेभर की छुट्टी दी थी. बाकी सब पैसे काटती हैं, मगर मैंने कभी नहीं काटे. अपने बेटे के बर्थडे पर उसके बच्चों के लिए भी केक, चॉकलेट भिजवाती हूं. काम बाद में शुरू करवाती हूं, पहले चाय पिलाती हूं. हर दूसरे महीने एडवांस पैसे ले लेती है. अभी भी दो महीने का एडवांस ले रखा है. बड़ा बेटा भी कमा रहा है. फिर भी पैसों के लिए इतनी हाय-हाय. मुझसे झूठ बोला...’ रूबी मन ही मन बुदबुदा रही थी. हनुमानजी लंका जलाने के बाद अपनी पूंछ सागर में डुबोकर बुझा चुके थे, मगर रूबी के हृदय की आग अभी भी नहीं बुझी थी. वह मन ही मन निर्णय कर चुकी थी कि कल से ही दूसरी बाई देखेगी और अपने पैसे वापस लेकर उसे बाहर करेगी. बेटी का यह हाल निर्मलाजी समझ रही थी, मगर यहां कुछ भी कहना-सुनना बेकार था. ख़ैर, दोनों घर पहुंचे, तो निर्मलाजी हल्की-फुल्की बातचीत कर बेटी का मन बहलाने का प्रयास करने लगीं. कुछ रिश्तेदारों की गप्पे, कुछ बचपन के क़िस्से, पर रूबी अभी भी नॉर्मल नहीं थी. तभी निर्मलाजी ने अपने मोबाइल पर फोटो गैलरी खोली और रूबी को दिखाने लगीं. इतनी पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फोटो देखकर रूबी को बड़ा आश्‍चर्य हुआ, “अरे मां, ये फोटो मोबाइल में कैसे? मुझसे भी शेयर करो ना.” “हां, हां करूंगी. पूरी एलबम है मेरे मोबाइल पर. ज़रा देख तो, ये वाली फोटो, कैसी लग रही है तू इस फ्रॉक में और ये पापा के साथ आइस्क्रीम खाते हुए. खा कम रही थी और गिरा ज़्यादा रही थी.” निर्मलाजी हंसते हुए बोलीं, “और ये वाली तो ग़ज़ब है, नौकर के साथ. वो घोड़ा बनकर तुझे पीठ पर सवारी करा रहा है. तब तू पांच-छह बरस की रही होगी.” 

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“अरे, ये तो रघु काका हैं. इन्हें नौकर क्यों बोल रही हो?” रूबी ने थोड़ा ग़ुस्से से कहा. “नौकर को नौकर न कहूं, तो क्या कहूं?” निर्मलाजी ने तुनककर कहा, तो रूबी ने उन्हें घूरा. “नौकर भी इंसान होते हैं और ये आपके लिए नौकर होंगे. मेरे लिए मेरे दादा से भी बढ़कर थे.” निर्मलाजी को रूबी की प्रतिक्रिया देखकर ख़ुशी हुई कि वह अभी भी वे मानवीय भावनाएं महसूस करती है, जो बचपन में किया करती थी. “कितना प्यार-दुलार दिया इन्होंने मुझे...” कहते हुए रूबी की आंखों में पूरा बचपन उतर आया. रूबी के दादा गांव के बड़े ज़मींदार थे. वैसे वे भले इंसान थे, मगर ज़मींदारी की अकड़ और सख़्ती उनके व्यक्तित्व पर हावी रहा करती थी. रूबी का आरंभिक बचपन गांव की साफ़-सुथरी आबोहवा और सरलता में बीता. रघु काका दादा के मुलाज़िम थे. वैसे तो वे बिल्कुल घर के सदस्य जैसे थे, मगर ज़मींदार साहब की नज़र में तो नौकर ही ठहरे. रूबी का दिन रघु काका की मीठी बोली से ही शुरू होता था, “गुड़िया रानी दिन चढ़ आया है और अभी तलक बिस्तर में दुबकी हो. घोड़े की सवारी करनी है ना, तो जल्दी-जल्दी उठो, नहा-धोकर तैयार हो जाओ, फिर सैर पर चलेंगे.” यह उन दोनों की दिनचर्या थी. काका तड़के पांच बजे ही हवेली आ जाते और गाय-भैसों का काम करते, मसलन- दूध निकालना, चारा डालना, सफ़ाई करना. फिर आठ-नौ बजे के लगभग एक-दो घंटे छोटी गुड़िया की सेवा में हाज़िर रहते. उसे घुमाना-फिराना, उससे मीठी-मीठी बातें करना. रूबी को बचपन में खोया देख निर्मलाजी ने उसे झंझोड़ा... “अरे कहां खो गई? सीधे गांव पहुंच गई लगता है.” “हां मां, सच कितने अच्छे दिन थे वो. रघु काका के चले जाने के बाद तो गांव में बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था.” “हां, कितना रोई थी तू उनके जाने पर.” रघु काका को याद कर रूबी अभी भी रुआंसी हो चली थी. “अच्छा तुझे वो क़िस्सा याद है जब एक दिन रघु काका बड़े उदास आए थे, बेमन से काम कर रहे थे. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, मगर तू इतनी छोटी होते हुए भी उनकी उदासी को भांप गई थी. कैसे बार-बार उनका मुंह ऊपर कर आंखों में झांकती हुई पूछ रही थी कि क्या हुआ काका, इतने उदास क्यों हो? वो कह रहे थे कि कहां उदास हूं, ये देखो मैं तो हंस रहा हूं... और फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने की ऐक्टिंग करने लगे थे.”
“हां मां, याद है. काका की वो झूठी खोखली हंसी, उदास पनीली आंखें... कितना दर्द छिपा था उनमें.” रूबी उदास हो चली, उसकी आंखों के सामने वह दृश्य जीवंत हो उठा, जब वह काका की चिंता में दादाजी के पास भागी-भागी गई थी. “दादाजी, देखो मेरे रघु काका को क्या हुआ है. आज अच्छे से बात भी नहीं कर रहे हैं. ज़रूर उनकी तबीयत ख़राब है. उन्हें डॉक्टर को दिखाओ.” पीछे पड़ गई थी उनके. मजबूरन दादाजी को सब काम छोड़कर पहले रघु काका से बात करनी पड़ी, उनका हाल जानना पड़ा. तब पता चला कि उनका बेटा बहुत बीमार था. इलाज के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत थी, मगर उनका स्वाभिमान किसी के आगे हाथ फैलाने में कतरा रहा था. तब दादाजी ने उन्हें पैसे देकर मेरी ओर देखा था और बोले थे, “अब ख़ुश. अब तो मेरा पीछा छोड़ मेरी मां.” “हां गुड़िया, पर मुझे एक बात आज तक समझ नहीं आई कि बिन बताए उनकी परेशानी तुम कैसे समझ गई थी, कितनी छोटी थी तुम.” “समझनेवाली बात क्या थी मां, इंसान की आंखें सब बोलती हैं. बस पढ़नेवाला चाहिए.” “हां, यही कारण होगा. बड़े लोग अपने जीवन की आपाधापी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि किसी की आंखों की तो क्या, मुंह से कही बात भी पकड़ नहीं पाते. अच्छा एक बात बता, तुझे आज चंदा की आंखों में कुछ नज़र नहीं आया? वो कितनी थकी हुई, खोई-खोई सी काम कर रही थी, जैसे कोई ज़िंदा लाश हो. तभी उसकी नज़र हम पर नहीं पड़ी.” रूबी को सुनकर थोड़ा धक्का लगा, “नहीं मां. मुझे तो उसे वहां देखकर ऐसी आग लगी कि इसके बाद मुझे न कुछ दिखा, न मैंने कुछ सुना. तुम्हें ऐसा क्या नज़र आया उसकी आंखों में?” “मैंने उसकी आंखों में और चेहरे पर वही रघु काकावाली उदासी देखी थी गुड़िया.” “क्या कह रही हो मां.”


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“हां बेटा, एक बात कहती हूं, परसों जब वह आएगी, तो पहले उससे बात करना, उसकी सुनना, फिर कोई निर्णय लेना.” “ठीक है मां. अच्छा ये तो बताओ आपके मोबाइल में ये फोटो पहुंची कैसे?” चंदा प्रकरण से असहज हो चली रूबी ने बातों का रुख बदला. “इस बार तेरा भाई जब घर आया था, तो सारी पुरानी एलबम बैठकर स्कैन कर डाली और मोबाइल में डाल दी. कहने लगा मम्मी एलबम में रखे-रखे इनमें दीमक लग जाएगी, इसलिए इन्हें डिजिटल बना रहा हूं. हमेशा साथ और पास रहेंगी. जब मर्ज़ी देख लो.” मां-बेटी की ऐसी ही बातों में दो दिन गुज़र गए. रूबी का मन अब शांत था. सुबह चंदा अपने तय समय पर आ गई. रूबी ने बड़े सहज भाव से पूछा, “अरे चंदा, तेरा गांव का काम ख़त्म हुआ कि नहीं?” “हां दीदी, हो गया.” चंदा नीची नज़रें किए थोड़ा हकलाते हुए बोली. “अच्छा, मुझे नहीं पता था तेरा गांव सनसिटी सोसायटी में ही है...” रूबी ने मुस्कुराते हुए कहा. सुनकर चंदा के पैरों तले ज़मीन निकल गई, चेहरे पर ऐसी हवाइयां उड़ीं जैसे किसी चोर की हालत रंगे हाथों पकड़े जाने पर होती है. वो बुरी तरह घबराकर बोली, “दीदी वो...” “मैं भी वहां गई थी. तुझे वहां काम करते देखा, इसीलिए पूछ रही हूं.” रूबी बिल्कुल संयत थी. “ऐसी क्या बात हो गई चंदा, जो तुझे वहां काम करना पड़ा? पहले ही तेरे पास इतने काम हैं, ज़्यादा काम करेगी, तो शरीर थकेगा. पिछले महीने ही तुझे बुख़ार आया था. अभी कमज़ोरी पूरी तरह गई भी नहीं है.” चंदा बेहद आश्‍चर्य में थी. उसका झूठ और धोखा पकड़ने के बाद भी दीदी इतने प्यार से बोल रही हैं. उसका अपराधबोध आंखों के रास्ते बह निकला. सुबकते हुए कहने लगी, “क्या करती दीदी. छोटे की फीस भरनी थी. फीस न भरने पर मास्टरजी ने उसे पूरे दिन कक्षा से बाहर खड़ा रखा था.” “पर तेरा तो बड़ा बेटा भी नौकरी करता है ना? फिर...?” “कहां दीदी, वो तो चार महीने से घर पर बैठा है. आपसे जो फीस भरने के लिए एडवांस लिया था, वह पूरा मेरी बीमारी पर ही ख़र्च हो गया था.” “अरे, तो मुझसे क्यों नहीं बोली?” रूबी ने उसके कंधे थपथपाए. “क्या बोलती दीदी. एक आप ही हो, जो ज़रूरत पर मदद कर देती हो. बाकीलोगों ने तो बीमारी की छुट्टी के भी पैसे काट लिए. आप से कितना मांगूं. मुझे शर्म आती है दीदी.” चंदा बुरी तरह फफकने लगी. “मुझे माफ़ कर दो दीदी.” 
“माफ़ी किस बात की चंदा. तू आख़िर मां है. अकेले अपने बच्चों को पाल रही है. मैं तो तुझे वहां देखकर ही समझ गई थी कि तू बहुत परेशानी में ही आई है, वरना कभी ऐसा न करती. आगे से ऐसी कुछ बात हो, तो बता दिया कर. मुझसे शर्माने की ज़रूरत नहीं. तू भी तो मेरी ज़रूरत पर कितना एक्स्ट्रा काम कर देती है. लोग ऐसे ही एक दूसरे के काम आते हैं. चल अब चुप हो जा, मैं पहले तेरे लिए चाय बनाती हूं. चाय पीकर काम शुरू करना.” दिल का बोझ उतर चुका था. चंदा का भी और रूबी का भी. रूबी रसोई में चाय बनाने जा रही थी, चंदा पल्लू से आंख-नाक पोंछ रही थी और निर्मलाजी अपनी बिटिया को देख मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं, क्योंकि उन्हें वहां 35 साल की सेल्फ सेंटर्ड आधुनिका रूबी नहीं, बल्कि छह साल की गुड़िया नज़र आ रही थी, जो आंखों की बोली समझती थी. 

Deepti Mittal
दीप्ति मित्तल



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