सांत्वना सिसक पड़ी. एक पल को चुप रह कर अविनाश ने कहा, "सांत्वना, आज से लेकर जब तक हमारी सांसें हैं, तुम ख़ुद को अपने पास मेरी अमानत समझना,"
सांत्वना ने शर्माकर अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया.
डॉ. अविनाश सिंह अविवाहित थे. उम्र का इतना लंबा सफ़र ब्रिटेन में डॉक्टरेट, पोस्ट डॉक्टरेट, रिसर्च के उपरांत यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड में अध्यापन के दौरान गुज़र ही गया. ब्रिटेन में डॉ. अविनाश को जो भी समय अकेले में मिलतां, उसमें उनके साथ केवल सांत्वना की यादें हुआ करतीं. बीस वर्ष की आयु में हुआ वह प्रेम ही डॉ. अविनाश के जीवन का प्रथम और अंतिम प्रेम था. ब्रिटेन के खुले दृष्टिकोण वाले सामाजिक जीवन का प्रभाव मन में उत्पन्न प्रथम प्रेम को लेशमात्र भी विचलित नहीं कर सका. डॉ. अविनाश के मन से सांत्वना की यादें न तो कभी मिटीं, न तो उन्होंने कभी इन्हें भूलने की कोशिश ही की. कभी अकेले हुए नहीं कि बस यादों का सिलसिला शुरू हो जाता.
अविनाश के पिता व्यवसाय के सिलसिले में हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा शहर से मुंबई आकर वहीं बस गए थे. बात उन दिनों की थी जब कांगड़ा में अविनाश के परिवार के पड़ोसी और उसके पिता के अच्छे मित्र श्री बृजकिशोर शर्मा अपनी पुत्री सांत्वना का मुंबई के एक कॉलेज में दाखिला कराने के लिए मुंबई आए हुए थे. चूंकि श्री शर्मा को दाखिले और हॉस्टल में सांत्वना के रहने की व्यवस्था के बाद वापस लौट जाना था, इसलिए अपने कुछ दिनों के मुंबई प्रवास के दौरान पिता एवं पुत्री अविनाश के घर में ही ठहर गए थे. अविनाश का इंजीनियरिंग में तृतीय वर्ष चल रहा था. वह पूना से प्रत्येक सप्ताहांत में घर आ जाता था. घर पहुंचकर घंटी बजाने के बाद प्रतीक्षा करता. अविनाश सोच रहा था कि दरवाज़ा शायद मां खोलेगी या छोटा भाई अनिरुद्ध, पर एक लड़की को दरवाज़ा खोलते देख वह स्तब्ध रह गया. यंत्रचालित सा मन पल भर के लिए संज्ञाहीन सा हो गया. अविनाश को उसी क्षण पता चल गया कि उसके जीवन का प्रथम प्रेम प्रथम दृष्टि में किसी विद्युत के वेग से उसके हृदय को अपने अधीन कर चुका है.
लड़की को शायद पहले से ही ज्ञात था कि अविनाश आज पूना से आनेवाला है. लिहाज़ा उसे यह समझते देर नहीं लगी कि सामने खड़ा आकर्षक और संजीदा युवक अविनाश ही है. फिर भी उसने अविनाश की मां को पुकार कर कहा, "चाचीजी, ज़रा देखिए, कोई आए हैं,"
"कौन है? अरे, अविनाश आ गया." अविनाश को देखते ही प्रसन्न हो उठी उसकी मां. एक मिनट पहले अपने पुत्र पर क्या गुज़र गई है, इसका अनुमान नहीं लगा सकीं.
"अविनाश, ये सांत्वना है. बृजकिशोर जी की बेटी. यहां कॉलेज में दाखिले के लिए अपने पिताजी के साथ आई है."
यह भी पढ़ें: रिश्तों में क्यों बढ़ रहा है इमोशनल एब्यूज़? (Why is emotional abuse increasing in relationships?)
"कौन बृजकिशोर जी अम्मा?"
"अरे, तू कभी कांगड़ा गया होता तब तो जानता उन्हें. तू तो सिर्फ़ चार साल का था, जब हम मुंबई आ गए थे. इसके पिताजी तेरे पापा के गहरे दोस्त हैं. कांगड़ा में रहते हैं. वहां हम इनके पड़ोस में ही रहते थे."
"ओह! चाचाजी कहीं गए हैं क्या?"
"वह तेरे पापा के साथ अपने लौटने का रिजर्वेशन कराने गए हैं."
"अच्छा अम्मा, में नहाने के बाद सिर्फ़ चाय पीऊंगा. रास्ते में कुछ खा लिया था, सो अब कुछ खाने का मन नहीं है."
अगले दिन रविवार को शाम की गाड़ी से अविनाश को पूना लौटना था. इस दौरान वह किसी न किसी बहाने वहां पहुंच ही जाता, जहां सांत्वना उसकी मां के साथ कुछ घरेलू कामों में लगी होती. एक बार अविनाश ने सांत्वना से उसकी पढ़ाई के बारे में कुछ पूछा तो सांत्वना ने संक्षेप में जल्दी से उत्तर देकर बात समाप्त कर दी. इसके पश्चात् अविनाश को सांत्वना से दुबारा कोई बात करना बड़ा अस्वाभाविक सा लगा. उसका शेष समय कोई किताब पढ़ने की कोशिश में, सांत्वना की आवाज़ सुन पाने के इंतज़ार में ही बीतता रहा. आज अविनाश का मन कर रहा था कि काश! आज की रात इतनी जल्दी न आती. और जब रात हो गई तो उसका मन चाहने लगा कि रात किसी तरह बीत जाए, ताकि सुबह होते ही फिर सांत्वना की आवाज़ सुनने को मिले.
अविनाश के वापस पूना जाने का वक़्त आ ही गया, वापस जाने के विचार से ही अविनाश के मन में तीव्र बेचैनी होने लगी. खोया खोया सा अविनाश जब अपना सामान सूटकेस में रख रहा था, तभी अचानक उससे कुछ पूछने के लिए सांत्वना कमरे में आई. वह सांत्वना को काफ़ी देर तक अपलक निहारता रहा. सांत्वना ने कहा, "आपकी तबियत शायद ठीक नहीं."
"जी, नहीं तो. मैं तो बस... देखो सांत्वना, मैं नहीं जानता यह स्वाभाविक है या नहीं. मेरा मतलब है ऐसा लोगों के साथ होता है या नहीं, लेकिन मेरे साथ जो थोड़ी सी देर में हो गया है, उसके बारे में तुमसे बता देना चाहता हूं. मुझे तुमसे सच्चा और कभी न मिटनेवाला प्यार हो गया है. मैं जानता हूं तुम अब तक एक ऐसे शहर और ऐसे परिवार में रहती आई हो, जहां लड़के किसी लड़की से ऐसी बात इतनी आसानी से नहीं कह पाते लेकिन मैंने मजबूरी में मन में ही रखकर यहां से नहीं जा सकता. ऐसा करना मेरे लिए बिल्कुल नामुमकिन हो गया था." सांत्वना की इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह नज़र उठाकर अविनाश की नज़रों का सामना कर पाती.
"मुझे माफ़ करना, लेकिन जो बात कभी-न-कभी कहनी ही थी, उसे अभी ही कहकर मुझे लग रहा है, शायद मैंने ठीक ही किया." सांत्वना अब भी मौन खड़ी थी. उसके चेहरे पर रोष का कोई भाव नहीं था.
अगले सप्ताहांत में अविनाश जब घर पहुंचा तो दरवाज़ा खुलने पर मां के पीछे सांत्वना को भी खड़ा देखकर उसका मन हर्ष से भर उठा, "अरे अविनाश, आ गया तू. देख सांत्वना दो बजे से ही तेरा इंतज़ार करती बैठी है. कहती है, हम तो मुंबई की कोई सड़क या बस वगैरह नहीं जानते. अविनाश आएंगे तो उनसे कहिएगा हमें ज़रा जुहू चौपाटी घुमा दें. चलो, थोड़ा आराम कर लो. फिर इसे जरा जुहू दिखा देना."
समुद्रतट पर घूमना सांत्वना को बहुत अच्छा लग रहा था. धीरे-धीरे चलते हुए वे दोनों लहरों के क़रीब जा खड़े हुए.
"सांत्वना, अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं तुम्हें वनी कहकर पुकारूं."
"वनी, इसका क्या मतलब होता है?"
"ज़रूरी नहीं कि हर नाम का कोई मतलब हो."
"जी, अगर आपको वनी अच्छा लगता है तो आप मुझे वनी ही कहिए."
"हां तो वनी, मैं कह रहा था कि उस दिन अपनी कही बात का जवाब पाने के लिए मुझे और कितना इंतज़ार करना पड़ेगा?"
सांत्वना की नज़रें झुक गईं.
"तुम्हारी इस चुप्पी को मैं क्या समझूं वनी?"
अविनाश ने सांत्वना की झुकी पलकों में एक सिहरन सी महसूस की और उसे लगा कि अचानक ही सांत्वना की आंखें नम हो गई हैं. अविनाश बेचैन हो उठा. पता नहीं सांत्वना क्या कहने जा रही है.
"सांत्वना प्लीज़, देर मत करो. मैं तुम्हारा जवाब जानना चाहता हूं."
"आप मुझे प्यार कर सकते हैं, लेकिन इसकी मंज़िल शादी नहीं हो सकती."
"क्यों, क्यों नहीं हो सकती?"
"आप नहीं जानते क्या? कांगड़ा मुंबई नहीं है. वहां अभी तक एक राजपूत लड़का एक ब्राह्मण लड़की से शादी नहीं कर सकता."
"ओह वनी शटअप." अविनाश को क्रोध आ गया.
“देखो वनी, ये बातें मुझसे मत कहना. सिर्फ़ तुम्हारे ब्राह्मण होने की वजह से मैं तुम्हें खो नहीं सकता. मुझे ये बकवास नहीं सुननी."
सांत्वना सिसक पड़ी. एक पल को चुप रह कर अविनाश ने कहा, "सांत्वना, आज से लेकर जब तक हमारी सांसें हैं, तुम ख़ुद को अपने पास मेरी अमानत समझना,"
सांत्वना ने शर्माकर अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया.
"अच्छा, आपने अभी तक हमें वनी का मतलब नहीं बताया." सांत्वना ने सहज होने की कोशिश करते हुए कहा.
अविनाश ज़ोर से हंस पड़ा. फिर बोला, "अरे, वनी नहीं, मैं तुम्हें बन्नी कहता हूं. बन्नी का मतलब समझती हो? बन्नी का मतलब होता है दुल्हन."
अकस्मात यादों का क्रम यहीं थम गया और डॉ. अविनाश चौंककर फिर वर्तमान में आ गए. कब तक चलता रहेगा इसी तरह. बारह साल बीत चुके हैं. सांत्वना की शंका बिल्कुल सही साबित हुई थी. सांत्वना के पिता ने इस विवाह से साफ़ इंकार कर दिया. इतना ही नहीं, सांत्वना की पढ़ाई वहीं रोक दी गई और उसके पिता उसे कांगड़ा वापस लेकर चले गए.
अविनाश की तो जैसे दुनिया ही लुट गई. पिता के बार-बार समझाने के बाद अविनाश ने पढ़ाई फिर से शुरू की. उसके मन में यह विचार घर कर गया था कि पढ़ाई से अलग होते ही सांत्वना को खो देने का एहसास उसे जीने नहीं देगा, जिसका नतीज़ा यह हुआ कि अविनाश एक साधारण विद्यार्थी से बढ़कर डॉ. अविनाश सिंह बन गया.

नई दिल्ली में एक सेमिनार अटेंड करने के बाद डॉ. अविनाश मुंबई वापस आया. उसका एक साक्षात्कार भी दिल्ली दूरदर्शन ने प्रसारित किया. अपने कार्यालय में बैठा वह एक सहायक वैज्ञानिक सुधाकर के साथ किसी तकनीकी विषय पर चर्चा कर रहा था. तभी इंटरकॉम की घंटी बज उठी.
"यस."
"सर, एक महिला आई है, जो आपसे किसी ज़रूरी काम के सिलसिले में मिलना चाहती हैं. मैंने उन्हें बहुत समझाया कि बिना अप्वाइंटमेंट लिए आपसे कोई नहीं मिल सकता, लेकिन फिर भी वह नहीं मान रहीं. वह मुंबई से बहुत दूर किसी जगह से ख़ास आपसे मिलने आई हैं."
"महिला का नाम और पता पूछकर आधे घंटे बाद दुबारा रिंग करना."
"सर, वे कुछ नहीं बतातीं. उनकी सिर्फ़ एक ही ज़िद है कि उनका तुरंत आपसे मिलना बहुत ज़रूरी है."
"देखो आशा, उनसे कहो अभी मैं व्यस्त हूं. शाम को ऑफिस से जाते समय मैं उनकी समस्या सुन लूंगा." कहकर डॉ. अविनाश ने फोन रख दिया. उन्हें लगा कोई पत्रकार महिला होगी.
घंटी थोड़ी देर बाद दुबारा बज उठी.
"क्या है आशा, मैंने कहा न हम यहां व्यस्त हैं."
"सर, ये महिला बड़ी बेचैनी से मुझसे अनुरोध कर रही हैं कि मैं आपसे उन्हें फोन पर एक मिनट बात करने दूं."
"अच्छा ठीक है. उन्हें फोन दो... हां कहिए."
"जी मैं... मेरा आपसे इसी वक़्त मिलना बहुत ज़रूरी है." आवाज़ सुनते ही उत्तेजना से डॉ. अविनाश के हाथ कांप उठे. बेशक फोन पर बोलनेवाली सांत्वना ही है. केवल यही आवाज़ उनके मन के दीपों को आलोकित करने की शक्ति रखती है.
"सांत्वना... आप श्रीमती सांत्वना ही बोल रही हैं न?"
"श्रीमती नहीं, मैं केवल सांत्वना हूं. सांत्वना शर्मा." लगा कि कहते कहते महिला रो पड़ेगी.
डॉ. अविनाश रिसीवर हाथ में पकड़े पल भर को ख़ामोश हो गए.
"एक मिनट, जरा फोन पर ही रहना." फिर सुधाकर की ओर मुखातिब होकर डॉ. अविनाश बोले, "सुधाकर, मेरे एक मित्र की पत्नी से इस महिला को बड़ा ज़रूरी काम है. ये उनका पता वगैरह कुछ ठीक से नहीं जानती. मेरा ख़्याल है कि मुझे उसे अपने मित्र के घर तक पहुंचा आना चाहिए."
"ठीक है सर."
"देखो सुधाकर, लौटते हुए तो शायद सात बज जाएं, हम कल ही इस विषय पर बात करेंगे."
"ओके सर, मैं चलता हूं."
सुधाकर के जाने के बाद डॉ. अविनाश ने इंटर कॉम पर कहा, "जरा फोन सेक्रेटरी को देना... हां आशा, उस महिला को मेरे केबिन तक छोड़ जाओ."
"ठीक है सर."
सांत्वना को उनका पता कैसे मिला होगा? डॉ. अविनाश का पूरा परिवार तो कनाडा में है. वे सभी तो दस साल पहले ही कनाडा चले गए थे,
"आइए, इधर इस दरवाज़े से."
पहले आशा और फिर सांत्वना केबिन में दाख़िल हुई. डॉ. अविनाश कुर्सी दीवारं की तरफ़ किए किसी पेंटिंग को गंभीरता से देखने का अभिनय कर रहे थे.
"सर...."
यह भी पढ़ें: पहला अफेयर- कच्ची उम्र का पक्का प्यार (Love Story- Kachchi Umar Ka Pakka Pyar)
चेहरा उनकी तरफ़ किए बिना डॉ. अविनाश बोले, "हां आशा, ठीक है. मैं इनसे ज़रा दो मिनट में बात करता हूं. तुम जाओ. बैठिए सांत्वना जी, बस जरा दो मिनट." आशा दोनों को ऑफिस में छोड़कर वापस चली गई, आशा के जाने के बाद दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ सुनकर डॉ. अविनाश ने कुर्सी धुमाकर बारह वर्षों के बाद सांत्वना को देखा. सांत्वना की आंखों में आंसू थे. होंठ कांप रहे थे. अविनाश की नज़र पड़ते ही उसकी आंखों में थमे आंसुओं की धार उसके चेहरे पर बह निकली और सिसकते हुए सांत्वना ने बारह वर्ष पहले की तरह ही अपनी हथेलियों में अपना चेहरा छुपा लिया.
"सांत्वना..!"
"पिताजी पिछले वर्ष अपने निर्णय पर पछताते-पछताते ही इस दुनिया में हमें अकेला छोड़कर चले गए. उन्होंने आपका और आपके परिवार का पता खोजने की बहुत कोशिश की. हम कई बार मुंबई आकर निराश वापस लौट गए. आपका या आपके परिवार का कोई पता हमें नहीं मिल सका. कल रात को टीवी पर आपको देखा तो मैं फ्लाइट से सीधी यहां आ गई."
"सांत्वना, क्या तुमने भी बारह वर्ष मेरी तरह बिता दिए?"
"और क्या करती? आपने ही कहा था न कि मैं ख़ुद के पास आपकी अमानत हूं."
अविनाश अपने आंसुओं को और नहीं रोक सका. अगर ये उसका ऑफिस नहीं होता तो वह सांत्वना को सीने से लगाकर रो पड़ता.
"सांत्वना चलो, यहां मैं तुम्हें जी भर कर देख भी नहीं सकता. चलो, मुझे तुमसे अपने एक-एक दिन, अपने एक-एक पल की तकलीफ़, जो क़िस्मत ने मुझे तुमसे अलग करके दी है, कहनी है."
घर पहुंचकर डॉ. अविनाश ने सांत्वना को गौर से देखा. बारह वर्ष पहले की सत्रह वर्षीया किशोरी सांत्वना की जो तस्वीर उन्होंने अपने ख़्यालों में सहेजकर रखी थी, वह आज की सांत्वना में भी उतने ही सहज रूप में उन्हें नज़र आ रही थी.
"कुछ कहो न सांत्वना, तुम्हारी आवाज़ सुनने को कान तरस गए हैं."
सांत्वना की आवाज़ एक मधुर संगीत बनकर डॉ. अविनाश के मन-प्राण की बरसों लंबी जड़ता में एक जीवनी शक्ति का उदय करती हुई सीधी उनके हृदय में उतरती गई. सांत्वना ने धीरे से अपना चेहरा अविनाश के कंधे पर रख दिया और अविनाश ने अपनी वनी को अपनी बांहों में जकड़कर उसकी ख़ूबसूरत आंखों को चूम लिया. उसे अब भी लग रहा था कि वह कोई ख़्वाब देख रहा है, बारह वर्षों पुराना ख़्वाब.
- आनंद महाजन
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES