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कहानी- अल्पविराम (Short Story- Alpviram)

"आपको काफ़ी देर से अकेले बैठे देख रहा था, इसलिए मिलने चला आया. आइए मैं आपको अपने ग्रुप के बाकी लोगों से मिलवाता हूं, वहां जो लाफिंग थरेपी चल रही है, वही हम यंग लोगों का ग्रुप है."
अनिरुद्धजी का आख़िरी वाक्य "हम यंग लोगों का ग्रुप…" यह सुन कर वसुधा को थोड़ी हंसी आ गई और वह मुस्कुरा दी.

सांझ हौले-हौले अपनी कदम बढ़ाता हुआ दिन को अलविदा कह कर जाने लगा था. मन को सुकून प्रदान करनेवाली ठंडी बयार चल रही थी. तिमिर के पदचापों की दस्तक होने लगी थी और तमस को चीर कर तारें टिमटिमा रहे थे. अंबर से छन कर आती चांद की शीतल दूधिया चांदनी पूरे धरा पर अपनी ख़ूबसूरती बिखेर रही थी, लेकिन इन सबसे बेख़बर वसुधा अपनी गैलरी में बैठे न जाने किन अन्तहीन विचारों में खोई हुई थी कि उसके कानों पर अपनी बड़ी बहू श्रेया की आवाज़ भी सुनाई नहीं पड़ रही थी.
"मम्मीजी… मम्मीजी… आप यहां अकेले क्यों बैठी है. वहां सब आप को पूछ रहे हैं. चलिए सब के संग हॉल में चल के बैठिए." वसुधा के कंधे पर हाथ रखती हुई श्रेया बोली. तब कहीं जाकर वसुधा की तंद्रा भंग हुई और वह श्रेया से बोली, " तुम चलो मैं बस थोड़ी ही देर में आती हूं."
वसुधा के ऐसा कहने पर श्रेया वहां से चली गई और वसुधा फिर रजनी के अंधियारे में अविनाश के संग बिताए अपने जीवन के हसीन लम्हों को स्मरण करती हुई वहीं बैठी रही. कुछ देर यूं ही बैठने के पश्चात वह हॉल में आ गई, जहां उसका पूरा कुनबा, उसका अपना परिवार बैठा हुआ था और कल सुबह होते ही अपने-अपने गंतव्य की ओर निकलने की तैयारी में लगा था.
सारा जीवन वसुधा और अविनाश के लिए उनके बच्चे ही उनकी दुनिया रहे, लेकिन धीरे-धीरे बच्चे बड़े होते चले गए और फिर एक-एक करके सभी अपने-अपने सपनों की उड़ान भरते चले ग‌ए. तिनका-तिनका जोड़कर बनाए अपने घरौंदे में केवल वसुधा और अविनाश ही रह गए.


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हॉल में वसुधा को आया देख, वसुधा की मंझली बेटी रितू जो भोपाल में ब्याह कर ग‌ई थी वह बोली, "अरे मम्मी, आप कहां चली गई थी. आओ ना, हमारे साथ थोड़ी देर बैठो वैसे भी कल हम सब अपने-अपने घर चले जाएंगे."
रितू अभी ऐसा कह ही रही थी कि वसुधा का छोटा बेटा अखिल उठ खड़ा हुआ और वसुधा को पकड़ कर सोफे पर बिठा दिया. वसुधा के बैठते ही उसके बड़े बेटे आदित्य का बेटा आर्यन उसकी गोद में आ कर बैठ गया. इतना भरापूरा परिवार होने के बावजूद अविनाश के बगैर वसुधा अकेलापन महसूस कर रही थी.
अभी मात्र चौदह दिन ही बीते थे अविनाश को इस दुनिया को अलविदा कहे और वसुधा ख़ुद को अकेला महसूस करने लगी थी. अविनाश केवल वसुधा के पति ही नहीं थे, वह उसके अच्छे दोस्त, मार्गदर्शक और सहलाकर भी थे. वसुधा अपने दिल की हर बात, जो वह किसी से नहीं कह पाती अविनाश के संग साझा करती थी. क‌ई बार तो ऐसा होता वसुधा के कुछ कहे बगैर ही अविनाश उसके हाव-भाव से जान जाते कि वह क्या सोच रही है या क्या कहना चाहती है.
पिछले दो सालों में जब से अविनाश सेवानिवृत्त हुए थे, दोनों के जीने का अंदाज़ ही बदल गया था. दोनों जब जी चाहता मूवी देखने बैठ जाते. कभी मॉल घूमने निकल पड़ते, तो कभी दोस्तों के घर चले जाते, तो कभी दोस्तों को ही घर बुला लेते. कभी खाना बाहर खा लेते, तो कभी ऑनलाइन ऑर्डर कर लेते या जब मन करता दोनों मिलकर खिचड़ी ही बना लेते, जो उन्हें छप्पन भोग के बराबर का आनंद देती. लेकिन नियति का खेल निराला है.‌ अविनाश के अकास्मिक निधन ने पल भर में ही वसुधा के जीवन की रूपरेखा ही बदल दी.
पूरे परिवार के बीच चुपचाप बैठी वसुधा से छोटी बहू रूचि बोली, "मम्मीजी, जब तक आपका मन करे आप श्रेया दीदी के घर पर रहिए, लेकिन जैसे ही थोड़ा चेंज चाहिए होगा, आप मेरे और अखिल के पास बैंगलुरू आ जाइएगा वैसे भी मुंबई शोर-शराबे और भागदौड़ से भरी ज़िंदगी शवाला शहर है. रतलाम जैसी शांति वहां कहां… क्यों श्रेया दीदी ठीक कह रही हूं ना." कहती हुई रूचि, श्रेया की ओर देखने लगी.
श्रेया मुस्कुराती हुई बोली, "हां क्यों नहीं मम्मीजी जब चाहे किसी के पास भी जा कर रह सकती हैं."
तभी रितू बोली, "हां मम्मी, भाभी बिल्कुल सही कह रही हैं. जब भी आपका मन करे आप मेरे और रितेश के पास भी आ सकती हैं."
सब बस अपनी-अपनी कहे जा रहे थे, लेकिन कोई वसुधा से उसकी क्या इच्छा है इस बारे में नहीं पूछ रहा था. किसी ने भी उसे यह जानने की चेष्टा नहीं की कि क्या वसुधा अपना घर छोड़कर जाना चाहती है? क्या वह अपना शहर छोड़कर जाना चाहती है? क्या वह अपने आस-पड़ोस के लोग जिन के संग उसने इतने वर्ष बिताए हैं उन्हें छोड़ना चाहती है? या फिर वह किसके साथ रहना चाहती है.
वसुधा के दोनों बेटों और बहुओं के संग बेटी-दामाद ने मिलकर यह तय कर लिया कि पिता के जाने के बाद अब मम्मी अकेले इस घर और शहर में नहीं रह पाएगी, इसलिए वह बड़े बेटे व बहू के साथ मुंबई जाएगी, क्योंकि छोटी बहू नौकरीवाली है. वह नौकरी और सास में तालमेल नहीं बैठा पाएगी. वसुधा भी वहां दिनभर अकेले न‌ए शहर में बोर हो जाएंगी और दो बेटों के होते हुए वसुधा बेटी के घर पर क्यों रहेगी? सारा कुछ बच्चों ने ख़ुद ही तय कर लिया. वसुधा से बिना पूछे, बिना चर्चा किए और वसुधा ने भी बगैर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किए बच्चों के निर्णय पर मौन स्वीकृति दे दी, क्योंकि उसके लिए तो बच्चों की ख़ुशी में ही उसकी ख़ुशी थी.
इन सब बातों के दौरान वसुधा का बड़ा बेटा आदित्य अपनी पत्नी श्रेया से बोला, "अरे श्रेया, तुम बातें ही करती रहोगी या मम्मीजी को उनका सामान पैक करने में मदद भी करोगी ?" आदित्य के ऐसा कहने पर श्रेया बोली, "चलिए मम्मीजी, मैं पैकिंग में आपकी मदद करती हूं."
वसुधा अपनी बहू श्रेया के संग अपना सामान पैक करने लगी. दूसरे दिन सुबह होते ही सभी अपनी मंज़िल की ओर निकल पड़े. घर पर ताला लगाने के उपरांत वसुधा की आंखें नम हो गईं और वह कार में बैठने के बाद भी अपने घर को देखती रही.
मुंबई पहुंचने तक सब काफ़ी थक चुके थे, इसलिए श्रेया ने ऑनलाइन खाना ऑर्डर कर दिया, साथ ही उसने इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि वसुधा को खाने में क्या पसंद है. उसके बाद वह वसुधा के लिए रूम व्यवस्थित करने में लग ग‌ई. वसुधा भी श्रेया के काम में हाथ बंटाना चाहती थी, लेकिन श्रेया ने वसुधा को यह कहकर किसी काम को हाथ लगाने नहीं दिया कि सफ़र करके आप थक गई होंगी और फिर जब तक आपकी यह बेटी है आपको कोई काम करने की ज़रूरत नहीं.
एक सप्ताह बीत चुका था, लेकिन वसुधा के चहेरे पर मुस्कान अब तक नहीं लौटी थी. उसकी सहेलियों का फोन भी आता, तो वह ठीक से बात नहीं करती और ना ही वाट्सअप मैसेज का जवाब देती. यहां मुंबई में श्रेया और आदित्य का अपना एक अलग फ्रेंड सर्कल था. चौबीस घंटे दौड़ती-भागती इस मायानगरी में आदित्य के पास सांस लेने तक की भी फ़ुर्सत नहीं थी, लेकिन श्रेया बड़ी ही कुशलतापूर्वक पूरा घर और बाहर सब संभाल रही थी.
श्रेया पूरा दिन व्यस्त होने के बावजूद वसुधा के हर छोटी से छोटी ज़रूरतों का ध्यान रखती थी. वक़्त पर उसे बीपी, शुगर की दवाइयां देती. वह हर संभव यह प्रयास करती की वसुधा को किसी भी चीज़ की कोई कमी महसूस ना हो. यह देख वसुधा को हर बार ऐसा लगता जैसे इतना तो उसकी अपनी बेटी रितू भी होती, तो शायद नहीं करती, जितना श्रेया बहू होकर कर रही है. यही सब सोचकर वसुधा भी स्वयं को प्रसन्न दिखाने का अभिनय करती, परन्तु श्रेया के आगे वसुधा के सारे प्रयास विफल ही होते. वसुधा के मुस्कान के पीछे का दर्द श्रेया बिना वसुधा के कुछ कहे ही समझ जाती. अविनाश के जाने के बाद से वसुधा का जीवन जैसे पूरी तरह से ठहर-सा गया था. एक दिन सुबह की चाय वसुधा को देते हुए श्रेया बोली, "मम्मीजी आपको यहां आए पंद्रह दिन बीत गए हैं. आप घर के बाहर निकली ही नहीं है. आप आर्यन के साथ यहीं सोसाइटी के पास जो पार्क है वहां क्यों नहीं जाती. आर्यन वहां खेल भी लेगा और आपका मन भी बहल जाएगा. वैसे उस पार्क में सुबह व शाम के वक़्त वहां और भी क‌ई सीनियर सिटीजन आते हैं, हो सकता है कोई आपका दोस्त बन जाए."
श्रेया की बात वसुधा को भा गई और वह उसी शाम आर्यन को लेकर पार्क चली गई. वहां पहुंचते ही आर्यन वसुधा का हाथ छुड़ाकर अपने हमउम्र बच्चों के संग खेलने चला गया और वसुधा वहीं पार्क के एक खाली बेंच पर जा बैठी.
यहां पार्क में काफ़ी चहल-पहल थी. कुछ बच्चे झूला झूल रहे थे, कुछ तितलियों के पीछे भाग रहे थे, तो कुछ बच्चे अपने उम्र के मुताबिक़ अलग-अलग समूह बनाए विभिन्न प्रकार के खेल खेल रहे थे. पार्क में केवल बच्चे ही नहीं थे, कुछ किशोर-किशोरियां और कुछ उम्रदराज़ लोग भी थे, जो इवनिंग वॉक व जॉगिंग कर रहे थे. इन सब के अलावा कुछ सीनियर सिटीजन यानी वसुधा के हमउम्र के लोग भी थे, जो लाफिंग थेरेपी में मग्न थे. तभी एक अजनबी शख़्स उसी बेंच के एक छोर में आ बैठा, जिस पर वसुधा बैठी थी और बड़े ही शिष्टाचार से बोला, "नमस्ते मैं अनिरुद्ध जोशी. लगता है आप इस शहर में न‌ई आई हैं." वसुधा थोड़ा हिचकिचाते हुए बोली, "नमस्ते! हां अभी पंद्रह दिन हुए है, मुझे इस शहर में आए. ये पास में ही प्लेटिनम हाइट में अपने बेटे-बहू के पास आई हूं. वो… वो है मेरा पोता आर्यन." वसुधा आर्यन को इंगित करती हुई बोली.
"ओह! तो आप आर्यन की दादी हैं. आर्यन और मेरी पोती कुहू वो, जो पिंक फ्रॉक में है. एक ही क्लास में पढ़ते हैं और मैं भी आपके ही सोसाइटी में रहता हूं. आपके जस्ट ऊपरवाला फ्लैट मेरे बेटे का है. मैं भी अपने बेटे-बहू के साथ ही रहता हूं. आपको काफ़ी देर से अकेले बैठे देख रहा था, इसलिए मिलने चला आया. आइए मैं आपको अपने ग्रुप के बाकी लोगों से मिलवाता हूं, वहां जो लाफिंग थरेपी चल रही है, वही हम यंग लोगों का ग्रुप है."
अनिरुद्धजी का आख़िरी वाक्य "हम यंग लोगों का ग्रुप…" यह सुन कर वसुधा को थोड़ी हंसी आ गई और वह मुस्कुरा दी. अभी दोनों के बीच बातें चल ही रही थी कि वहां आर्यन आ गया और वसुधा बोली, "जोशीजी, अभी चलती हूं कल मिल लूंगी सब से."
ऐसा कह वसुधा आर्यन को लेकर जाने लगी, तभी जोशीजी ने कहा, "अरे अपना नाम और फोन नंबर तो बताते जाइए."
वसुधा मुस्कुराती हुई अपना नाम और फोन नंबर जोशीजी को बता कर वहां से चली गई. अभी वह सोसाइटी के कंपाउंड गेट पर पहुंची ही थी कि वाट्सअप का मैसेज टोन बजा. वसुधा ने वाट्सअप चेक किया, तो उसने देखा उसे भी 'यंग ग्रुप' में एड कर लिया गया है. वह दोबारा मुस्कुराई.


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आज जब वसुधा घर पहुंची, तो उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, जिसे देख श्रेया को भी संतुष्टि हुई. दूसरे दिन फिर वसुधा अपने पोते आर्यन को लेकर पार्क पहुंची. जहां यंग ग्रुप में सबने मिलकर वसुधा का गर्मजोशी से स्वागत किया. वह ग्रुप के सभी लोगों से मिलने लगी और आर्यन अपने दोस्तों के संग खेलने लगा. वसुधा को सब से मिल कर ऐसा लगा जैसे केवल उसने ही अपने साथी को नहीं खोया है या केवल वही अकेले अपना घर छोड़कर अपने बच्चों के पास रहने नहीं आई है. यहां उसके जैसे और भी हैं और सभी किसी ना किसी परेशानी या दुख से घिरे हुए हैं, लेकिन फिर भी सब ज़िंदगी को खुल शकर जी रहे हैं. सब से मिलकर, बातें कर वसुधा को यूं लगा जैसे उसे उसके खोए हुए दोस्त मिल ग‌ए हों.
वसुधा के चेहरे की मुस्कान अब लौट आई थी. आर्यन से ज़्यादा अब वसुधा को पार्क पहुंचने की जल्दी होती. हर शाम वह निर्धारित समय पर तैयार हो कर पार्क चली जाती. जिस दिन किसी कारण वश आर्यन पार्क नहीं जाता, तो वसुधा अकेले ही पार्क पहुंच जाती. कभी-कभी तो अपने ग्रुप के साथ जुहू बीच और चौपाटी भी घूमने निकल पड़ती. बाकी समय अपनी पुरानी सहेलियों के संग और अपने यंग ग्रुप पर वाट्सअप चैट करती. हर रोज़ अपना वाट्सअप स्टेटस अपडेट करती. कभी अपने पोते आर्यन का फोटो डालती, तो कभी उसके शरारत करते हुए वीडियो, कभी श्रेया के हाथों से बने लजीज़ डिसेज़ के फोटो, तो कभी अपने गैलरी में खिले मुस्कुराते फूलों से अपना वाट्सअप स्टेटस अपडेट करती.
वसुधा को इस प्रकार ख़ुश देखकर श्रेया भी बहुत ख़ुश थी और वसुधा भी अब यह बात समझ चुकी थी कि किसी अपने का हमारे जीवन से चले जाना जीवन में अल्पविराम तो ला सकता, परन्तु पूर्ण विराम नहीं, क्योंकि जीवन चलने का नाम है.

प्रेमलता यदु

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