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कहानी- अंतिम विदाई (Short Story- Antim Vidai)

"तुम किसी और को चाहते रहो और मैं इसे अपना भाग्य, असल में दुर्भाग्य मानकर चुपचाप स्वीकार कर लूं, यह न होगा मुझसे. वह बीते कल की स्त्री थी, अनपढ़ और लाचार, आर्थिक, सामाजिक रूप से पति पर आश्रित. मैं वह बनने को तैयार नहीं हूं. पढ़ी-लिखी हूं, ज़रूरत पड़ने पर आगे बढ़कर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूं. अपना आत्मसम्मान भूल तुम्हारे दर पर नहीं पड़ी रहूंगी. अभी तक तो मम्मी-पापा का दुलार रोके हुए है. परंतु मम्मी अब दादी बनने की आस लगाए बैठी हैं. पर जब अपनी ही स्थिति डांवाडोल हो, तो एक और जान की कैसे सोचूं?”

कॉलेज शुरू हुए एक सप्ताह बीत चुका था. यूं तो बाहर लगे बोर्ड के अनुसार, यह ‘स्कूल ऑफ मैनेजमेंट’ कहलाता था, पर था शहर का मशहूर, नवनिर्मित कॉलेज ही. शहर के भीतर बसा हुआ एक अलग शहर. लंबा-चौड़ा परिसर, बगीचे, लड़के-लड़कियों के अलग-अलग हॉस्टल और समारोह इत्यादि के लिए एक लंबा-चौड़ा मैदान. यहीं पर आज सुबह से चहल-पहल है. द्वितीय वर्ष के छात्र आज फ्रेशर्स को पार्टी दे रहे हैं. मैदान के बीचोंबीच ‘कैंप फायर’ का इंतज़ाम किया जा रहा था. आज नए छात्र अपना परिचय देंगे और कुछ अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन भी करेंगे. असली मुद्दा तो एक-दूसरे को जानने-समझने का था.
कैंप फायर के दौरान मेरी नज़र एक लड़की पर कई बार अटकी. इस नए शहर में यह चेहरा कुछ परिचित-सा क्यों लग रहा है? परिचय देते समय उसने अपना नाम ‘मंदिरा’ बताया- ‘मंदिरा बैनर्जी’, लेकिन उससे भी गुत्थी नहीं सुलझी. इस नाम की किसी लड़की को मैं नहीं जानता था और न ही कोई बैनर्जी परिचितों में थे. उसने बहुत प्यारा एक मधुर गीत सुनाया. कैसा तो सम्मोहन था उस आवाज़ में. बंगालियों के गले में विधाता जन्म से ही मधुर कंठ फिट कर देता है. मैं बात करने के लिए आगे बढ़ा. अच्छा अवसर था उसके गले की तारीफ़ करने का, परंतु उसे अनेक लोगों से घिरा देख यूं ही लौट आया.
वह भी मुझे पहचानने का प्रयत्न कर रही थी शायद. एक दो बार मैंने उसे अपनी ओर ध्यान से देखते पाया- कौतूहल भरी नज़र से. तभी उसने राह में पड़ा बैग उठाकर एक किनारे किया और मेरे ज़ेहन में रेलवे स्टेशन पर बैग उठाए खड़ी लड़की का चित्र कौंध गया.
उसी सप्ताह की बात है. मैं मेस में बैठा था. अगली क्लास के प्रोफेसर के छुट्टी पर होने के कारण इत्मिनान से बैठा था, जब मंदिरा भीतर आई और हॉल खाली होने के बावजूद मेरे पास आकर बैठने की इजाज़त मांगी. बात शुरू करते हुए उसने कहा, “आप कहां से आए हैं? चेहरा कुछ परिचित-सा लग रहा है.” जब मैंने उसे बताया कि हम एक ही ट्रेन से आए हैं और शायद एक ही कोच से और हमारी मुलाक़ात स्टेशन पर हुई थी, तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई, मानो किसी समस्या का हल पाकर चैन आ गया हो.
यूं हुई हमारी दोस्ती की शुरुआत. मैं इंजीनियरिंग करके एमबीए करने आया था और वह अर्थशास्त्र में ऑनर्स करके आई थी. उसे मौजमस्ती पसंद थी, जीवन से भरपूर थी वह और मैं चुप्पा होने के बावजूद उसके इस जीवन दर्शन से प्रभावित था. इसी को विपरीत का आकर्षण कहते हैं शायद. हमारी मुलाक़ातें लंबी होने लगी थीं और हमारी बातें घनिष्ठ. कोर्स संबंधी समस्याओं की बात करते-करते हम निजी बातें भी करने लगे थे.
उससे हर रोज़ मिलना मेरी आदत में शामिल हो गया. वह एक दिन भी न दिखे, तो दिन अधूरा लगता. मैं उसे चाहने लगा था, टूटकर चाहने लगा था, पर अपने मन की बात व्यक्त कैसे करता? मैं एक जैन परिवार से, हमारे घर तो प्याज़-लहसुन भी नहीं आता था, केक भी आता था, तो बिना अंडेवाला. हमारा संयुक्त परिवार था. दादा-दादी तो साथ ही रहते थे, ऊपर-नीचे, ताऊ-चाचा का भी घर था. घर भी यह देखकर ख़रीदा गया था कि हमारे पड़ोसी के घर मांसाहारी भोजन तो नहीं पकता.
और मंदिरा को तो बिना मछली के खाना ही न भाता था. मुझमें इतना साहस नहीं था अपनों से लड़ने का. अपनी इच्छाओं का दमन करना ही एक मात्र राह बची थी.
और एक दिन कोर्स भी समाप्त हो गया. इस बीच कैंपस प्लेसमेंट में हम में से अधिकांश की नौकरी लग चुकी थी. घर जाने के दिन आ गए. मंदिरा जाने लगी, तो मैं उससे मिलने उसके कमरे में गया. मेरा हाथ पकड़कर बोली, “तुम बहुत अच्छे हो कपिल. ऐसे ही बने रहना.” मुझे एक दिन बाद जाना था. मैं अपने कमरे में आकर अपना सामान समेटने लगा. अटैची में सब कुछ डाल लेने के बाद भी ऐसा लग रहा था, मानो बहुत कुछ पीछे छूटा जा रहा है.
समारोहवाला वह स्थान, जहां उसे पहली बार नोटिस किया था, लाइब्रेरी की वह मेज़, जहां बैठकर वह पढ़ा करती थी, क्योंकि पासवाली खिड़की से अच्छी रोशनी आती थी. मेस की वह कोनेवाली सीट जहां हमने अनेक बार एक साथ बैठ भोजन किया था. वह सब मेरी नज़रों से गुम हो जानेवाले थे. इन सब को बांधकर कैसे संग ले जाऊं?
कमाल है! घर आकर जब सामान निकाला तो पता चला, ढेर सारी यादें स्वयं ही संग चली आई हैं.
जितनी पढ़ाई करनी थी, कर ली थी. अब तो दुनिया की जंग में अपनी योग्यता आज़मानी थी. अच्छा होता यदि मंदिरा का साथ मिला होता, पर वह न हुआ. मैं स्वयं को अकेला और उदास महसूस करने लगा, जब मंदिरा का एक मैसेज आया कि उसका विवाह तय हो गया है. प्रेम विवाह तो नहीं कह सकते, पर उनके परिचितों में कोई था, जिसके लिए उसने ‘हां’ कर दी थी. विवाह दो माह बाद होना था और मंदिरा ने मुझे भी आने के लिए लिखा था, पर इतना मज़बूत नहीं था मैं कि उसका विवाह किसी और के संग होता देख सकूं. अच्छा है उसने संदेशा ही भेजा था. टेलीफोन पर उसकी आवाज़ सुन न जाने मैं क्या प्रतिक्रिया कर बैठता.
मुझे अपनी नई नौकरी के लिए नागपुर पहुंचना था. फिर से नई जगह बसना, नए लोग, काम का नया माहौल, मंदिरा साथ होती तो बात और थी. अकेला होते ही उसकी यादें मुझे आ घेरतीं.
नौकरी लग जाने पर मां विवाह के लिए दबाव डालने लगीं. उनके हिसाब से इस भीड़भरे शहर में उनका बेटा अकेला था, इसलिए शीघ्र ही उसका विवाह कर देना लाज़िमी था. और उनकी नज़र में कब से एक लड़की भी थी- चेतना. उन्होंने मुझ पर कोई दबाव नहीं डाला था, बस इच्छा ही जताई थी. मां के दूर के रिश्ते में ही थे चेतना के पिता और एक शहर में रहने के कारण
आना-जाना था. छुटपन में मैं और चेतना मिलकर ख़ूब धमाचौकड़ी मचाया करते, हालांकि वह मुझसे तीन वर्ष छोटी थी. मेरी दोनों दीदियां मुझसे काफ़ी बड़ी थीं और घर में मेरा कोई संगी नहीं था, शायद इसीलिए चेतना से मेरी बहुत पटती थी. लड़ाई भी ख़ूब होती. थोड़ा बड़े हुए, तो लड़ाई तो क्या वह पहले की तरह मुझसे खुलकर बात भी न करती. झट से सब कुछ मान जाती. उसकी पीठ पीछे बहनें मुझे ‘तुम्हारी चमची’ कहकर छेड़तीं. युवा होते-होते मैं उसकी अनुराग से भरी आंखों की भाषा पढ़ने लगा था, परंतु सच पूछो तो मुझे वह सब अजीब लगता. मुझे उसके लिए ऐसा कुछ भी महसूस न होता था. सीधी-सी, भली-सी लड़की थी वह.
पर मैं ‘थी’ में बात क्यों कर रहा हूं? अब तो वह मेरी पत्नी है.

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अब तक तो मैं मंदिरा के सम्मोहन में बंधा था, पर अब वह कहानी ख़त्म हो चुकी थी. मां का फिर से टेलीफोन आया, कहा कि चेतना के माता-पिता उसके विवाह की सोच रहे हैं. हम से भी पूछा है. निर्णय तुम्हारे हाथ में है. मैं बीते कल को पकड़े कब तक बैठा रह सकता था. निर्णय लेने का सचमुच समय आ गया था. एक ज़रूरी काम निबटा देने की भांति मैंने हामी भर दी और यूं चेतना मेरी पत्नी बनकर आ गई. मन में ढेर सारा प्यार समेटे, एमए पास, घर में ही ख़ुश रहनेवाली, उसकी कोई ऊंची उड़ानें नहीं थीं. घर में वह इस तरह रच-बस गई थी, मानो वह सदा से यहीं रहती आई हो. उसके मन की बात पूरी हो गई थी और वह ख़ुश थी. वह ख़ुश रहती, तो पूरे घर में ख़ुशी का माहौल रहता था.
विवाह के पश्‍चात् पूरा एक महीना मम्मी-पापा के साथ गुज़ारकर हम नागपुर आ गए. यह चेतना का ही सुझाव था कि हनीमून पर जाने की बजाय वह समय परिवार के साथ बिताया जाए. हमारे लिए तो नागपुर ही हनीमून हो जाएगा. घर में ख़ूब रौनक लगी रही उन दिनों. दोनों दीदियां भी प्राय: आ जातीं. बच्चों की छुट्टियां चल रही थीं और वह चेतना से ख़ूब हिलमिल गए थे. कुछ तो था कि बच्चे उसके पास खिंचे चले आते थे.
नागपुर आकर मैंने निश्‍चय किया कि मैं मंदिरा को पूरी तरह से दिल से निकाल दूंगा. मेरा बीता कल अब मुझसे कोसों दूर था. ज़िंदगी कोई टीवी सीरियल नहीं कि पुराने आशिक़ ज़िंदगी के किसी मोड़ पर हमारा इंतज़ार करते खड़े फिर मिल जाएं. आगे बढ़ते रहना ही जीवन की सच्चाई है. पर इन सब नेक इरादों के बावजूद और मन के अनेक निश्‍चयों के बावजूद मैं मंदिरा को ज़ेहन से निकाल नहीं पा रहा था. शायद मेरी ईमानदारी में ही कुछ कमी थी. शायद उसे याद करना मुझे अच्छा लगता था. रात को बिस्तर पर लेटा जब मैं इंतज़ार कर रहा होता, तो वह चेहरा चेतना का नहीं मंदिरा का होता और बेख़ुदी में कई बार उसी का नाम भी निकल गया. पता नहीं कितनी बार चेतना ने मुझे उसको मंदिरा के नाम से संबोधित होते सुना होगा.
नागपुर आने से पहले वह मम्मी-पापा से इसरार करके आई थी कि वह हमारे पास नागपुर ही आकर रहें. बहुत कहने पर भी उन्हें आने में तीन-चार महीने तो लग ही गए. उनके आने से घर फिर भरा-भरा-सा लगने लगा. चेतना उनका पूरा ख़्याल रखती. मेरी मां मुझसे भी अधिक चेतना के साथ सहज होतीं, पर मां जब भी नन्हें शिशु की बात करतीं, तो चेतना ख़ामोश हो जाती. पता नहीं मम्मी का इस बात पर ध्यान गया कि नहीं, पर मुझे लगता कि शिशु के प्रसंग पर चेतना न स़िर्फ ख़ामोश वरन् उदास भी हो जाती. जबकि मैं जानता था कि चेतना को बच्चों से बहुत लगाव है. एक बात और भी नोटिस की मैंने, उसकी आवाज़ में जो पहले सहज चहक थी, जो खनक थी, वह मंद पड़ती जा रही थी.
हमारे विवाह को वर्ष होने को आया. मित्र पार्टी की मांग करने लगे और मैंने उनकी वह मांग चेतना तक पहुंचा दी. उसे मिलने-मिलाने का बहुत शौक था. मैंने जब भी अपने मित्रों को घर पर बुलाया, तो उसने बड़े जोश के साथ सब इंतज़ाम किया. बढ़िया भोजन बनाया और घर को भी सजाया-संवारा. मुझे लगा चलो इसी बहाने चेतना का मूड बदलेगा, उसमें पहलेवाला जोश फिर जागेगा.
परंतु मित्रों की पार्टीवाली फ़रमाइश सुनकर वह चुप ही रही. दो दिन बाद मैंने फिर पार्टी का ज़िक्र छेड़ा. उसने एक भरपूर नज़र मेरी तरफ़ देखा, पर बोली कुछ भी नहीं. न तो उसने कोई रुचि दिखाई, न ही क्या बनाना है, कितनों को बुलाना है इत्यादि प्रश्‍न किए. समय कम बचा था, सो मेरे भीतर खलबली मची थी. मैंने यह भी सोच लिया था कि यदि चेतना इतनी मेहनत नहीं करना चाहती, तो पार्टी किसी होटल में भी रखी जा सकती है.
मेरे भीतर गहन अपराधबोध था. मैं यह भी अच्छी तरह से जानता था कि मंदिरावाले रिश्ते में अब कुछ नहीं बचा है. ज़िंदगी बहुत आगे निकल आई है. निःसंदेह मैं अपराधी था- चेतना के प्रति अपराधी.
क्या यह मेरी कमज़ोरी थी कि मैं चाहकर भी अभी तक मंदिरा को भूल नहीं पाया था? क्या मेरे प्रयत्नों में कोई कमी रह गई थी? क्या मैंने पूरे मन से प्रयत्न नहीं किया था? ग़लती मेरी थी, तो सुधार भी तो मुझे ही करना था.

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दो दिन बाद मैंने फिर से बात छेड़ी, “वर्षगांठ की पार्टी के बारे में क्या सोचा है?” वह कुछ पल चुप रही, पर मेरी प्रश्‍नसूचक निगाहों को बहुत देर नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई, बोली, “अभी तो मैं यही तय नहीं कर पाई हूं कि अपने लिए क्या करना है…” वह आगे कुछ कहती इससे पूर्व ही मैंने पूछा, “क्या मतलब?” मैं सच ही उसकी बात का तात्पर्य नहीं समझ पाया था. उसने स्पष्ट स्वर में कहा, “मैंने तुम्हें छोड़कर जाने का निर्णय लिया है. सदैव के लिए.” और यदि मैं निरुत्तर बैठा था, तो इसलिए कि मैं उसका मंतव्य भीतर उतार नहीं पा रहा था. कल्पना नहीं कर पा रहा था कि वह ऐसा सोच भी सकती है. शायद हमारे समाज में पुरुषों के ज़ेहन में यह सोच गहरे से भर दी जाती है कि पति गृह के सिवा स्त्री का कोई और ठिकाना नहीं.
फिर वह रुक-रुककर कहने लगी, “इसमें संदेह नहीं कि तुमसे विवाह करना कभी मेरा सपना था, मेरी सबसे प्रबल इच्छा. पर ज़बर्दस्ती स्वयं को तुम पर थोपने को भी तैयार नहीं हूं मैं. तुम किसी और को चाहते रहो और मैं इसे अपना भाग्य, असल में दुर्भाग्य मानकर चुपचाप स्वीकार कर लूं, यह न होगा मुझसे. वह बीते कल की स्त्री थी, अनपढ़ और लाचार, आर्थिक, सामाजिक रूप से पति पर आश्रित. मैं वह बनने को तैयार नहीं हूं. पढ़ी-लिखी हूं, ज़रूरत पड़ने पर आगे बढ़कर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूं. अपना आत्मसम्मान भूल तुम्हारे दर पर नहीं पड़ी रहूंगी. अभी तक तो मम्मी-पापा का दुलार रोके हुए है. परंतु मम्मी अब दादी बनने की आस लगाए बैठी हैं. पर जब अपनी ही स्थिति डांवाडोल हो, तो एक और जान की कैसे सोचूं?”
सच ही तो कह रही थी चेतना. मैं अभी तक अपने अतीत में ही विचर रहा था, यह भूलकर कि मेरा एक वर्तमान भी है. मैंने भी तो अपना प्यार खोया था, फिर क्यों नहीं समझ पा रहा चेतना का दर्द? जो अपना मनचाहा पाकर भी खाली हाथ रह गई थी. जिस तरह पति पूर्ण समर्पण चाहता है, ठीक उसी तरह पत्नी भी तो चाहती होगी, यह बात कैसे नज़रअंदाज़ कर गया मैं? कैसा लगता होगा चेतना को मेरा मंदिरा का नाम जपना?
मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हुई थी. मैंने चेतना से अपनी ग़लती सुधारने का वादा किया और अपने कमरे, स्मृतियों एवं अपने समूचे जीवन से मंदिरा को विदा करने का दृढ़ निश्‍चय लिया.

Usha Wadhwa
 उषा वधवा

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