शिल्पा मन ही मन सोच रही थी- 'यहां कोई बारिश में पकौड़े बनाकर खा रहा है, तो कोई रेनकोट पहनकर मस्ती कर रहा है, कोई बारिश की बूंदों में नहा रहा है, तो कोई सुंदर-सुंदर रंगीन छतरियों को घुमाकर झूम रहा है... सब तरह-तरह से इस मौसम का आनंद ले रहे हैं. वहीं कई लोग शांति जैसे भी हैं, जो बस बारिश में दो वक़्त की रोटी की जुगाड़ और सिर पर छत की चिंता में बरसात निकाल देते हैं.'
"क्या सुहाना मौसम है, ऐसे में गर्मा-गर्म चाय और पकौड़े मिल जाएं तो मज़ा आ जाए।" शिखर ने मैगज़ीन में डूबी शिल्पा से कहा.
कुछ पल ठहरकर शिल्पा ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा, "हां! हां, पकौड़े ही क्यों, मालपुए, गुलगुले, हलवा, मगोढ़ी भी बन जाएं तो?"
"एक तो ये 'शांति' अब तक नहीं आई, सुबह भी नहीं आई थी और शाम होने को है, अभी भी कोई अता-पता नहीं उसका."
"सिंक पर बर्तन भरे पड़े हैं, मन तो मेरा भी है कुछ चटपटा बनाकर खाने का, पर यह शांति मौसम के मज़े लेने दे तब न."
शिखर, "और बर्तन निकाल लो, बर्तनों की कोई कमी थोड़ी है."
फिर क्या, शिल्पा किचन में जाकर पकौड़े की तैयारी करती हुई, शांति पर अपना ग़ुस्सा निकालती हुई बड़बड़ाने लगी.
तभी दरवाज़े पर घंटी बजी और शांति अपनी टूटी छतरी दरवाज़े पर टिकाती हुई, अपनी गीली साड़ी का पानी झटकती अंदर आई.
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"माफ़ करना दीदी! आज सुबह न आ पाई."
"हां! ठीक है, तुम्हारा तो हमेशा का यही नाटक है. ज़रा-सी बारिश हुई नहीं कि तुम गोल." शिल्पा ने मुंह फुलाते हुए कहा.
शांति सफ़ाई देती हुई बोली, "नहीं दीदी, मैं बहाना नहीं बना रही. रात से तेज़ बारिश हो रही है. घर में जगह-जगह खपरैलों से पानी टपक रहा है. एक कमरे में पुरानी तिरिपाली लगी है, पर वह कई जगहों से फट गई है. ऐसे में क्या करूं? दीदी! आज तो बारिश ने ऐसा परेशान किया कि दिन-चढ़े चूल्हा जला पाई."
शांति की बातें सुनकर अपने ग़ुस्से को कुछ संभालते हुए शिल्पा ने शांति से पूछा, "बच्चों को खाना खिलाकर आई है?"
शांति, "जी दीदी, बस खिचड़ी बनाकर खिला आई.!तेज़ बारिश में चूल्हा, लकड़ी सब नमी पकड़ लेते हैं, इसलिए खाना मुश्किल से बना पाई. कोशिश करूंगी की अब से आपके काम में देर न हो."
शिल्पा उसकी गीली साड़ी के साथ ही उसकी आंखों का गीलापन भी महसूस कर पा रही थी.
शिल्पा मन ही मन सोच रही थी- 'यहां कोई बारिश में पकौड़े बनाकर खा रहा है, तो कोई रेनकोट पहनकर मस्ती कर रहा है, कोई बारिश की बूंदों में नहा रहा है, तो कोई सुंदर-सुंदर रंगीन छतरियों को घुमाकर झूम रहा है... सब तरह-तरह से इस मौसम का आनंद ले रहे हैं. वहीं कई लोग शांति जैसे भी हैं, जो बस बारिश में दो वक़्त की रोटी की जुगाड़ और सिर पर छत की चिंता में बरसात निकाल देते हैं.'
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मन की उथल-पुथल के बाद शिल्पा ने जाती हुई शांति के हाथों में पकौड़ों से भरा डिब्बा और कुछ पैसे देते हुए कहा, "ये लो शांति नया तिरपाल ख़रीद लेना." और अपने लिए एक रेनकोट भी, क्योंकि घरों में काम करने तो तुझे जाना ही पड़ेगा. सब कहां समझेगें तेरी मज़बूरी को. यहां तो सबकी अपनी-अपनी बारिशें हैं."
शिल्पा के दयाभाव से उसकी आंखें सजल हो गईं और अपने गीले पल्लू से आंखों की बारिश संभालती हुई शांति अन्य घरों में काम करने को चल दी
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