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कहानी- अस्मिता (Short Story- Asmita)

“दो दिन के अंदर तुझे प्यार भी हो गया? और ऐसे प्यार को निभाएगी कितने दिन? अभी तेरी उम्र ही क्या है? काबिलियत ही क्या है? किसी एक चीज़ को तो आज तक ज़िम्मेदारी से पूरा करके दिखाया नहीं. हुंह… शादी क्या खेल है?..” रिश्तेदारों के सामने अस्तित्व पर की गई ये चोट अस्मि को रुला गई. उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि शादी को तो वो हर हाल में निभाकर दिखाएगी.

अस्मि आंसुओं के सैलाब के बीच भूखी-प्यासी ठंड से ठिठुरती ज़मीन पर बैठी थी. निर्मेश कितनी निर्ममता से उसे बांस की छड़ी से मारकर इस कमरे से जा रहा था. घर में रिनोवेशन का काम चल रहा था. पहली मंज़िल के इस कमरे की खिड़की निकलवा दी गई थी. बाहर जनवरी की बारिश, शायद ओले भी पड़ रहे थे. अस्मि दौड़कर दरवाज़े तक गई. ये दरवाज़ा तो फूलकर जाम हो चुका था. निर्मेश उसे बस खींचकर चला गया और अब वो अंदर से खुल नहीं सकता था.
ओह! पल भर में सारी योजना उसके समझ में आ गई. पूरा शहर शीत लहर की चपेट में था. ठंड को मौत का हथियार बनाया था उसने? तो क्या निर्मेश इस हद तक गिर सकता है? ओह! मैंने पहले क्यों नहीं समझा? क्यों अपने स्तर पर समस्या को हल करने की कोशिश करती रही? जीवन के दिए आंसुओं का खारा पानी मन के मैले काग़ज़ को साफ़ कर चुका था. रहे सहे गिले भी मौत के भय से जाने कहां अदृश्य हो गए. अब अस्मि अतीत के झरोखों में रिश्तों की ममता और फ़िक्र की इबारत को साफ़ पढ़ सकती थी. समझ सकती थी कि उसने क्या-क्या और कहां ग़लतियां की हैं.
अच्छी परवरिश, शिक्षा और परिस्थितियां, सब कुछ तो था उसके पास, पर उसकी आत्मा पर तो जैसे किसी बागी योद्धा का भूत सवार रहता था. मां-पापा की नौकरियां उन्हें बहुत व्यस्त रखती थीं. ऐसे में बच्चे को समय न दे सकने के कारण आत्मग्लानि के शिकार अभिभावकों का अतिरिक्त लाड़ ही शायद आरंभ में उसके उद्दंड होने का कारण बना हो. पर जैसे-जैसे ये उद्दंडता समाज की प्रताड़नाओं का कारण बनती गई, अस्मि की ख़ुद को समझदार साबित करने की कोशिशें अधिक ख़तरनाक होती गईं.
आए दिन की शरारतों से तंग मम्मी-पापा स़िर्फ डांटते हों, ऐसा नहीं था. पापा अक्सर तरह-तरह के खिलौने लाते, उसके साथ खेलते और और उसे अपनी ऊर्जा उन खिलौनों में लगाने को प्रेरित करते. मम्मी उसकी मनपसंद डिश बनाकर गोद में लिटाकर समझातीं कि ये दुनिया फूलों की सेज नहीं है. जो आत्मनिर्भरता और आत्मविश्‍वास दुनिया का सामना करने के लिए ज़रूरी है, वो केवल एक लक्ष्य निर्धारित करके उस पर संजीदगी से मेहनत करने से आएगा. अस्मि पर इनका प्रभाव भी पड़ता और वो संजीदा होने की कोशिशें भी करती, पर जब इसका कोई प्रभाव परीक्षाफल में न दिखता, तो महत्व की प्यास और असफलता की खीझ में उसका मन किसी दूसरी ओर भटक जाता.


अध्यापिकाओं की प्रताड़नाएं उसकी खीझ और ख़ुद को साबित करने की ज़िद और बढ़ा देतीं. मगर बेचारी ने इस ज़िद में जब भी जो भी किया न जाने क्यों ज़माने की नज़र में उद्दंडता होती थी. समय के साथ ये ज़ख़्म नासूर बनता गया.
स्कूल के अंकों के आधार पर किसी अच्छे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल रहा था. ऐसे में स्पोर्ट्स कॉलेज ज्वॉइन करने का सुझाव रखा गया, तो ये बात अस्मि को भा गई. एन.सी.सी. में अच्छा रुझान और अंक होने के कारण चुनाव भी आसानी से हो गया. मगर खेल जब पढ़ाई बन गए, तो मन उनसे भी ऊबने लगा, क्योंकि बताई गई लीक पर चलना अस्मि को कतई पसंद नहीं था. जब कैम्पस इंटरव्यू में कहीं चुनाव नहीं हुआ और अस्मि घर बैठ गई, तो मम्मी का व्यवहार तल्ख़ होने लगा.
एक दिन बिना किसी को बताए वो पहुंच गई एक नौकरी के इश्तिहार में बताई जगह पर, लेकिन जब वहां का माहौल देखा तो होश उड़ गए. वो तो पापा उसके इरादे भांपकर उसके पीछे वहां पहुंच गए थे, वरना…
घर लौटी तो आत्मग्लानि में भरकर धीरे से बोली थी, “अब तो मैं बड़ी हो गई हूं. मैंने सोचा कि…” पर मम्मी ने झल्लाकर बात काट दी थी, “क्या सोचा? यही कि ये दुनिया पागल है, जो इतने कम अंक लाने वालों को नौकरी बांट रही है. और तूने सोचा ही क्यों? भगवान के लिए अब बस भी कर. गर्व महसूस कराने वाली कोई बात तो कभी की नहीं. कम से कम शर्मिंदा करने की कोशिशें तो छोड़ दे.”
यौवन की दहलीज़ पर पहुंची ही थी कि सुकेश चाचा के लड़के की शादी में निर्मेश से मुलाक़ात हुई. वो पहली ही नज़र में उसका जो दीवाना हुआ कि उसकी प्रशंसाओं ने अस्मि की बरसों की महत्व की भूख मिटा दी. उसने अस्मि के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो अस्मि के कदम जैसे सातवें आसमान पर पहुंच गए.


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पर मम्मी को बताया, तो वे क्रोधित हो गईं. “दो दिन के अंदर तुझे प्यार भी हो गया? और ऐसे प्यार को निभाएगी कितने दिन? अभी तेरी उम्र ही क्या है? काबिलियत ही क्या है? किसी एक चीज़ को तो आज तक ज़िम्मेदारी से पूरा करके दिखाया नहीं. हुंह… शादी क्या खेल है?..” रिश्तेदारों के सामने अस्तित्व पर की गई ये चोट अस्मि को रुला गई. उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि शादी को तो वो हर हाल में निभाकर दिखाएगी.
रिश्तेदारों के समझाने पर मम्मी-पापा रिश्ते की बात करने गए, तब तो वे लोग बड़ी सभ्यता से मिले थे, पर बड़े प्यार से एक-एक कर ख़र्चा बढ़ाते गए थे.
पहले तो हर रस्म के लिए गहने, कपड़ों का चुनाव, पार्लर बुक करने की आपाधापी, संगीत में कौन सा डांस करना है… जैसे महत्वपूर्ण प्रश्‍नों के आगे अस्मि ने इन बातों की ओर ध्यान ही नहीं दिया. लाखों कैश भी उन्होंने निर्मेश का नया व्यवसाय जमाने के बहाने ले लिया, तो अस्मि को बातें चुभीं. वो निर्मेश से कहती, तो वो बड़े प्यार से उसे समझा देता कि वो बिलकुल चिंता न करे. अभी वो बड़ों के बीच में बोल नहीं सकता है, पर शादी के बाद… और अस्मि फिर सुंदर सपनों में खो जाती.
संगीत में मस्ती का माहौल था, तभी कोई बिदाई गीत चलने लगा और मम्मी की पलकें भीग गईं और अस्मि की महत्व की भूख तृप्त हुई, “मेरी बिदाई में तुम बहुत रोओगी न?” उसने निगाहों में प्यास भरकर पूछा.
“न बाबा न, मुसीबत के टलने पर रोना कैसा? मैं तो तुझे बिदा करके निश्‍चिंत होकर सोऊंगी.” मम्मी ने हंसी में कहा था, पर उसके दिल में चुभ गया और पलकें भीग गई थीं. पापा ने तुरंत मम्मी को टोका था. मम्मी को भी अपनी ग़लती महसूस हुई थी और दोनों ने उसे गले से लगा लिया था.
शादी के बाद उसके रंगीन ख़्वाबों का महल धराशाई होने में समय नहीं लगा था. जैसे-जैसे निर्मेश के मदभरे साथ की खुमारी उतरती गई, वैसे-वैसे उसकी सोच का कालापन साफ़ नज़र आने लगा था. ससुराल वाले हर त्योहार पर किसी ऐसे बहाने से कोई मांग रख देते कि मम्मी-पापा मना न कर पाते. इतने पैसों का बंदोबस्त कैसे हो रहा है, सोचकर वो परेशान रहने लगी. ससुराल वाले दिखावे और विलासिता के ख़र्चे इतने अधिक थे कि पैसे किधर से आए और किधर निकल गए, पता ही नहीं चलता. सास-ससुर के व्यवहार में तो शुरू से ही तिरस्कार था. निर्मेश भी बदलने लगा और एक दिन उसके काले इरादे खुलकर सामने आ गए. उसने साफ़ कह दिया कि उसे महंगी कार चाहिए और उसका इंतज़ाम अस्मि के घरवालों को करना पड़ेगा. पहली बार निर्मेश ने ख़ुद इतने तल्ख़ स्वर में कोई मांग रखी, वो भी इतनी बड़ी, तो उसका आत्मसम्मान जाग उठा.
वो संभलकर दृढ़ स्वर में बोली, “अब मैं मम्मी-पापा से तुम्हें कुछ भी मांगने नहीं दूंगी.” मगर जिस दिन उसने अपना ओजस्वी रूप दिखाया, उसी दिन एक निर्मम तमाचे के रूप में निर्मेश का आपराधिक रूप भी देख लिया. चोट शरीर से ज़्यादा मन पर लगी. नहीं, वो एक पढ़े-लिखे घर की बेटी है, वो न आत्मसम्मान पर लगी चोटें सहेगी, न शारीरिक प्रताड़ना. यही सोचकर उसने बैग पैक करना शुरू किया ही था कि अतीत की बातें मन की तहों से निकलकर शोर मचाने लगीं. “आत्मनिर्भरता बहुत ज़रूरी है. ससुराल में न निभी तो कौन तेरा बोझ उठाएगा? कब तक तेरी वजह से समाज के ताने सुनूंगी. मुझे गर्व महसूस कराने का एक अवसर तो दे. ये लड़की मुझे कभी चैन से नहीं जीने देगी… ऐसे प्यार को निभाओगी कितने दिन?.. दो दिन में वापस न आ खड़ी हो तो कहना… अब तो बड़ी हो जा, निभाना सीख…”
और अस्मि बड़ी हो गई. निभाना सीख गई. उसका अपना मन मम्मी की तरह नॉन स्टॉप उपदेश वाचक बन गया. आत्मनिर्भर होने की कोई भी काबिलियत तो है नहीं उसमें. कैसे जिएगी? जो रिश्तेदार, उसके मम्मी-पापा स़िर्फ इसलिए चिढ़ने लगे थे कि उन्हें घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता मिल गया था, वो मम्मी-पापा से क्या नहीं कहेंगे… और मां का वो ज़हर बुझा तीर… मुसीबत… उसने तय किया कि उसे अपनी लड़ाई ख़ुुद ही लड़नी है. मम्मी-पापा को वह अपनी वजह से और नहीं टूटने दे सकती. वो समाज को मम्मी को ताने देने का और अवसर नहीं देगी. वो अपनी समस्या ख़ुद हल करके उन्हें गर्व महसूस कराकर रहेगी.
फिर शुरू हुआ संघर्ष. पहले निर्मेश को प्यार से, फिर लड़कर जीतने का, लेकिन उसकी हर कोशिश के साथ निर्मेश की क्रूरताएं बढ़ती गईं. मारना-पीटना, खाना न देना, कमरे में बंद कर देना आम बातें हो गईं. लेकिन जब भी अस्मि मायके का रुख करने की सोचती, अतीत की बुरी यादें उसे जकड़ लेतीं… लेकिन आज वो सारी बुरी यादें आंसुओं में धुल गई थीं. स़िर्फ एक बात रह-रहकर याद आ रही थी. बिदाई के समय मम्मी-पापा ने उसे गले लगाकर ख़ूब रोने के बाद कहा था, “तू हमारी जान है, हमारी सोन चिरै…” और उनका गला भर्रा आया था.
सहसा अस्मि को लगा, मम्मी-पापा दोनों हाथ फैलाए उसे पुकार रहे हैं. मेरी सोन चिरैया…तू ख़तरों की खिलाड़ी है… तू ऐसे हिम्मत नहीं हार सकती… हमें छोड़कर नहीं जाना… थोड़ी सी हिम्मत… थोड़ी सी संजीदगी… थोड़ी सी एकाग्रता…” अस्मि के दिल में बैठे मम्मी-पापा ने हौसला दिया, तो दिमाग़ दौड़ने लगा.
यादों का पिटारा खुला. छोटी थी जब मां का उसके साथ पार्क में उस पर निगरानी करने आना उसे कभी न भाता. पेड़ पर चढ़ना अस्मि को बहुत अच्छा लगता था. एक दिन उस पेड़ की खोह में एक बड़ा-सा सांप देखा गया, तो मां ने वहां जाने से मना किया, पर अस्मि कहां मानने वाली थी. उसे तो दिखाना था कि वो अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद कर सकती है. उसे नहीं ज़रूरत किसी के सहारे की. मगर छिपते-छिपाते ऊपर पहुंची ही थी कि नीचे से सांप को चढ़ते देख सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल पा रही थी कि सुना मां नीचे से पुकार रही हैं, “कूद जा! जल्दी. नीचे मिट्टी है, ज़्यादा चोट नहीं लगेगी.”
“बहुत ऊंचा है मां…” वो सिसकते हुए बोली थी.
“तू जब शाखा पकड़कर लटकेगी, तो तेरी हाइट जोड़कर ऊंचाई कम हो जाएगी, कूद!”
और वो कूद गई थी.
अस्मि का दिमाग़ दौड़ना शुरू हुआ… पहली मंज़िल की ऊंचाई बारह फीट, कपड़े जुड़कर तीन फीट, उसकी ऊंचाई पांच, तो पांव से ज़मीन की दूरी होगी चार फीट. अस्मि को लगा मम्मी कह रही हैं, “कूद जा, जल्दी. चार फीट तो तू कूद सकती है. भले ही वो साड़ी या दुपट्टा नहीं पहने थी, पर कमरे में छोटे-छोटे डस्टर पड़े थे और उसे क्लाइंबिंग वाली नॉट बनानी आती थी.


नीचे नई खिड़की के लिए कांच रखे थे बबल शीट में रैप किए. अस्मि को याद था उसके फेवरेट प्रोग्राम बैकयार्ड साइंस में बताया गया था- बबल शीट एक बेहतरीन इंसुलेटर होती है. अस्मि का दिमाग़ तेजी से काम करने लगा. आनन-फ़ानन में बबल शीट ऐसे पहनी कि उसके हाथ पैर स्वतंत्र थे.
गेट पर ताला बंद था, पर अस्मि को अनुभव था हर तरह की बाधाएं पार करने का. लेकिन गेट पर चढ़ने के पहले प्रयास में गिर पड़ी. हाथ छिल गया. अस्मि को याद आई बाधा दौड़ की प्रतियोगिता और पापा का अपनी सीट से उठकर चिल्लाना, “तू कर सकती है. कम ऑन अस्मि. कितनी तालियां बजाई थीं पापा ने जब एन.सी.सी. के प्रदर्शन में बाधा दौड़ में ऊंची दीवार चढ़ी थी. हां, वो कर सकती है… और अस्मि गेट चढ़ गई. फिर फांदना क्या मुश्किल था.
दिमाग़ चल रहा था कि थोड़ी दूर के चौराहे पर जाकर किसी परिवार वाली गाड़ी से मदद मांगनी है. उसे सतर्कता के नियम याद थे.
“मोबाइल तो हम किसी अजनबी के हाथ में नहीं देंगे. आजकल ज़माना बहुत ख़राब है.” कार के अंदर बैठी सभ्य महिला ने सकुचाते हुए कहा, तो अस्मि का जवाब हाज़िर था. आपकी कार पोछ देती हूं, जितने ठीक समझिए, रुपए दे दीजिए.”
रुपए मिलने के बाद पी.सी.ओ. ढूंढ़ना मुश्किल था, पर बचपन की शरारतों और ज़िंदगी के क्रूर अनुभवों से मिले सबक ने उसे जो हिम्मत दी थी, उसने उसे पी.सी.ओ. तक पहुंचा ही दिया.
फोन पर मम्मी की आवाज़ सुनते ही सारी हिम्मत, सारी बहादुरी, सारी सतर्कता धराशायी हो गई. पहले तो मुंह से बोल नहीं फूटे, जब फूटे तो हिचकियां ऐसी बंधीं कि होश ही नहीं, क्या बोल पाई, क्या नहीं और समय ख़त्म.
हाथ में एक सिक्का और था.. और मन में इतनी घुमड़न कि बताने में सदियां लग जाएं, पर अस्मि ने ख़ुुद को समेटा. जब मन संयत हो गया, तो फिर से फोन किया. अबकी सबसे पहले अपनी लोकेशन बताई, फिर परिस्थिति. मम्मी इस साहस पर दंग रह गईं.
शाम तक मम्मी-पापा पहुंच गए. उन्हें देखकर पूरी रात, फिर पूरा दिन जगी अस्मि जैसे बेहोश सी हो गई.
एक महीना गुज़र गया था. शरीर स्वस्थ हो गया था, पर मन! अपने कमरे में अकेली बैठी शून्य को घूर रही थी कि मम्मी-पापा एक साथ आकर उसके पास बैठ गए. यूं तो अब मम्मी-पापा उसे ज़्यादा देर अकेला नहीं छोड़ते थे, पर इस समय वो ऐसे आकर बैठे थे जैसे कोई बात करना चाहते हों. अस्मि के मन में बचपन से सुने लाखों उपदेश कौंधने लगे. एक झंझावात सा चल रहा था मन में जब पापा का प्रश्‍न उसमें आकर धंसा, “अब आगे? क्या करने की सोची है बेटा?” अस्मि को लगा जैसे उसके अंदर हीनता और आत्मग्लानि का कोई ग्लेशियर पिघलने लगा है, “आप ठीक कहते थे पापा! मैं किसी काबिल नहीं हूं…”
नहीं पापा ने उसे पहले अपनी बांहों में नहीं समेटा. थोड़ा शांत करने के बाद उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में लेकर सीधे उसकी आंखों में झांका, “मैं ग़लत था. मेरी ओर देख और ध्यान से सुन. ग़लत हम भी थे. हां, ग़लत तू भी थी कि तूने आत्मनिर्भरता पाने वाली किसी चीज़ में संजीदगी से ध्यान नहीं लगाया, पर हम ग़लत इसलिए थे कि जाने-अनजाने हम तुझसे वो कह गए, जो कहना चाहते नहीं थे. हमने ये कभी नहीं कहना चाहा कि तू किसी काबिल नहीं है.” पापा की दृढ़ और स्थिर आवाज़ में ढेर सारी ममता घुली थी.
“और अगर अंकों के आधार पर तुझे ये लगने लगा कि तू किसी काबिल नहीं है, तो इसमें ग़लती हमारी भी थी. पूरे सिस्टम की थी. और तेरा नहीं, हमारा फैल्येर था कि तुझे अन्याय का विरोध करने का आत्मविश्‍वास नहीं दे सके.” मां ने पापा की बात पूरी की.


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“नाकाबिल तू नहीं, ये समाज है, जिसने तेरे मन में हीनता भरी. तूने तो वो काबिलियत दिखाई है, जिसके लिए तुझे बहादुरी का पुरस्कार मिलना चाहिए. हमने जो पढ़ाया वो भले तूने न पढ़ा हो, जो सिखाना चाहा, वो भले तूने न सीखा हो, पर तूने वो सब जाने-अनजाने अपनी शरारतों से जान-सीख लिया जो दुनिया का सामना करने के लिए ज़रूरी है. इतनी मुश्किल परिस्थिति से अपनी जान बचाना, फिर इतनी सूझ-बूझ से हमसे संपर्क करना, हमारे पहुंचने तक भूख-प्यास-नींद से जूझते हुए शरीर और मन को सुरक्षित और संयमित रखना, ये सब आना भी जीवन के लिए इतना ही ज़रूरी है जितनी कि आत्मनिर्भरता के लिए की जाने वाली पढ़ाई. मैं तो ये सोचकर ही सिहर जाती हूं कि कैसे तूने इतने दिन…” मां की पलकें भर आईं, तो अस्मि का ध्यान उधर गया. उनकी सूजी आंखों में विषाद की गवाहियां देख वो तड़प उठी. वो अपने ही दर्द में उलझी थी.
उसने अपने दर्द से क्षुब्ध मम्मी-पापा की ओर तो ध्यान ही नहीं दिया था. प्यार की तपिश पाकर उसका दर्द पलकों से झरती नदी बन गया. मां ने उसे बांहों में समेट लिया.
“आज रो ले जितना रोना है. फिर इस नई डरी-सहमी, निराश अस्मि को बिदा करना होगा. हमें अपनी वही चंचल, जुझारू और हां लड़ाकू अस्मि वापस चाहिए. हमें लंबी लड़ाई जो लड़नी है. हम अपनी सोन चैरैया को सताने वालों को दूसरी चिरैयाओं को सताने के लिए आज़ाद नहीं छोड़ सकते.” मां ने कहा तो पापा ने पूरा किया, “और साथ ही जो पहले नहीं किया वो अब करना है. आत्मविश्‍वास के लिए, आत्मसम्मान के लिए आत्मनिर्भर बनने की तैयारी भी शुरू करनी है. हम तुझे तेरा वजूद वापस दिलाकर ही रहेंगे, लेकिन इसके लिए पहले तुझे समझना होगा कि जैसे तू स़िर्फ एक पत्नी नहीं है, वैसे ही स़िर्फ एक बेटी भी नहीं है. तेरा अपना एक वजूद है.” अस्मि को आज मम्मी-पापा की बातें निरर्थक उपदेश नहीं लग रही थीं. अपने वजूद को पाने का सपना उसकी आंखों में विस्तार पाने लगा था.

भावना प्रकाश

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