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कहानी- एटीएम (Short Story- ATM)


    

किसी का दुख-आंसू वो देख नहीं सकती थी. जितना संभव हो उनका दुख दूर करने का प्रयास करती. इसी पढ़ने-पढ़ाने में हम अपने कॉलेज के अंतिम वर्ष में आ गए. इसी बीच मुझे ये पता चल चुका था कि उसके हृदय में मेरे प्रेम की कपोलें खिल रही हैं और उसका प्रेम एकतरफ़ा है.

               
हाथों को पीछे बांध कर शैलेश आईसीयू के बाहर अत्यंत बेचैनी से चक्कर काट रहे थे. परेशानी उनके माथे पर बार-बार करवटें बदल रही थीं.
कभी वे आईसीयू के भीतर झांकने का प्रयास करते, तो कभी निगाहें घड़ी की सुइयों पर टिक जाती. मैंने उन्हें इतना व्याकुल… इतना परेशान पहले कभी नहीं देखा था… मेरी निगाहें भी शैलेश के साथ-साथ घूम रही थीं. मैं उनसे भी ज़्यादा व्याकुल थी, क्योंकि मुझे समझ नहीं आ रहा था की आख़िर ये अज्ञातमहिला है कौन जिनके लिए वे इतना परेशान है. मेरे कई बार पूछने पर भी उन्होंने मुझे कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया. इस पर मुझे उन पर बहुत क्रोध भी आ रहा था, किंतु मैं मौन रही.
शैलेश और मैं हर महीने वृद्धाश्रम 'आसरा' जाते थे. आज भी गए थे. वहीं इन अज्ञात महिला से भेंट हुई थी. आसरा‌ में हम घर से उपेक्षित बुज़ुर्गों के साथ समय बिता कर…कुछ उनकी सुनकर कुछ अपनी कहकर, हम उनका दर्द कम करने का प्रयत्न करते हैं. साथ ही उनकी ज़रूरतों का सामान, जैसे- कपड़े, दवाइयां इत्यादि देकर कुछ उनकी मदद करने की भी कोशिश करते हैं. हम सामान बांट ही रहे थे कि अचानक शैलेश की नज़र आसरा में आए नए मेहमान पर पड़ी. जो चुपचाप खिड़की के पास बैठी बाहर पेड़ पर बने चिड़िया के घोंसले को अपलक निहार रही थीं, जैसे कुछ खोज रही हों. चेहरे से तो सभ्य घर की लग रही थी वे, किंतु उनकी निर्जर काया, मटमैले कपड़े, बेतरतीबी से बंधे बाल… कुछ अलग ही कहानी बयां कर रहे थे. पूछने पर पता चला की आसरा में उनका प्रवेश कुछ ही दिन पहले हुआ है, कौन है?.. कहां से आई हैं?, परिवार,‌ रिश्ते-नाते… किसी को कुछ पता नहीं था. सब एक रहस्य बना हुआ था. बस उनके ख़ुद के सामान के नाम पर मात्र एक पोटली थी, जिसमें कुछ मटमैले से कपड़े थे. वे तो मैनेजर बंसीलाल को सुबह आसरा की सीढ़ियों पर अचेत पड़ी मिलीं. शरीर बुखार से तप रहा था. संभवतः कोई ठिकाना ना होने पर रात को बारिश में भीग कर यहां सीढ़ियों में मूर्छित हो गई होंगी. उपचार करवाने पर बुखार तो ठीक हो गया,  किंतु उनके विषय में रहस्य यूं ही बना रहा. उनकी मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं थी. क़िस्मत की मारी समझ सभी बुज़ुर्गों ने उनका तहेदिल से स्वागत किया. हम उन अज्ञात महिला को कुछ सामान देने उनके नज़दीक गए. हमारे पुकारने पर जैसे ही उन्होंने हमारी तरफ़ देखा, उनको देखते ही शैलेश जड़ चेतन हो गए. उनके बोलने, सोचने-समझने की शक्ति कुछ समय के लिए शून्य हो गई. महिला का चेहरा ज्यों का त्यों बना रहा…
ना कोई हाव, ना ही कोई भाव. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मानसिक स्थिति के साथ वे अपनी स्मरणशक्ति भी खो चुकी हैं. मैंने उन्हें सामान देने के लिए हाथ बढ़ाया, पर वे जड़ मूर्ति बनी रहीं.
वे तो जड़ मूर्ति बनी रही, किंतु शैलेश के चेहरे के हाव-भाव बदल कर एक नई रहस्यमयी कहानी को जन्म दे रहे थे. शैलेश कुछ देर तो चुप रहे फिर अपने आप को सम्भाल कर वे मैनेजर बंसीलाल से मिलने उनके कमरे में चले गए. मैं भी उनके‌ पीछे-पीछे चली गई.


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“बंसीलालजी अगर आपको ऐतराज़ ना हो, तो मैं उन महिला का बड़े हॉस्पिटल में इलाज करवाना चाहता हूं."
“आप… आप उन्हें जानते हैं शैलेशजी?" आश्चर्य भरी निगाहों से देखते‌ हुए वे बोले.
बंसीलालजी से ज़्यादा आश्चर्य तो मुझे हो रहा था. कई प्रश्न मन-मस्तिष्क में गूंजने लगे.
मैंने प्रश्नभरी निगाहों से शैलेश को देखा.
“नहीं बंसीलालजी, वैसे मैं इन्हें जानता तो नहीं हूं, किंतु चेहरा कुछ परिचित भी लग रहा है… शायद हमारे गांव की हों… और जब ये महिला स्वस्थ हो जाएंगीं, तो परिचय अपने आप मिल जाएगा और ना भी परिचित हुई, तो किसी की भलाई ही हो जाएगी.”
“देखिए शैलेशजी, वैसे तो मैं भी इन्हें नहीं जानता, किंतु अब ये हमारे आसरा की सदस्य हैं. ऐसे में…”
“आप निश्चिंत रहे बंसीलालजी. उनके स्वस्थ होते ही पुन: आपके आसरे में छोड़ जाऊंगा."
“देखिए, आप हमारे पुराने परिचित हैं, इसलिए मैं आपको इजाज़त दे देता हूं. किंतु उनका ध्यान रखिएगा और हां कुछ औपचारिकता के तौर पर कृपया ये फॉर्म भर कर अपने हस्ताक्षर कर दीजिए.“
“जी ज़रूर.“ शैलेश ने फॉर्म भी भर दिया और हॉस्पिटल फोन कर के एंबुलेंस भी बुलवा ली.
अब तो मेरी कौतुहलता, बेचैनी और अधिक बढ़ गई. मुझे समझ नहीं आ रहा था की आख़िर हो क्या रहा था…क्यों शैलेश उस महिला को हॉस्पिटल ले जाना चाहते थे…आख़िर वो है कौन? 
मैं तो जैसे एक मूक दर्शक बन गई थी. मेरे लिए तो ये रहस्य और उलझता जा रहा था. शैलेश इन सभी में मुझे तो जैसे भूल गए थे. समय मेरे धेर्य और संयम की परीक्षा ले रहा था.
बंसीलालजी को आश्वासन देकर वे गाड़ी में बैठ गए. आगे-आगे एंबुलेंस चल रही थी और पीछे-पीछे हम. शैलेश की परेशानी साफ़-साफ़ नजर रहीं थीं.
“शैलेश.. आख़िर ये महिला कौन है? आप उन्हें जानते हैं.“ अंतत: मैंने अपनी जिज्ञासा को विराम देकर पूछ ही लिया.
“बताया तो था.. वहां बंसीलाल जी के ऑफिस में…बाक़ी तो उनके स्वस्थ होने पर पता चलेगा.“ बिना मेरी तरफ़ देखे, सूक्ष्म सा उत्तर देकर वे चुप हो गए.
मेरी निगाहें अभी भी उनके चेहरे पर टिकीं थी. मैं जानती थीं की वे झूठ बोल रहे है, उनके बेचैन हाव-भाव इस झूठ को स्पष्ट कर रहे थे.
इतना तो शैलेश को मैं अच्छी तरह पढ़ सकती थी… आख़िर वर्षों का साथ है हमारा… मैं भी वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए चुप रही.
“डॉक्टर साहब अब कैसी हैं वे..?” शैलेश की बेचैन आवाज़ से मैं विचार गंगा से बाहर आ गई.
“देखिए शैलेशजी, अभी हम कुछ नहीं कह सकते. शारीरिक और उनकी मानसिक स्थिति दोनों ही गम्भीर है. ऐसा‌ प्रतीत होता है मानो उनकी जिजीविषा समाप्त हो गयी है. वैसे अभी उनकी टेस्टिंग्स चल रही है. हम अपनी तरफ़ से पूरा प्रयास कर रहे हैं. अभी वे आई.सी.यू में ही रहेंगी. आप निश्चिंत हो कर घर जाइए.“ डॉक्टर साहब कह कर चले गए.
उनकी बात सुन कर वे वहीं बैठ गए ।
“चलिए शैलेश… घर चलते हैं. चिंता मत कीजिए…वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगी.“ अपनी कशमकश‌ पर‌ नियंत्रण रखते हुए मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देते हुए कहा.
वे थके कदमों से मेरे साथ चलने लगे. बाहर आकाश में बिजली ज़ोर से कड़क रही थी. बादलों ने पूरे आकाश को अपने आग़ोश में ले रखा था…ऐसा लग रहा था की ज़ोर से बारिश होगी.
शैलेश जैसे एक ही दिन में कुछ ज़्यादा ही उम्रदराज़ दिखने लगे. सूर्य की तरह चमकता चेहरा, गठीला बदन, शरीर की स्फूर्ति.. सब निस्तेज  निढ़ाल से हो गए थे. विवाह से अब तक उन्हें ऐसी चिंतित अवस्था में पहली बार देख रही थी.
हॉस्पिटल से घर तक का कुछ ही मिनटों का समय युगों केसमान लग रहा था. वे अपनी चिंता में खोए थे और मैं इन अज्ञात महिला के रहस्य में. मुझे शैलेश पर पूर्ण विश्वास था. उन्होंने हर कदम, मेरे हर दुख-सुख में एक सच्चे जीवनसाथी होने का साथ निभाया है. मुझे और हमारे एकलौते बेटे प्रणय को कभी भी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी.।विवाह से अब तक उन्होंने मुझे प्रेम के सागर में डुबोकर रखा…और उनका सम्पूर्ण जीवन तो मेरे समक्ष एक खुली किताब की तरह था, अत: उन पर शक करना तो गुनाह के समान हो जाता. पर ये जो हो रहा था… ये भी तो सत्य था. अजीब विडम्बना थी मेरी… उनसे ज़्यादा कुछ पूछ नहीं सकती थी और उनकी चुप्पी भी सहन नहीं हो रही थी.
“चाय ले लीजिए.“ मैंने सोफे पर आंखें मू्ंदें निढ़ाल पड़े शैलेश से कहा गई
“हूं…” कह कर वे मेरी तरफ़ देख कर मेरे भीतर उमड़ते रहस्य के बादलों को पढ़ने लगे.
“ वृंदा यहां बैठो, तुमसे कुछ बात करनी है… मै तुम्हारे भीतर के उमड़ते अनसुलझे प्रश्नों से अज्ञात नही हूं."
चाय का कप टेबल पर रखते हुए वे बोले.
उनके चेहरे पर बनते-बिगड़ते हाव-भाव रहस्य 
को और हवा दे रहे थे. मैं एक मूक श्रोता बनकर उनके सामने बैठ गई.
“वृंदा, समझ में नहीं आ रहा कहां से शुरू करूं…कैसे कहूं, अतीत की मिट्टी में जो रहस्य दफ़न हो गया था वो इतने वर्षों बाद यूं उजागर हो जाएगा और अचानक‌ उससे यूं आसरा में भेंट हो जाएगी. इसकी तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी.“ कहकर वे कुछ क्षण के लिए मौन हो गए, किंतु मेरे लिए ये क्षण जीवन-मृत्यु की बीच झूलती बारीक़ रेखा के समान हो रहे थे.
मैं मौन थी.
एक लंबी गहरी सांस लेते हुए उन्होंने पुन: बोलना शुरू किया.


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“ए. टी. एम. अनु तारा मिश्रा नाम है उसका.
स्नेह से सभी उसे एटीएम बुलाते थे…बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप थी वो. जैसे ए.टी.एम. मशीन किसी भी वक़्त,  कभी भी किसी के लिए भी लोगों की मदद करने को सशक्त खड़ी रहती है, वैसे ही अनु तारा भी खड़ी रहती थी. किसी की कभी भी मदद करने को हर क्षण तैयार रहती थी. उसके इसी स्वभाव के कारण उसका नाम अनु तारा मिश्रासे ए.टी.एम. हो गया. हम दोनों कॉलेज में एक साथ पढ़ते थे…बहुत गहरी दोस्ती थी हमारे बीच. कॉलेज में एक साथ उठते-बैठते, पढ़ते थे. मैं जब भी किसी भी समस्या या उलझन में होता. वो एक सच्चे दोस्त की तरह मेरी हर समस्या का चुटकी में हल निकाल देती थी…बिल्कुल ए.टी.एम. मशीन की तरह. वो देखने में जितनी ख़ूबसूरत थी, उतना ही कोमल-दयालुउसका हृदय था. किसी का दुख-आंसू वो देख नहीं सकती थी. जितना संभव हो उनका दुख दूर करने का प्रयास करती. इसी पढ़ने-पढ़ाने में हम अपने कॉलेज के अंतिम वर्ष में आ गए. इसी बीच मुझे ये पता चल चुका था कि उसके हृदय में मेरे प्रेम की कपोलें खिल रही हैं और उसका प्रेम एकतरफ़ा है.
मेरे लिए वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी और इसी दोस्ती को खोने के डर से उसने कभी भी अपने प्रेम का इज़हार नहीं किया, कभी दोस्ती की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया. कॉलेज ख़त्म होने के बाद हम दोनों अपने-अपने जीवन के नए सफ़र पर निकल गए, किंतु हमारे बीच संपर्क बना रहा, जो समय के साथ कम ज़रूर हो गया था, पर टूटा नहीं. समय अपनी गति से चल रहा था. हमने अपने-अपने मुक़ाम हासिल कर लिए थे. नियत समय पर हमारे विवाह हो गए. मेरा तुमसे और उसका किसी और से. विवाह के बाद हमारे बीच जो थोड़ा-बहुत सम्पर्क था…जीवन की आपाधापी में वो समाप्त सा हो गया था.
ए.टी.एम. मेरे जीवन का ख़ूबसूरत अतीत… एक सच्ची दोस्त बन कर रह गई थी. एक ना भूलनेवाली मीठी सी याद.
ये नियति भी कितनी अजीब है ना वृंदा, इसके गर्भ में क्या पल रहा है, किसके जीवन में क्या हो जाए, कोई नहीं जानता, जैसे कि हमारे जीवन में…
उस रात तेज बिजली कड़क रही थी. बादल झमाझम बरसने को तैयार थे. अचानक तुम्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी. हॉस्पिटल पहुंचने तक काफ़ी रक्तस्राव होने के कारण तुम्हारी हालत अत्यंत गंभीर हो गई थी. डाक्टर ने कहा की वे मां या बच्चे में से किसी एक को ही बचा सकते हैं. तुम्हारी हालत अत्यंत गंभीर थी…उस पर मृत बच्चे का समाचार तुम्हारे लिए प्राण घातक सिद्ध हो सकता था. मैं परेशान सा सिर पर हाथ रखकर वही बैठ गया. आंखें अनवरत बह रही थी.


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मेरे सोचने-समझने की शक्ति शून्य हो गई थी, तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा. सिर उठा कर देखा तो ए.टी.एम. गोद में एक बच्चा को लिए खड़ी थी. हर बार की वही मेरी ए.टी.एम. मशीन बनी और तुम्हारी प्राण रक्षक…“
“मतलब… प्रणय…” मैंने कांपते स्वर में पूछा.
“हूं. अब इसे संयोग कहूं या ईश्वर का करिश्मा, उसने भी उसी दिन अपने बेटे को उसी हॉस्पिटल में जन्म दिया था. उसे तो वहां नर्स ने तुम्हारी गंभीर हालत के विषय में बताया था…वो तो बस उत्सुकतावश बाहर देखने आई थी और मुझे‌ वहां देख कर…” बोलते-बोलते उनका हृदय भर आया.
फिर कुछ क्षण रुक कर पुन: बोले, “अपने स्वभाव से विवश हो कर उसने तुम्हारे प्राणों की रक्षा के लिए उसने अपना बेटा भी दे दिया और मैं…मैं इतना स्वार्थी हो गया था कि उसे एक बार भी मना नहीं कर पाया. मेरे लिए उसने इतना बड़ा त्याग कर दिया. एक बार भी उसने ये नहीं सोचा कि कैसे वो अपनी ममता को शांत करेगी…अपनी गोद सूनी करके कैसे जिएगी, जबकि वो अपने पति को भी खो चुकी थी. इस स्वार्थी संसार में वो नितांत अकेली हो गई थी. ये उसके प्रेम की पराकाष्ठा थी… मैं उसके आगे नतमस्तक हो गया था. विरले ही होते हैं ए.टी.एम जैसे लोग…” 
“फिर…”
“वो मुझसे बिना मिले, बिना बोले ही चली गई. हॉस्पिटल से भी उसके विषय में कुछ पता नही चला. मैंने वर्षों उसे ढूंढ़ने का प्रयास किया था और आज मिली भी तो ऐसी अवस्था में…कैसे उसका ऋण चुकाएंगे…” कहते हुए उनका गला रुंधता जा रहा था.
इस अप्रत्याशित कटु सत्य का विषपान करना मेरे लिए सरल नहीं था. मेरी आंखें अविरल बह रही थीं. समझ में नही आ रहा था कि क्या बोलूं…
“उसको स्वस्थ करवा कर अपने घर ला कर देवकी और यशोदा का मिलन होगा…“ बस इतना कहकरमैंने शैलेश के हाथ पर हाथ रख दिया. रहस्य के समस्त बादल छंट चुके थे.

कीर्ति जैन
कीर्ति जैन

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Photo Courtesy: Freepik

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