''वाह आशा! कितना मज़ा आ रहा है बारिश में, सच्ची तुमने तो बचपन की याद दिला दी.''
''अनु, यह जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियां हैं. इनके निर्माता हम स्वयं हैं. अब देख जिस बारिश को तुम परेशानी मान कर खड़ी थी, वही बारिश तेरे लिए आनंद का विषय बन गई.''

रविवार की उस शाम सब्ज़ी मंडी में गिरती छोटी-छोटी बूंदें जैसे ही बड़ी होने लगीं वैसे हैरानी भरे स्वर में अनु आशा से बोली, ''जब हम घर से निकले थे तब तो मौसम खुला था फिर ये बारिश कैसे शुरू हो गई? वह भी इतनी तेज़.''
अनु की बात पर आशा मुस्कुराकर बोली, ''होने दो ना बारिश, कितनी गर्मी थी अब कुछ राहत तो मिली. अहा! कितनी प्यारी-प्यारी बूंदे हैं.''
''वो तो ठीक है पर अब हम घर कैसे जाएंगे?''
अनु ने फिर सवाल किया तो आशा फिर मुस्कुराकर बोली, ''कौन सा हमें कोसों दूर जाना है, ज़रा सी दूरी पर तो हमारी सोसाइटी है.''
दोनों के बीच बातें हो रही थीं कि आशा का मोबाइल बज पड़ा.
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''हेलो! आशा, बारिश तेज़ हो रही है, तुम लोग भीग जाओगी, तुम रुको मैं कार लेकर आता हूं.''
पति की इस फ़िक्र पर आशा बोली, ''अरे नहीं, हम तो घर पहुंचने ही वाले हैं. आप मत आइए, हम आ रहे हैं और वैसे भी अनु के पास छाता है.'' कहते हुए आशा ने कॉल काट दी तो अनु आश्चर्य से उसकी ओर देखती हुई बोली, ''मना क्यों कर दिया उन्हें आने से, और अपने पति से तुमने झूठ क्यों कहा कि मेरे पास छाता है?"
अनु की इस बात पर आंख मटकाती आशा शरारत भरे अंदाज़ में बोली, ''भीगते हैं और छप्प-छप्प छप्पाके करते हुए चलते हैं.''
''क्या? आशा तू पागल हो गई है क्या? ऐसे भीगते हुए जाना अच्छा लगता है भला!''
''अनु, चल ना मज़ा आएगा.'' कहते हुए वह अनु का हाथ पकड़कर चल पड़ी.
अनु और आशा दोनों चालीस की उम्र वाली सहेलियां थीं. एक ही सोसाइटी में रह रही अनु और आशा मां और पत्नी तो थीं हैं, साथ ही वे स्कूल टीचर भी थीं. वे बाहर के ज़्यादातर काम साथ ही में करतीं.
सप्ताह के छह दिन तो यूं ही निकल जाते बचता तो केवल रविवार. रविवार को उनकी सोसाइटी के पास ही सब्ज़ी मंडी लगा करती. आज वही रविवार वाली सब्ज़ी मंडी थी, जिसमें वे दोनों गई हुई थीं. मगर अचानक से आई बारिश ने अनु को परेशान और आशा को ख़ुश कर दिया था.
दोनों भीगते हुए चली जा रही थीं. बीच में एक पानी का गड्ढा पड़ा तो आशा छप्पाक से कूदने लगी. अनु को भी आशा के साथ अपना बचपन याद आ गया. अब वह भी बारिश का आनन्द लेने लगी. दोनों सहेलियां बूंदों के साथ ऐसी मस्त हो गईं कि उन्हें आसपास के लोगों का कोई ख़्याल ही नहीं रहा. दोनों के भीतर खोया हुआ बचपन समा गया.
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''वाह आशा! कितना मज़ा आ रहा है बारिश में, सच्ची तुमने तो बचपन की याद दिला दी.''
''अनु, यह जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियां हैं. इनके निर्माता हम स्वयं हैं. अब देख जिस बारिश को तुम परेशानी मान कर खड़ी थी, वही बारिश तेरे लिए आनंद का विषय बन गई.''
''सच्ची आशा! घर आने ही वाला है, देख ना वह रहा रास्ते का आख़िरी गड्ढा, चल मिल के कूदे."
एक साथ हाथ पकड़कर दोनों सहेलियां छप्प-छप्प छप्पाक किया और दोनों छोटी बच्चियों सी ठहाके मारकर हंस पड़ीं.


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