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कहानी- बराबर की साझेदारी (Short Story- Barabar Ki Sajhedari)

तुमने कहा मैं एक ग़ुुस्सैल इंसान बन गई हूं और तुम चाहे जो कर लो, मैं ख़ुश नहीं होती. अगर मैं तुम्हारी जगह होती, तो आज की स्थिति में किसी भी तरह से बाध्य होकर शादी नहीं करती. मैं केवल तुमसे उस समान साझेदारी की उम्मीद कर रही थी, जिसका वादा तुमने किया था.

जैसे ही वृंदा ने वरुण से विदा ली और वह ट्रेन में सवार हुई, तो बहुत हल्कापन महसूस हुआ उसे. एक अध्याय के अंत होने जैसा सुकून उसके भीतर था. ट्रेन चलते ही गुज़रते रास्ते और तेजी से पटरियों के साथ दौड़ लगाते पेड़ों, गांवों और बादलों के झुंड के साथ बीती बातें भी उसके मन में उथल-पुथल मचाने लगीं. पुरानी यादें, बीती घटनाएं इंसान का पीछा कभी नहीं छोड़तीं और ये तो बहुत पुरानी यादें भी नहीं थीं. सब कुछ अभी घटा लग रहा था.
उन दोनों की मुलाक़ात इंजीनियरिंग कॉलेज की कैंटीन में हुई थी. दोनों एक ही बैच में थे. क्लास में जाने-पहचाने चेहरों से जब कैंटीन में मुलाक़ात होती है, तो साथ बैठकर गप्पबाजी करना, किसी विषय पर गंभीरता से चिंतन करना या कंपनी देने के लिए कॉफी पीना बहुत आम बात होती है. वह उसके बिल का भुगतान करने लगा, तो उसने टोक दिया कि वह ख़ुद ही पेमेंट करेगी. लेकिन अगले ही पल बैग टटोलने पर उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और शर्मिंदगी भी हुई. वह क्रैडिट कार्ड बैग में रखना भूल गई थी. उसने बहुत सहजता से और उसे बुरा न लगे, कुछ इस अंदाज़ में यह कहते हुए बिल का भुगतान कर दिया कि अगली बार वह उसे कॉफी पिला सकती है.
क्लास एक हो, विषय एक हो और रुचियां भी लगभग समान हों, तो दोस्ती होने में बहुत समय नहीं लगता. उनके बीच भी दोस्ती हो गई. साथ व़क्त गुज़ारते-गुज़ारते, एक-दूसरे के साथ बातें शेयर करते, प्यार पनपने में भी देर नहीं लगी. प्रोजेक्ट्स पर एक-दूसरे की मदद करते और जब मौक़ा मिलता फिल्म देखने भी चले जाते.
उनके प्यार को कॉलेज के गलियारों और क्लास में चर्चा का विषय बनते देर नहीं लगी. प्रेमी युगल की मदद करने में छात्र भी जुट गए. कभी उनके क्लास से गायब होने पर बचाते, तो कभी उन्हें किसी रेस्तरां में डेट पर भेज देते.
आख़री साल वरुण ने शादी का प्रस्ताव रखा. वृंदा ने तो तब तक शादी के बारे में सोचा तक नहीं था.
“क्यों, क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करतीं?” वरुण ने सवाल उसके सामने उछाल दिया था. उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि वृंदा शादी के लिए मना कर सकती है.
“कैसा बेकार का सवाल कर रहे हो? हमारे प्यार के बारे में शायद पूरा कॉलेज जानता है. इतने साल साथ-साथ गुज़ारने के बाद ऐसा सवाल तुम्हारे मन में आना मेरे प्रति शंका रखने जैसा है.” वह भी तुनक कर बोली थी.
“हद होती है. प्यार है, तो बस बिना कुछ सोचे-समझे शादी कर लो.”
वह तो जीवन में कुछ बनना चाहती है. आगे पढ़ना चाहती है. दुनिया में अपनी पहचान बनाना चाहती है. और वरुण को भी तो अभी सैटेल होना है. माना कि प्लेसमेंट हो गया है, पर अभी तो शुरुआत है. क्या नौकरी पाने के सिवाय उसके और सपने नहीं हैं? उसके तो हैं.
“मैं अभी नौकरी नहीं करना चाहती और पढ़ना है मुझे. कुछ अलग करना है. वैसे भी मैं एक पारंपरिक पत्नी की भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं हूं.”


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उसकी स्पष्टवादिता से भौंचक रह गया था वरुण. कोई आख़िर इतने अच्छे लाइफ पार्टनर को इंतज़ार करने के लिए कह सकता है. लड़कियां ऐसा नहीं करतीं और उनके परिवारवाले भी हाथ आए ऐसे सुयोग्य वर को कभी हाथ से जाने देना पसंद नहीं करते.
“लेकिन, द़िक्क़त क्या है? नौकरी मिल ही गई है. अभी किराए पर घर ले लेंगे. फिर धीरे-धीरे सब चीज़ें जुटा लेंगे. हम दोनों कमाएंगे, तो परेशानी नहीं होगी. हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं, एक-दूसरे को अपना दिल दिया है, तो हमारी साझेदारी भी बराबर की होगी. हम एक-दूसरे से कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे. मिलजुलकर सब काम करेंगे.
लेकिन वह आश्‍वस्त नहीं थी. आख़िरकार वरुण के बहुत बाध्य करने पर वह शादी के बंधन में बंधने से पहले कुछ साल साथ रहने के लिए तैयार हो गई. लिव-इन-रिलेशन के लिए किसी ने स्वीकृति नहीं दी, पर वृंदा ख़ुद के लिए रास्ते स्वयं ही तय करना चाहती थी.
वृंदा को आईआईटी मुंबई में दाख़िला मिल गया, तो उन्होंने उसके पास में ही एक छोटा-सा फ्लैट किराए पर ले लिया. वरुण की जॉब ऐसी थी, जिसमें वर्क फ्रॉम होम की सुविधा थी. वैसे भी उसका ऑफिस घर से बहुत दूर था, इसलिए यह व्यवस्था उसके लिए सुविधाजनक थी.
पहले कुछ महीने तो किसी जादुई एहसास में डूबे बीते. वह सुबह उसके साथ कॉलेज तक उसे छोड़ने जाता, उसके वापस आने पर दरवाज़े पर उसका इंतज़ार करता मिलता. दोनों एक साथ रात का खाना बनाते और दिनभर की बातें शेयर करते. हवा में प्यार घुला हुआ था, उनके रेशे-रेशे में प्यार पगी बातें लहराती रहतीं.
साथ रहते-रहते, प्रेम की पींगे झूलते-झूलते धीरे-धीरे वास्तविकता से भी सामना होने लगा. फिर ऐसी चीज़ें दिखने लगीं, जो पहले या तो दिखाई नहीं देती थीं या वे देखना नहीं चाहते थे. शुरुआत हुई छोटे-छोटे मुद्दों के सिर उठाने से. “न तो तुम ऑर्गेनाइज़्ड हो, न ही साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखते हो. पूरा दिन घर में होते हो, फिर भी कोई चीज़ करीने से रखने का तुम्हारे पास समय नहीं होता. बिखरी हुई चीज़ों के बीच बैठकर काम कैसे कर पाते हो तुम?” वृंदा खीझ उठती.
घर आकर वह पढ़ाई करे या बाकी सारे काम! लेकिन वरुण बेपरवाह बना रहा. पूरा दिन बिस्तर पर बैठा, कभी लेटकर काम करता. यहां तक कि खाने की प्लेट भी बिस्तर पर पड़ी रहती. कभी नहाता, कभी नहीं. गंदे कपड़े वॉशिंग मशीन में डालने तक की जहमत न करता.
“कम से कम प्लेट उठाकर किचन में तो रख आया करो. बर्तन और किचन साफ़ कर दिया करो, तो मुझे कुछ मदद मिल जाएगी. कपड़े तो बदल लिया करो. गंदे कपड़े कभी पलंग पर, कभी कुर्सी पर छोड़ देते हो. मैं आकर यह सब संभालूं या पढ़ाई करूं और घर के बाकी काम करूं? बराबर की साझेदारीवाली बात भूले तो नहीं हो न तुम?” वृंदा बहुत कोशिश करती कि वह झल्लाहट न दिखाए, पर उसकी खीझ शब्दों से झलक ही जाती.
“बिल्कुल नहीं. कल से तुम्हें शिकायत का कोई मौक़ा नहीं दूंगा.” वरुण हंसते हुए जवाब देता. लेकिन वह कल कभी नहीं आता. बेशक एक-दो बार जूठे बर्तन सिंक में रखे ज़रूर मिले.
वृंदा को लगा कि वरुण खाना बनाते समय केवल किचन में खड़े होकर उससे बात करता है. मदद किसी भी तरह की नहीं करता.
“क्या तुम आलू छील दोगे? दाल-चावल भी धो देना.” वृंदा ने एक दिन कह ही दिया.
“यह सब कैसे करते हैं? मुझे तो नहीं आता.” वरुण का जवाब सुन वृंदा चिढ़ गई, पर धैर्य रखते हुए बोली, “कुछ मुश्किल नहीं है. एक बार करोगे तो सीख जाओगे.” वह उसे सिखाने लगी. केवल किचन का काम ही नहीं, घर के बहुत से ऐसे काम जो आसान होते हैं और बचपन में जिन्हें मांएं अपने बच्चों को सिखा ही देती हैं.


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“इकलौता हूं न, इसलिए मां ने पलकों पर बिठाकर रखा. कभी कुछ सिखाया ही नहीं.” उसकी बात सुन वृंदा को हंसी आ गई थी.
“बाप रे, पलकों पर कैसे उठाया इतना बोझ!”
वृंदा को तब पहली बार ऐसा लगा था कि वह 25 साल के एक आदमी की मां बन गई है. और यह सुखद एहसास नहीं था. वह इसे स्वीकारने को तैयार नहीं थी.
जब वह खाना बनाती या कुछ और काम में उससे मदद मांगती तो वह कहता है कि उसकी मीटिंग है या प्रेजेंटेशन तैयार करनी है. दिनभर कॉलेज में पढ़ाई करने और शाम को आकर फिर पढ़ने, घर का काम करने, सुबह की तैयारी करने, वरुण का नाश्ता, लंच बनाने में वृंदा थक जाती थी. वरुण उससे बैठे-बैठे बस मांग करता, जो उसे किसी आदेश की तरह लगतीं.
वृंदा समझ चुकी थी यह समान भागीदारी नहीं है, जिसका वादा वरुण ने उससे किया था. असल में वह पुरुष था जिसके लिए घर का काम करने का अर्थ था अपना उपहास उड़वाना या जोरू का ग़ुलाम कहलवाना. उसकी मां वरुण के किसी भी निर्णय से ख़ुश नहीं थीं, लेकिन घर के काम करने की बात पर तो वह नाराज़ थीं. वरुण के लाख दिखावा करने के बावजूद कि वह बराबर की साझेदारी में विश्‍वास करता है, वृंदा पर ही सारी ज़िम्मेदारियों का भार था. हां, पैसे वरुण ही ख़र्च करता था.
वह कुछ कहती, तो बहस लड़ाई और चुप्पी पर जाकर ख़त्म होती. बात ही मत करो, वरुण को यह विकल्प बहुत पसंद आया. जब तक वह उससे माफ़ी नहीं मांगती या उसे मनाती नहीं, वह मुंह बनाए बैठा रहता. उसे लग रहा था कि वह प्रेयसी कम और मां की भूमिका में ढलती जा रही है.
जब वे कॉलेज में थे, तो अपने दोस्तों के साथ पार्टियों में जाते थे. वे डेट नाइट्स के लिए बाहर जाते थे. अब वरुण काउच पोटैटो बन चुका था. उसके सभी सहकर्मी भी घर से ही काम करते थे, इसलिए उनके सभी सोशल इवेंट्स भी ऑनलाइन होते थे. वृंदा के दोस्तों से मिलने में वरुण को कोई दिलचस्पी नहीं थी. जब भी वह उससे बात करने की कोशिश करती, तो कहतो कहता, “बहुत बिज़ी हूं्. और इतनी मेहनत मैं तुम्हारे सपनों को पूरा करने के लिए ही कर रहा हूं. अगर तुम चाहो तो मैं कहीं और नौकरी कर सकता हूं्. फिर मुझे राज़ ऑफिस जाना होगा और हो सकता है वह भी घर से दूर हो. फिर हम यहां नहीं रह पाएंगे. तुम्हें ही कॉलेज आने-जाने में परेशानी होगी.”


उनके बीच का शारीरिक रिश्ता भी मशीनी हो गया था. वह बेमन से उसकी इच्छाओं के आगे झुकती.
इस सारे तनाव ने वृंदा पर मानसिक और भावनात्मक रूप से भारी असर डाला. उसकी पढ़ाई पर इसका प्रभाव दिखा और उसके प्रोफेसर जिन्हें उसमें एक ब्राइट स्टूडेंट नज़र आता था निराश होने लगे. वह जितना कर सकती थी, स्वयं से और परिस्थितियों से लड़ते हुए हारने लगी थी. कुछ बनने का सपना रखनेवाली, आईआईटी में प्रवेश पानेवाली उस प्रतिभाशाली लड़की को मुश्किल से एक सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी मिल पाई्.
नौकरी के साथ काम का प्रेशर बढ़ा, पर वरुण का व्यवहार नहीं बदला. साझेदारी केवल बातों में थी. इन चार वर्षों ने वृंदा को एक थकी हुई, क्रोधी महिला बना दिया था. एक दिन वरुण जब अपनी मां से मिलने इंदौर जाने लगा, तो वृंदा ने भी साथ चलने की ज़िद की. हमेशा वरुण अकेले ही जाता था. वह कहती कि अपने परिवार से उसे भी मिलवाओ, तो यह कहकर टाल जाता कि समय आने पर मिलवा दूंगा. मां बहुत पुराने ख़्यालों की हैं.
लेकिन इस बार वह अड़ गई. वरुण उसके तेवर देख समझ गया कि इस बार वह नहीं रुकने वाली.
“मां, यह वृंदा है, मेरी दोस्त. हम कॉलेज में साथ पढ़ते थे.”
वृंदा आश्‍चर्यचकित रह गई. एक दोस्त के रूप में वह कैसे मां से मिलवा सकता है. उसके परिवार ने बहुत ही संदिग्ध ढंग से उसका स्वागत किया. दोस्त शब्द उनके संस्कारों में अटक रहा था. वृंदा को भी वरुण के साथ में अजनबीपन का एहसास हो रहा था.
अगले दिन वरुण की मां ने कुछ लड़कियों की फोटो वरुण के सामने रख दीं.
“पंडितजी ने तुम्हारे लिए हमें कई लड़कियों की फोटो दिखाई थीं, पर हमें यही पसंद आईं. तुम बताओ तुम्हें कौन-सी अच्छी लगी है.” वरुण ने उस समय कुछ नहीं कहा.
“वरुण! तुमने कुछ कहा क्यों नहीं? तुम उन्हें हमारे बारे में क्यों नहीं बता रहे?” वृंदा ने पूछा. “यह इतना आसान नहीं है!” वरुण ने कहा.
“इसका मतलब क्या समझूं? हम एक-दूसरे से ही शादी करनेवाले हैं न?”
“मैं तो हमेशा से यही चाहता था. लेकिन इन दिनों तुम चिढ़ी रहती हो. हमेशा नाराज़ रहती हो. मैं चाहे कुछ भी कर लूं, तुमको ख़ुुश रखना असंभव लग रहा है. कुछ समय मुझे सोचने के लिए चाहिए. बराबर की साझेदारी में ऐसा थोड़े होता है कि तुम केवल मुझसे अपेक्षाएं रखो.”
वृंदा को लगा कि वह दोषी न होते हुए भी वरुण उसे ही ग़लत ठहरा रहा है. अगले दिन उसने वरुण से कहा कि बॉस ने तुरंत वापस आने को कहा है, कोई ज़रूरी मीटिंग वह करना चाहते हैं. वह उसे विदा लेकर मुंबई के लिए ट्रेन में सवार हो गई.
मुंबई पहुंचने के बाद, उसने अपना बैग पैक किया और दूसरे फ्लैट में अपनी सहेली के पास शिफ्ट हो गई. पीछे एक पत्र वरुण के नाम छोड़ गई.


प्रिय वरुण,
मेरा इस तरह जाना हो सकता है तुम्हारे अहं को चोट पहुंचाए. मैं तुम्हें हार्टलेस लगूं, पर मेरा जाना ही सही ़फैसला है. तुम हमारे रिश्ते को लेकर विचार करना चाहते हो. मुझे लगता है कि मैं भी ऐसा चाहती हूं्. तुमने कहा मैं एक ग़ुुस्सैल इंसान बन गई हूं और तुम चाहे जो कर लो, मैं ख़ुश नहीं होती. अगर मैं तुम्हारी जगह होती, तो आज की स्थिति में किसी भी तरह से बाध्य होकर शादी नहीं करती. मैं केवल तुमसे उस समान साझेदारी की उम्मीद कर रही थी, जिसका वादा तुमने किया था. लेकिन मुझे एक-दूसरे से कोई अपेक्षा न रखने का अर्थ समझ में नहीं आया. मैं समझी ही नहीं कि बिना किसी अपेक्षा के समान साझेदारी कैसे कर सकते हैं. बराबर के भागीदार बनना चाहते हैं, तो अपने साथी से अपनी भूमिका निभाने की अपेक्षा रखना ग़लत कैसे हो सकता है? एक-दूसरे की दुनिया का हिस्सा बनने की उम्मीद करना अनुचित कैसे हो सकता है? लेकिन हमारी तो दुनिया ही अलग हो गई. तुम मुझमें मां ही ढूंढ़ते रहे, जो केवल तुम्हारे हर काम को पूरा करने के लिए दौड़ती रहती थीं तुम्हारे बचपन में. बचपन ही क्यों, वह तो अभी भी दौड़ती हैं. यह वह जीवन नहीं है, जिसकी मैंने कल्पना की थी. तुमने आज तक जो कुछ भी मेरे लिए किया है, एक दोस्त होने के नाते मैं तुम्हारा उसके लिए शुक्रिया कह सकती हूं, पर मेरे प्यार को जो तुमने चोट पहुंचाई है, उसके लिए मेरा तुम्हारी ज़िंदगी से चले जाना ही सही निर्णय है.
वृंदा

सुमन बाजपेयी

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