"… इनके पास पूजा-पाठ के लिए समय और धन दोनों ही कम है, लेकिन दूसरों की मदद के लिए इनके पास समय और धन दोनों ही है. पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार तो इनके भाग्य भिखारियों जैसे हैं, लेकिन इस जन्म के इनके कर्मों के बारे में चित्रगुप्तजी के फाइल में लिखा है कि इनके सभी कार्य पुण्य कर्मों के लिस्ट में आते हैं. इस कारण हमें इन पर मेहरबान होना पड़ता है." ब्रह्माजी ने फिर से ज़ोर देते हुए कहा.
आज सुबह से मीटिंग चल रही थी, मगर समस्या का समाधान होने के बदले मामला उलझता जा रहा था. ब्रह्माजी के माथे पर पसीने की बूंदें थीं. भगवान विष्णु गाल पर हाथ रखे चुपचाप सोच रहे थे. चित्रगुप्त महाराज अपनी लंबी-चौड़ी फाइल खोले केलकुलेटर पर कुछ हिसाब-किताब कर रहे थे. परंतु सभी के मुख पर चिंता की लकीरें थीं.
अचानक चित्रगुप्त महाराज बोले, "इस पृथ्वीवासी से तो हम तंग आ गए हैं. एक तो पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार इनके भाग्य में सुख है ही नहीं, मगर इनके इस जन्म के कर्मों के अनुसार यह थोड़े-बहुत सुख का भागीदार बनते हैं. लेकिन विडंबना यह है कि जब भी हम इन्हें सुख देने की कोशिश करते हैं यह मूर्ख लेने से इनकार कर देते हैं."
चित्रगुप्त महाराज बहुत ग़ुस्से में थे. इधर कुबेरजी, ब्रह्माजी पर अलग गरज रहे थे, “आप इस तरह मुझसे थोड़े-थोड़े पैसे मत मांगा कीजिए. आप जानते हैं उन्हें अधिक देना नहीं है और कैश पैसे लेकर मैं घूमता नहीं हूं. हर रोज़ थोड़े-थोड़े पैसे बैंक से निकालते-निकालते मैं परेशान हो गया हूं."
सभी चिंतित थे, मगर समस्या का समाधान नहीं हो पाया.
"घर में कुछ नाश्ते का सामान बचा है?" दरवाजे पर खड़े रामकृपाल बाबू ने पूछा.
"नहीं, मगर क्या बात है?" कलावती ने पूछा.
"अरे, हाथ में कुछ पैसे आ गए, सोचा कि पंद्रह दिन का राशन का सामान ले लूं, तो मैंने रिक्शा कर लिया. बेचारा रिक्शावाला धूप में रिक्शा खींचा है. भूखा-प्यासा होगा." रामकृपाल ने बड़ी विनम्रता से कहा.
"अहोभाग्य पूजा करके उठी और इतना बड़ा पुण्य करने का मौक़ा मिला. मैंने अभी नहीं खाया है. मेरा नाश्ता बचा है वही खिला देती हूं." कलावती ने प्रसन्न होकर कहा.
दोनों पति-पत्नी ने आनंद से रिक्शेवाले को भोजन कराया. निश्चिंत थे अभी तो पंद्रह दिन के राशन है ही. इधर पति-पत्नी आनंद में थे, उधर ब्रह्माजी सिर पीट रहे थे. बगल से नारदजी गुज़र रहे थे, चुटकी लेते हुए पूछे, "जगतगुरु, जगत पिता आज किस बच्चे ने नादानी की?"
"अरे, क्या कहूं इन दोनों से मैं तंग आ गया हूं. इनके घर में भुखमरी थी. तरस आ रहा था. फिर भी मैं असमर्थ था, क्योंकि इनके अकाउंट में एक भी पैसे नहीं थे. मगर पति-पत्नी के पूजा-पाठ की वजह से नारायण प्रसन्न हो गए और मुझे पैसे इंतजाम करने को कहा. मैंने कर भी दिया, मगर देखो सुख इनके नसीब में ही नहीं है. दोनों हाथ से लूटा रहे हैं. फिर दो दिन बाद कंगाल हो जाएंगे."
ब्रह्माजी ने ग़ुस्से में कहा. नारदजी ने किसी प्रकार से ब्रह्मा जी को समझा-बुझाकर शांत किया.
महेसर पूजा पर बैठा था. दिसंबर की कंपकंपाती रात थी. ठंड हड्डियों को छेद रही थी. कई रातों से वह सो नही पाया था. पिता की बीमारी के लिए पैसों का इंतज़ाम नहीं हो पाया था. उसी इंतज़ाम में वह कई दिनों से प्रयासरत था. आज जाकर उसकी मुराद पूरी हुई थी. प्रसन्न मन से वह भगवान के सामने ध्यान लगाए बैठा था, मगर ध्यान कहीं और चला जाता.
कराहने की आवाज़… कोई रो रहा था…
वह और देर नहीं बैठ पाया. बाहर घुप्प अंधेरा था. एक तो शीत लहर ऊपर से कोहरा छाया था. उसने कंधे पर शॉल डाला और टॉर्च लिए हुए सीढ़ियों से नीचे उतर गया. वह कुछ ही दूर गया था कि सामने देखा कुत्ते का छोटा सा बच्चा नाले के पानी से भीग कर ठंड से अकड गया था. उसी में किसी सवारी ने उसके पैर कुचल दिए थे. महेसर ने उसे गोद में उठा लिया और घर में ले आया.
रातभर आग जलाकर उसके पास बैठा रहा. सुबह हुई तो बच्चे को आराम मिला और वह सो गया. महेसर ने जो पैसे पिता की बीमारी के लिए इंतज़ाम किए थे, उनमें से आधा बच्चे पर और आधा पिता पर ख़र्च कर दिए.
"बाप तो बाप बेटा भी वैसा ही निकला. इस परिवार ने तो मुझे पागल कर दिया है. जी में आता है कि भिखारी बना कर इन्हें सड़क पर छोड़ दूं. ये उसी के लायक हैं." ब्रह्माजी ग़ुस्से से पागल हो गए थे.
"अरे, कई रातों से बेटा सो नहीं पाया था, सोचा था कि पैसों का इंतज़ाम कर दूं, तो दो कम से कम चैन की नींद सो तो पाएगा. पिता का भी इलाज कर लेगा और महीनेभर घर का ख़र्च भी ठीक ढंग से चल जाएगा. मगर देखो उस कुत्ते के पिल्ले के पास रातभर बैठा रहा और ऊपर से सारा पैसा भी ख़र्च कर दिया. अब भुगतेगा महीनेभर."
आसपास के सभी देवताओं ने उनके समर्थन में सिर हिलाया कि ब्रह्माजी बिल्कुल सही कह रहे हैं. कैलाश पर्वत पर भीड़ थी ब्रह्मा, विष्णु और महेश विचार मग्न थे. बहुत देर के बाद विष्णु भगवान ने कहा, "पृथ्वीवासी युग के अनुसार बदल गए हैं, मगर हमें नहीं बदलना चाहिए. वह हमें पूजते हैं. देवता मानते हैं."
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"आप समझ नहीं रहे हैं." ब्रह्माजी ने ऊंचे स्वर में कहा.
"यह घोर कलयुग है हमें बदलना ही होगा, जिसे देखो वही लूट-खसोट रहा है. जिसके पास है वह भी और जिसके पास नहीं है वह भी. फिर भी यह कलयुगी हमारी पूजा करते ही हैं, तीर्थ करते हैं, यज्ञ करते हैं. जिसके पास जितना धन है, वह पूजा-पाठ पर उतना ही ख़र्च करते हैं. दुनियावाले इसे ही व्यावहारिकता कहते हैं और हमें उन पर मेहरबान होना ही पड़ता है.
फिर यह परिवार व्यावहारिक क्यों नहीं है? यह भीड़ से अलग क्यों हैं? इनके पास पूजा-पाठ के लिए समय और धन दोनों ही कम है, लेकिन दूसरों की मदद के लिए इनके पास समय और धन दोनों ही है. पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार तो इनके भाग्य भिखारियों जैसे हैं, लेकिन इस जन्म के इनके कर्मों के बारे में चित्रगुप्तजी के फाइल में लिखा है कि इनके सभी कार्य पुण्य कर्मों के लिस्ट में आते हैं. इस कारण हमें इन पर मेहरबान होना पड़ता है."
ब्रह्माजी ने ज़ोर देते हुए कहा.
"अरे तब का ज़माना और था, अब का ज़माना और है. यह बात यह समझते ही नहीं."
रामकृपाल की पत्नी यानी कलावती रसोईघर में व्यस्त थी. उनके घर कुछ मेहमान आए थे, जो सप्ताह बीत गया था. परंतु जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे. नारदजी उधर से गुज़र रहे थे, देखा कलावती के मुख पर शिकन तक नही था. उन्होंने सोचा, 'चलूं ज़रा यह ख़बर ब्रह्माजी को सुनाता आऊं.'
"आपने उन्हें कितने धन का प्रबंध कर दिया था? आज एक सप्ताह से उनके घर से लगातार भोजन की ख़ुशबू आ रही है."
ब्रह्माजी चौंक उठे.
"क्या कहा आपने?"
"वही जो आप सुन रहे हैं." नारदजी ने मुस्कुराते हुए कहा.
ब्रह्माजी उबल पड़े.
"यह कभी अपने बारे में सोचते क्यों नहीं, आख़िर चाहते क्या हैं?"
"हे प्रभु समस्या आपने दिया है, तो समाधान भी आप ही करेंगे."
महेसर पूजा घर में बैठा सोच रहा था. दुखी था, मगर अथाह धैर्य के साथ. दो महीने हो गए थे महेसर को घर में बैठे. उसकी नौकरी चली गई थी. आर्थिक समस्याएं बढ़ती जा रही थी. रामकृपाल अक्सर बीमार रहते थे. परंतु जो धैर्य पुत्र के पास था, वही धैर्य कलावती के पास भी था. कलावती ने जब से होश संभाला था जीवन को उसने संघर्ष ही माना था. और उसे संघर्ष ही मिला दूसरा कुछ नहीं. फिर भी असीम धैर्य और उत्साह के साथ जाने किस आस में जीवन जीती चली जा रही थी.
नारदजी फिर से एक बार ब्रह्माजी के पास बैठे थे.
"सुना है वे खाने को तरस रहे हैं."
"किसकी बात कर रहे हैं नारदजी ?"
"आपकी उसी विचित्र रचना के बारे में जिसके बारे में सोचकर आप का मुख मलिन है."
"मैं किसी के बारे में नहीं सोच रहा हूं." ब्रह्माजी ने छुपाते हुए कहा.
नारदजी चले गए थे.
ब्रह्माजी बेचैन थे, 'मुझे उनकी मदद करनी ही पड़ेगी मगर कैसे? धन उनके छत से बरसा दूं या फिर एक रात में उन्हें धनी बना दूं? किंतु यह तो चमत्कारों का नहीं, विज्ञान का युग है. लोग उन्हें जादूगर या फिर डाकू ना समझने लगे. क्या करूं उनके भाग्य में तो धन है ही नहीं, परंतु उन्हें छोड़ भी नहीं सकता. मदद तो करनी ही पड़ेगी."
कलावती बुझे हुए चूल्हे के पास चुपचाप बैठी थी. रामकृपाल सो रहे थे. महेसर पैसे के इंतज़ाम में बाहर निकला था. तेज बारिश हो रही थी. महेसर ने एक-दो जगह उधार मांगा, मगर नहीं मिला. तेज बारिश के कारण बहुत दूर नही जा सका. निराश होकर घर लौट आया. कलावती आकर महेसर के पास बैठ गई. बोली, "धैर्य रखो पुत्र मेरा चूल्हा जीवन में हर दिन जला है आज भी जलेगा."
महेसर कुछ नहीं बोला चुपचाप मां का मुख देखता रहा. अचानक महेसर अपनी किताबों की आलमारी के पास गया और बोला, "मां, बेकार में ये फालतू पड़े हैं सोच रहा हूं इन्हें बेच दूं, कुछ पैसे मिल जाएंगे."
कलावती ने महेसर का हाथ पकड़ लिया, "नहीं पुत्र यह तुम्हारी अमूल्य निधि है इसे मत बेचो."
"तब मैं क्या करूँ मां?"
महेसर किताबों को उलटने-पलटने लगा. बेचैन था वह. आलमारी में बहुत सारे फालतू काग़ज़ पड़े थे. महेसर निकालकर उन्हें फेंकने लगा. कलावती उन्हे उठाकर कुडेदान में डालने जा रही थी, तभी एक डायरी दिखाई पड़ी. कलावती उसे ध्यान से देखने लगी और अचानक आवाक रह गई. तभी महेसर पास आया.
"क्या बात है मां?" वह भी ध्यान से देखने लगा.
"यह क्या मां सौ रुपए का नोट यह कहां से आया."
कलावती ने आसमान की तरफ़ उंगली से इशारा किया. महेसर के चेहरे पर प्रसन्नता दौड़ गई.
"लगता है मां, मैं ही कभी रखकर भूल गया था."
ब्रह्माजी के मन में फिर से द्वंद चल रहा था.
"स्वयं तो खाने को नहीं है और चार-चार कुत्तों का निर्वाह किया जा रहा है और साथ ही चिड़ियों को सुबह-शाम दाना खिलाया जा रहा है."
बगल में नारदजी खड़े मुस्कुरा रहे थे.
"इंसान के लिए भगवान को कभी इतना परेशान होते नहीं देखा था." नारदजी ने वार किया.
"आप ऐसा कैसे कह सकते हैं हम तो प्रारंभ से हीं इंसानों के लिए परेशान होते रहे हैं." ब्रह्माजी ने जवाब दिया.
"ऐसा मैं नहीं मानता अगर परेशान होते, तो इस प्रकार इंसानों को कष्ट भोगते नहीं देखते." नारदजी ने कहा.
"यह सब उनके पिछले जन्मों के कर्मों का भोग है." ब्रह्माजी ने कहा.
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"यही तो बात है ब्रह्माजी, मनुष्य न अपना पिछला जन्म देखता है, न अगला जन्म देखता है. इस विश्वास पर जीवन जीता है कि इस जन्म में पुण्य करूंगा, तो अगला जन्म सफल होगा. आपने यह विचित्र नियम क्यों बनाएं. पिछले जन्म की सज़ा इस जन्म में और इस जन्म की सज़ा अगले जन्म में, इससे लाभ क्या है? जब मनुष्य को न पिछला जन्म याद रहता है, न अगले जन्म के बारे में वह कुछ जानता है. फिर वह अपने आपको कैसे सुधारेगा. जबकि वह जानता ही नहीं कि उसने क्या ग़लत किया है." नारदजी ने कहा.
ब्रह्माजी कुछ नही बोले.
नारदजी ने फिर कहा, "आज इस दुनिया की जो हालत है वह सिर्फ़ आप लोगों के बनाए नियमों के कारण ही हैं. अब इस रामकृपाल के परिवार को ही देखिए ना… ईमानदारी, आदर्श और पवित्रता का प्रतीक है यह परिवार, मगर सुख के नाम पर इनके पास है क्या? किसी तरह घिसट कर जीवन जी रहे हैं. दुख इसलिए है कि पिछले जन्म में इन्होंने पाप किए हैं, मगर ये बेचारे क्या जाने, ये तो इसी जन्म में अपनी ग़लतियों को तलाश कर रहे हैं. और तलाश में ही शायद पूरी ज़िंदगी निकल जाए. अब आप बताइए कोई मनुष्य इनसे कभी सीख लेना चाहेगा? यहां तो मन में एक अलग ही भावना उपजेगी कि ईमानदारी और आदर्श से कुछ नहीं मिलनेवाला है. इससे तो अच्छा जितना हो सके पाप करो, कम से कम इस जीवन में तो सुख मिलेगा." कहते हुए नारदजी मुस्कुराए.
ब्रह्माजी चुप थे.
"आप कहते हैं कि यह कलयुग है, मगर इस कलयुग को बनानेवाले तो आप ही हैं. आपके नियम-क़ानून हैं. आज एक मनुष्य दूसरे का भला कर रहा है, तो आप उस पर ग़ुस्सा कर रहे हैं. उसे मूर्ख घोषित कर रहे हैं. यही मानसिकता आज मनुष्य की हो गई है. इस प्रकार के व्यक्ति को समाज में असफल, मूर्ख, गरीब के नाम से जाना जाता है."
थोड़ी देर के लिए नारदजी चुप हो गए, फिर बोले, "कहते हैं कि हर मनुष्य में ईश्वर है. वह आप ही के अंश हैं. फिर तो यह मनुष्य नहीं आप ही बोलते हैं. एक तरह मनुष्य को उच्च कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं, दूसरी तरफ़ उसे धिक्कारते हैं."
ब्रह्माजी ने फिर कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ नारदजी के सहमति में सिर हिलाए. नारदजी ने फिर कहा, "मैं सिर्फ़ यह आपके लिए नहीं कह रहा हूं. मैं यह संदेश दे रहा हूं उन पिताओं के लिए जो परिवार संभालते हैं, उन नेताओं के लिए जो देश चलाते हैं, उन गुरुओं के लिए जो शिष्य को आकार देते हैं, उन महापुरुषों के लिए जो संदेश छोड़ जाते हैं, मगर यह नहीं बताते कि उस पर अमल करने के सही रास्ते क्या हैं ? अमल कैसे किए जाएं? कितने समय तक किए जाएं? जिसके कारण फिर कहीं ना कहीं ग़लतियां हो जाती हैं और यह पूरे समूह को इस प्रकार प्रभावित करती है कि एक युग परिवर्तन हो जाता है और यही लोग उस युग का नाम देते हैं. कभी द्वापर, कभी त्रेता, कभी सतयुग, तो कभी कलयुग."
नारदजी थोडी देर के लिए चुप हो गए. अचानक उत्तेजित होते हुए बोले, "सच पूछिए तो कभी कोई युग परिवर्तन नहीं हुआ है. हर युग में वही कहानी दोहराई गई है अलग-अलग तरीक़े से. आज आप इतना परेशान हैं, मगर इस परेशानी का कारण आप स्वयं हैं. एक समूह को कभी दोष नहीं दिया जा सकता. दोष उस समूह को आकार देनेवाले उस पिता में है, उस विधाता में है, उस गुरु श में है."
ब्रह्माजी ने मुड़कर नारदजी की ओर देखा, वह जा चुके थे.

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