सुमन बाजपेयी
वह विदेशी संस्कृति को समझ ही नहीं पा रही थी. आख़िर क्यों ये लोग इतने तटस्थ रहते हैं? पहले साल के उसके हर त्योहार को ससुरालवालों ने बहुत ही ज़ोर-शोर से मनाया था. मायकेवालों ने भी नेग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. सासू मां तो बकायदा नाइनों को बुलाकर सारे रिवाज़ पूरे करती थीं. हमेशा कहतीं, “मेरी तो तू ही एक बहू है. घर की इस परंपरा को तुझे ही आगे चलाना है. आधुनिक बनो, पर अपनी संस्कृति को कभी मत भूलना बेटी. यही हमारी सच्ची धरोहर है.”
यूं ही लगातार और बेमतलब चक्कर काटते-काटते जब सुगंधा ऊबने लगी, तो खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई. रेलिंग के सहारे खड़ी होकर वह बाहर पसरी हरियाली देखने लगी. बगीचे की हरी दूब और अनगिनत खिले हुए फूल, सामने खड़े ऊंचे पहाड़… बगीचे को संवारने में उसका बहुत हाथ है. शाम को अक्सर वह और शुभम यहां बैठकर चाय पीते हैं. आख़िर ऐसी ख़ूबसूरती किसे नहीं लुभाएगी!
खड़े-खड़े पांव दुखने लगे, तो वह बगीचे में रखी कुर्सी पर आकर बैठ गई. एक अनुशासित जीवन जीते लोग और शीशे की तरह चमकते घर और सड़कें. सब कुछ धुला-धुला, एकदम साफ़ और उन सबके साथ पसरी ख़ामोशी. आसपास कल-कल बहते झरने, पेड़-पौधे और सारी आधुनिक सुख-सुविधाएं. इनके अतिरिक्त जीवन में और किस चीज़ की चाह हो सकती है?
लेकिन सुगंधा फिर भी उदास है. खुलेपन के माहौल में भी अकेलेपन ने उसे जकड़ रखा है. दिल्ली की भीड़भाड़, शोरगुल और इधर-उधर फैली चीज़ों की अस्त-व्यस्तता उसे रह-रहकर याद आती है, पर यहां टोरेंटो में तो बहुत सलीके से जीना होता है. थोड़ी भी भूल हुई नहीं कि लोग घूरकर देखने लगते हैं. मुंह पर एक प्लास्टिक स्माइल लेकर सधे कदमों से चलते हुए सड़कों पर चलना होता है. जब उसको पता लगा था कि शुभम को एक प्रोजेक्ट पर काम करने के सिलसिले में चार साल के लिए टोरेंटो जाने का मौक़ा मिला है, तो वह खिल उठी थी. विवाह हुए एक साल ही हुआ था और ऐसा मौक़ा हाथ आ गया था. जब शुभम ने बताया कि यह अवधि बढ़ भी सकती है, तो उसने न जाने कितने सपने देख डाले थे. यहां उनके पास कंपनी की तरफ़ से मिला आलीशान मकान था, गाड़ी थी और मनचाहा करने की छूट भी. सबसे ज़्यादा ख़ुशी सुगंधा को यह जानकर हुई थी कि उनके पड़ोस में भी एक भारतीय दंपति रहते हैं. नीला आंटी और उनके पति बरसों से यहीं सेटल थे. उनकी संतान नहीं थी. दोनों अपनी-अपनी दुनिया में मस्त थे. यहां तक कि एक-दूसरे से भी ज़्यादा बात नहीं करते थे.
घर को सजाते और शॉपिंग करते-करते कब दो महीने बीत गए, पता ही नहीं चला. शुभम अपने काम में व्यस्त हो गया और सुगंधा को धीरे-धीरे अकेलापन महसूस होने लगा. नीला आंटी से घनिष्ठता बढ़ानी चाही, तो पता चला कि उन्हें किसी से
घुलना-मिलना पसंद नहीं है. उन्हें देखकर लगता कि किसी गहरी उदासी की परत ने उन्हें घेर रखा है. बरसों से विदेश में रहने के कारण शायद डिफरेंट एटटीयूड बन जाना स्वाभाविक होता है.
भारतीयों की तरह बहुत ज़्यादा घनिष्ठता कायम करना विदेशियों का न तो स्वभाव होता है, न ही ये उनकी परंपरा का हिस्सा है. हालांकि वे तो भारतीय ही थे. फिर भी बरसों से यहां रहने के कारण उन पर भी विदेशी संस्कृति का रंग चढ़ गया था.
“कब से यहां बैठी हो? इतनी ठंड में कमर अकड़ जाएगी.” शुभम की आवाज़ सुन सुगंधा अपनी उदासीनता से बाहर आई. अंधेरा होने का उसे आभास भी नहीं हुआ था. फुरफुरी-सी दौड़ गई बदन में. अंदर जाकर हीटर के सामने बैठ गई.
“जल्दी से खाना लगा दो. बहुत भूख लगी है.” शुभम ने कहा, तो ध्यान आया, आज तो उसने खाना भी नहीं बनाया है.
अपने आपको कोसा उसने. फटाफट किचन में जाकर डिब्बाबंद खाने का उपयोग किया. कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती, पर आज काम आ गए. बस यहां उसे इसी बात की तसल्ली है कि शुभम में परिवर्तन नहीं आया है. यहां आकर भी उसमें कोई बुरी आदत नहीं पड़ी, वरना आने से पहले सबने चेताया था कि उस पर कड़ी नज़र रखना, कहीं शराब और गोरी मेमों का जादू न चल जाए. खाना खाते हुए भी वह बहुत ख़ामोश थी.
“आज क्या हो गया है तुम्हें? यहां तो सास-ननद भी नहीं हैं, जिनसे कहा-सुनी हो गई हो?” शुभम ने चुटकी ली.
“यहां के अकेलेपन से तो बेहतर है उनकी डांट. कम से कम किसी के अपने आसपास होने का एहसास तो बना रहता है. यहां तो कितने निर्जीव से लोग हैं. काम है तो बात करेंगे. अपनी नीला आंटी को ही देखो न, भारतीयता की कोई महक तक उनके पास से नहीं आती. सोचा था पराए देश में उनके साथ अपने मन की बात बांट लूंगी, पर वह तो सौ ताले लगाकर बैठी रहती हैं. उनके घर जाने तक का दिल नहीं करता.” सुगंधा रुआंसी हो उठी थी.
“यहां के माहौल के साथ सामंजस्य बिठाने के लिए तो मैं तुमसे नहीं कहूंगा, पर कुछ तो यहां के हिसाब से चलना ही होगा. तुम कोई नौकरी कर लो. इससे समय कट जाएगा और अकेलापन नहीं खलेगा. कहो तो दो से तीन होने के प्रयास में जुट जाते हैं. मैं तो सोच रहा था भारत लौटने पर ही ऐसा करेंगे, पर चाहो तो…” शुभम मुस्कुराया. “मैं नौकरी ही कर लेती हूं. यहां अकेले तीसरे का आगमन मैं नहीं कर पाऊंगी.” शुभम की आंखों में शरारत देख सुगंधा शरमा गई थी.
सुगंधा को बहुत जल्दी ही एक दुकान में अकांउट्स अफसर की नौकरी मिल गई. गणित और लेखा-जोखा करने में उसकी विद्वता और गणित में उसकी बीए की डिग्री दोनों काम आए.
व्यस्तता के बीच हालांकि वह बोझिलता की संकरी पगडंडियों से निकल आई थी, पर हर तीज-त्योहार पर उसे घर की याद आ जाती. “इतना संवेदनशील होना भी अच्छी बात नहीं है.” शुभम ने बहुत बार उसे समझाया था. पर संस्कारों की गांठ भी भला इतनी जल्दी खुलती है.
वह विदेशी संस्कृति को समझ ही नहीं पा रही थी. आख़िर क्यों ये लोग इतने तटस्थ रहते हैं? पहले साल के उसके हर त्योहार को ससुरालवालों ने बहुत ही ज़ोर-शोर से मनाया था. मायकेवालों ने भी नेग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. सासू मां तो बकायदा नाइनों को बुलाकर सारे रिवाज़ पूरे करती थीं. हमेशा कहतीं, “मेरी तो तू ही एक बहू है. घर की इस परंपरा को तुझे ही आगे चलाना है. आधुनिक बनो, पर अपनी संस्कृति को कभी मत भूलना बेटी. यही हमारी सच्ची धरोहर है. ये जो हम लोग त्योहारों में लोगों से मिलते हैं,
रीति-रिवाज़ निभाते हैं, इनसे घनिष्ठता बढ़ती है. लगाव पैदा होता है, तभी तो मुसीबत में सब एकजुट हो जाते हैं. आजकल की पीढ़ी को बेशक ये अच्छा न लगे, पर इन
छोटी-छोटी बातों में सुख बहुत मिलता है.”
सुगंधा को इन दिनों सासू मां की बातें बहुत याद आने लगी थीं. असल में जैसे-जैसे करवा चौथ नज़दीक आता जा रहा था, वैसे-वैसे उसका मन पहले करवा चौथ को याद करने लगता. शादी के बाद का पहला व्रत था और मां और सास दोनों ने ही कितनी तैयारियां कर डाली थीं. मां ने एक दिन पहले ही सिंधारा भेज दिया था.
सुबह चार बजे उठकर सरगी खाकर वह सो गई थी. शादी के लहंगा और गहनों से सजी वह दुल्हन-सी सारे दिन यहां-वहां घूमती रही थी. रसोई में सासू मां ने घुसने ही नहीं दिया था. चांद देखने के बाद शुभम के पानी पिलाकर व्रत तोड़ने के बाद हर किसी ने कितने प्यार से उसे एक-एक कौर खिलाया था. सुगंधा की आंखें भर आईं. इस बार कौन उसके नाज-नखरे उठाएगा और अकेले व्रत रखना बड़ा कठिन काम लगता है. पूजा अकेले करना, सब कितना सूना लगेगा. वहां तो हंसी-मज़ाक के बीच कैसे समय निकल गया था पता ही नहीं चला था. यहां तो पता नहीं शुभम भी उस दिन घर पर रह पाएंगे कि नहीं.
अचानक नीला आंटी का ख़्याल आया सुगंधा को. वह भी तो करवा चौथ का व्रत रखती होंगी. उन्हीं के साथ पूजा कर लेगी. वह लाख उदासीनता दिखाएं, पर हैं तो मां जैसी. अगर उनसे कहेगी तो क्या वह सरगी देने से मना कर देंगी. वह भी बायना निकालकर उन्हें ही देगी. हल्कापन महसूस किया उसने. करवा चौथ में दो ही दिन बाकी थे. बहुत हिम्मत जुटा उसने इतवार के दिन नीला आंटी के घर की बेल बजा दी.
“आप? बैठिए, मैडम को बुलाती हूं.” उनकी मेड ने कहा.
“तुम? इतनी सुबह कोई खास काम था?” बहुत ठंडा स्वर था नीला आंटी का. मानो उसका आना उन्हें नागवार गुज़रा हो. ऐसी भी क्या औपचारिकता कि प्यार की एक लहर तक न छू सके उनके शब्दों को. सुगंधा को अपने आप पर झुंझलाहट हुई. क्यों चली आई वह. उनका रूखा व्यवहार उसे अपने मन की बात कहने से रोक रहा था.
“कोई काम था?” इस बार लहजे में थोड़ी गर्माहट महसूस हुई. हौसला बढ़ा उसका.
“काम तो नहीं, पर हां…” कहते-कहते रुक गई. दरवाज़े पर उनके पति खड़े थे. पहली बार देखा था उन्हें उसने. “मेहमान है क्या?”
“तुमसे मतलब?” नीला आंटी के स्वर में कड़वाहट थी.
सुगंधा को उनका व्यवहार बहुत अटपटा लगा.
“मैं चलती हूं आंटी, फिर आ जाऊंगी.”
“अब आई हो, तो बात कहो, नाहक फिर समय ख़राब होगा.” सपाट-सा आदेश था.
“दो दिन बाद करवा चौथ है. यहां मेरा और कोई नहीं है. मैं तो ठीक से सारी पूजा भी करना नहीं जानती हूं. मैं सोच रही थी कि अगर आप उस दिन मुझे कहानी सुना दें, तो मुझे अच्छा लगेगा.” “सब बकवास है यह. मैंने तो व्रत रखना कब से छोड़ दिया है. ज़रूरत भी क्या है इसे रखने की. मैंने सारी ज़िंदगी तुम्हारे अंकल की सेवा करने में गुज़ार दी और मुझे क्या मिला. दिन-रात की दुत्कार…” अचानक जैसे उनके भीतर जमा लावा बहने को आतुर हो उठा, पर फिर वह एकदम सतर्क हो गईं.
“ऐ लड़की, तुम जाओ यहां से. मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती.”
“रुको बेटी…” बड़े से गलियारे को पार करने ही लगी थी सुगंधा कि एक आवाज़ ने उसे रोका. अंकल थे. आंखों में ढेर सारा प्यार था और चेहरे पर दयनीयता.
“इसकी बातों का बुरा मत मानना बेटी. यह पहले ऐसी नहीं थी. मैंने इसे बहुत दुख दिए हैं, इसीलिए इसके भीतर इतनी कड़वाहट भर गई है. असल में यहां आकर मैंने एक अंग्रेज़ औरत से दूसरी शादी कर ली थी. इसे मैंने हमारी संतान को गिराने पर मजबूर कर दिया था. तभी से यह ऐसी चिड़चिड़ी हो गई है. उस औरत ने तो मुझे कभी का छोड़ दिया है, पर यह मुझे आज तक माफ़ नहीं कर पाई है. तुम कोशिश करो, तो शायद लावा बह जाए.” अवाक रह गई थी सुगंधा सब
बातें सुनकर.
वह एक बार फिर कोशिश करने को तैयार थी. अपने अकेलेपन और उदासी को तो जैसे वह भूल गई थी. दिल्ली से रात को फोन आ गया था और सासू मां ने हज़ारों आशीषों के साथ तमाम हिदायतें भी दी थीं पूजा करने की.
करवा चौथ वाले दिन सुबह-सुबह श्रृंगार करके और बैंगनी रंग की भारी साड़ी पहन सुगंधा फिर नीला आंटी के सामने जा खड़ी हुई. कलाइयों में ढेर सारी कांच की चूड़ियां, पांवों में आलता, मांग टीके से लेकर पायल. पूरा शरीर आभूषणों से लक-दक कर रहा था. पल भर उसे देखती रह गईं नीला आंटी. ओह कितनी प्यारी लग रही है बच्ची. उनका भी मन सजने को हो आया.
“क्यों आई हो? तुमसे कहा था न मैं कोई त्योहार नहीं मनाती, ख़ासकर करवा चौथ.” रुखाई के बावजूद स्वर में उस दिन की तरह ठंडापन नहीं था, बल्कि आंखों में नमी थी.
“वैसे ही आंटी. आप तो मेरी मां समान हैं. बड़ों का आशीर्वाद तो हर समय चाहिए होता है. व्रत न रखें, पर पूजा तो कर सकते हैं हम साथ मिलकर. आंटी मैं आपसे बहुत छोटी हूं, पर एक बात कहूंगी कि अगर कोई सच्चे मन से अपनी ग़लती स्वीकार ले, तो उसे माफ़ कर देना चाहिए. यही हमारी भारतीय संस्कृति भी सिखाती है.”
“तुम जाओ…”
दिनभर शुभम सुगंधा के साथ रहा, इसलिए अकेलापन महसूस नहीं हुआ. अकेले ही उसने पूजा की. चांद निकला तो बड़े उत्साह और ख़ुशी के साथ वह आरती का थाल ले जैसे ही बाहर निकली, तो हैरान रह गई. सितारोंवाली नीले रंग की साड़ी में सजी, आरती का थाल थामे नीला आंटी खड़ी थीं. हल्के मेकअप और कुंदन का सेट पहनने से उनका रूप ही बदल गया था. हमेशा तो उसने उन्हें जींस पहने देखा था.
अंकल ने जब नीला आंटी को पानी पिलाया, तो बरसों से जमे उनके आंसू बह निकले. सुगंधा और शुभम उस युगल को एक-दूसरे के सीने से लगे देख ख़ुशी से सराबोर हो उठे.
सुगंधा को लगा कि पराए देश में अपने न होते हुए भी अपनों को मिलाते देखने से बेहतर करवा चौथ कौन-सा हो सकता है. पति-पत्नी के बीच जो विश्वास का सेतु टूट गया था, उसे फिर से जुड़ते देख चांद भी मुस्करा रहा था.
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