"आपको डर नहीं लगता रंजनजी के फिर से बहक जाने का?" माला ने डरते-डरते पूछा था.
"अब इस उम्र में इंसान बहककर भी कहां जाएगा? घूम-फिर कर आकर तो खूंटे से ही बंधना है."
"इतना सब्र?" माला हैरानी से पलकें झपकाने लगती.
"सब्र और सच्चाई ऐसी सवारी है, जो अपने सवार को कभी गिरने नहीं देती. न किसी के कदमों में, न अपनी नज़रों में." संजना ने गहरी सांस ली थी.
बगीचे में शाम की सैर के समय एक उम्रदराज़ दंपति को प्रगाढ़ता से एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले घूमते देख माला से रहा नहीं गया. "देखिए दीदी लोग इस उम्र में भी दिखावे से बाज नहीं आते."
संजना माला के कटाक्ष से अप्रतिभ बनी रही.
"जो अंदर होता है वही तो बाहर दिखता है."
माला अभी भी असहमत बनी रही.
"आपका क्या मतलब है? आप और रंजनजी सार्वजनिक रूप से शिष्टता बरतते हुए परस्पर दूरी बनाए रखते हैं, तो मतलब आप दोनों में प्यार नहीं है?"
"हां, ऐसा ही कुछ…"
"आप मज़ाक कर रही हैं?"
"ठीक है, वैसा समझ लो."
उस दिन तो बात आई गई हो गई, लेकिन जल्दी ही माला को संजना दीदी की बात की सच्चाई पता चल गई थी. जब संजना दीदी ने किन्हीं आत्मीय क्षणों में अपने दिल का दर्द माला के सामने उड़ेल डाला था.
"रंजन को अपने दोस्त की बहन वर्षा बहुत पसंद थी. लेकिन जानते थे कि उनका रूढ़िवादी परिवार इस विजातीय विवाह के लिए कदापि तैयार नहीं होगा. इसलिए उन्होंने मुझसे विवाह की स्वीकृति भी दे दी और पहली ही मुलाक़ात में सारा भेद भी उगल दिया."
"क्या! आपको सब कुछ शादी के पहले से पता था? फिर भी आप मान गईं?" माला हैरान थी.
"अब रंजन को तो किसी न किसी की ज़िंदगी बरबाद करनी ही थी. तो मैंने सोचा मैं ही क्यों नहीं?" संजना दीदी एकबारगी तो खिलखिला उठीं, पर फिर तुरंत गंभीर हो गईं.
"कम से कम छोटी-छोटी बहनों की शादी का तो रास्ता साफ़ होगा. पापा को भी थोड़ी राहत मिलेगी. बिन मां की बच्चियों को संभालते-संभालते वे भी वक़्त से पहले ही बूढ़े होने लगे थे." यह सब बताते-बताते संजना दीदी का सांवला चेहरा और भी बेरौनक़ हो उठा था. माला का दिल गहरी सहानुभूति से भर उठा था. संजना दीदी से उसकी अंतरंगता और भी बढ़ गई थी. वैसे भी तनय के लौेटने में अभी 4 महीने का वक़्त और था. इन दिनों वह अपने शोधकार्य को पूरा करने में कुछ ज़्यादा ही व्यस्त हो रहा था, इसलिए माला से भी लंबे समय तक बात नहीं हो पा रही थी. यदि कभी माला ही आगे बढ़कर फोन कर देती, तो वह झुंझला उठता था और समय मिलने पर ख़ुद ही फोन कर लेने की ताकीद भी दे देता था. उदास माला को ऐसे वक़्त में संजना दीदी का साथ बहुत भाता था.
बड़े होते बच्चे तो वैसे भी अपने में मगन हो जाते हैं. वे दोनों या तो टीवी में रम जातीं या रसोई में जुट जातीं या फिर ताश ही खेलने लग जातीं. और ऐसे मौक़ों पर यदि रंजनजी भी आ जुटते तो सोने में सुहागा वाली स्थिति हो जाती. उनकी लतीफ़ों और शायरी पर गहरी पकड़ से माला प्रभावित थी. उस पर माला की तारीफ़ करने का उनका अनोखा अंदाज़, मसलन- ‘दिल से निकली बातें दिल को छू जाती हैं. कुछ लोग मिलकर बदल जाते हैं, तो कुछ लोगों से मिलकर ज़िंदगी बदल जाती है…’ माला को अंदर तक गुदगुदा जाता. कई बार वह संजना दीदी से जिरह करने लगती, "मुझे तो लगता है रंजनजी को समझने में आपसे अवश्य ही कोई भूल हुई है. कितने अच्छे इंसान हेैं वे!" प्रत्युत्तर में दीदी बस मुस्कुरा भर देती.
उस दिन ख़ूब अच्छी बरसात हो रही थी. माला के पास संजना दीदी का फोन आया, "पकौड़े बना रही हूं तू भी आ जा." सुनते ही माला गाड़ी लेकर तुरंत निकल पड़ी थी. पांच मिनट में ही वह दीदी के साथ रसोई में थी. गर्म-गर्म पकौड़े और रंजनजी का एक के बाद एक सावन का मस्ती भरा गीत… माला और संजना ने भी अपने सुर उसमें मिला दिए थे. तीनों मस्ती में ऐसे झूम रहे थे मानो पकौड़ों में भांग मिली हो.
"आपको तो ऐसे मौसम में तनयजी की बहुत याद आ रही होगी." रंजनजी ने माला को छेड़ा, तो माला भी चुप नहीं रह सकी.
"आपको भी तो इस वर्षा में अपनी वर्षा ख़ूब याद आ रही होगी." माला ने भी छेड़ा, तो रंजनजी चौंक उठे.
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संजना खिलखिला उठी, "क्यों पड़ गया न नहले पर दहला! उसे सब पता है." रंजनजी एकबारगी तो बुरी तरह झेंप गए, पर फिर खुलते चले गए. अब तो माला और संजना का यह सबसे प्रिय शग़ल हो गया था. जब भी मौक़ा मिलता वे वर्षा को लेकर रंजनजी की ख़ूब खिंचाई करतीं. और रंजनजी भी खुले दिल से इस दिल्लगी का मज़ा उठाते थे.
संजना बताती, "पता है माला, कभी-कभी रंजन बहुत उदास और तनाव में होते हैं, तो मैं किसी बहाने उनके सामने वर्षा का नाम भर ले लेती हूूं और इतने में ही उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है." हमेशा की तरह संजना ने बात समाप्ति के साथ ही खिलखिलाहट बिखेर दी थी. माला ने भी इस हंसी में उनका खुलकर साथ दिया.
पर माला को कभी-कभी अकेले में यह सोचकर बहुत हैरानी होती कि संजना दीदी अपने पति के प्रेम प्रसंग को इतने हल्के में कैसे ले पाती हैं?
इधर कई दिनों से वह यह भी नोटिस कर रही थी कि रंजनजी की उसमें दिलचस्पी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. माला ख़ुद में भी एक परिवर्तन-सा महसूस कर रही थी. वह अपने बनाव सिंगार के प्रति अधिक सजग हो गई थी. उसका प्रयास रहता कि जब रंजनजी घर में हों, तभी वह संजना दीदी से मिलने जाए. ताकि इस बहाने उनसे भी मुलाक़ात हो जाए. उसे संजना दीदी से भी ज़्यादा रंजनजी के साथ वक़्त गुज़ारना, बातें करना अच्छा लगने लगा था. वह इस मोह आकर्षण से निकलना चाहती थी. लेकिन जितना वह इसके लिए प्रयास करती रंजनजी का चुंबकीय व्यक्तित्व उसे उतना ही अपनी ओर खींच लेता. ऐसे में जब तनय ने फोन पर सूचित किया कि उसे अभी काम समाप्त कर लौटने में 2 माह और लग जाएगें, तो माला ने राहत की सांस ली थी.
कितने आश्चर्य की बात थी कहां पहले तनय की जुदाई में उसका एक एक पल मुश्किल से कट रहा था और कहां अब उसकी जुदाई उसे राहत का एहसास दे रही थी. माला को अब एक नई चिंता ने डसना शुरू कर दिया था. दो माह बाद ही सही तनय घर तो लौटेगा ही. क्या उसकी नज़रों से यह सब छुप सकेगा? तब उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? तनय कोई संजना दीदी तो है नहीं, जो सब कुछ आंखों के सामने घटता देखकर भी आंखें मूंदे रहे. संजना दीदी ने बताया था कि कई बार जब वे अपने शहर जाते हैं और वर्षा मायके आई हुई होती है, तो उससे भी मुलाक़ात हो ही जाती है.
"फिर ऐसे अवसरों पर आप क्या करती हैं?" माला ने उत्सुकता से पूछा था.
"कुछ नहीं. वे लोग बातें करते रहते हैं मैं तब तक चाय-कॉफी बना लाती हूं."
"आपको डर नहीं लगता रंजनजी के फिर से बहक जाने का?" माला ने डरते-डरते पूछा था.
"अब इस उम्र में इंसान बहककर भी कहां जाएगा? घूम-फिर कर आकर तो खूंटे से ही बंधना है."
"इतना सब्र?" माला हैरानी से पलकें झपकाने लगती.
"सब्र और सच्चाई ऐसी सवारी है, जो अपने सवार को कभी गिरने नहीं देती. न किसी के कदमों में, न अपनी नज़रों में." संजना ने गहरी सांस ली थी.
"पर हां, कभी-कभी ख़ुद को क़ैदी-सा महसूस करती हूं."
"आप भला कहां क़ैद हैं?" माला ने आश्चर्य से पूछा था. प्रत्युत्तर में संजना उसे छत पर ले गई थी और ढेर-सा दाना बिखेर दिया था. पलक झपकते ही लगभग 20-22 चिड़ियां वहां आकर दाना चुगने लगी थीं.
"ये सब मेरी पालतू हैं, मेरी क़ैदी. सिर्फ़ सलाखों के पीछे रहनेवाले पालतू और क़ैदी नहीं होते."
"लेकिन आप किस दाने के लालच में क़ैद हैं?"
"किसी भी लालच में नहीं. एक औरत तो वह बैंक होती है, जहां उसका परिवार अपना सारा ग़ुस्सा, सारी चिंताएं, सारे अवसाद जमा करता रहता है और औरत ताउम्र अपने परिवार को जोड़े रखने के लिए सीमेंट बनी रहती है."
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संजना दीदी की सोच पर माला को तरस आता. यदि तनय उसके साथ ऐसा करे तो? सोचकर ही माला सिहर उठी थी. तनय का व्यवहार आजकल उसकी समझ से बाहर होता जा रहा था. उसे मानो अपने देश, अपने बीवी-बच्चों के पास लौटने में कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गई थी. अब भी मानो वह बेमन से ही लौट रहा था. कहीं तनय का वहां किसी से… नहीं! ऐसा नहीं हो सकता… पर क्यों नहीं हो सकता? यदि वह तनय की लंबी अनुपस्थिति में किसी से दिल लगा सकती है, तो तनय क्यों नहीं? और जो तनय ने उसकी चोरी पकड़ ली, तो फिर तो वह सीनाजोरी पर उतर आएगा.
माला जितना सोचती उतना ही परेशान हो उठती. उसे पहली बार संजना दीदी और रंजनजी के अपनी ज़िंदगी में आने का अफ़सोस हो रहा था. कितना शांत और सुखी गृहस्थ जीवन जी रही थी वह इन लोगों के आने से पहले. ऊहापोह से घिरी माला कई दिनों तक संजना दीदी के घर नहीं जा पाई. व्याकुल मन कई बार उधर कदम बढ़ाने के लिए मचलता पर माला जी कड़ा कर अपने बढ़ते कदम रोक लेती. वह जानती थी यदि वह वहां गई और रंजनजी से आमना-सामना हुआ, तो वह ख़ुद को उनके आकर्षण से नहीं बचा पाएगी. अपनी कमज़ोरी पर उसे समय रहते अंकुश लगाना ही होगा, वरना आकर्षण की इस आंधी में उसका गृहस्थ जीवन तिनके की भांति उड़ जाएगा. पर उसके बचा लेने से क्या होगा? तनय के बहके कदम… हे भगवान, न जाने उसकी ज़िंदगी में कैसा भयंकर तूफ़ान आनेवाला है?
"माला, कितने दिन हो गए तुम आई नहीं? अब तुरंत आ जाओ. एक महत्वपूर्ण ख़बर है अच्छी भी और बुरी भी… नहीं फोन पर कुछ नहीं बताऊंगी. तुम्हें ख़ुद आना होगा." संजना दीदी ने फोन रख दिया था. माला, "हेलो हेलो…" करती ही रह गई थी. पर फिर तुरंत तैयार होकर निकल पड़ी थी. जाने कैसी अच्छी और बुरी ख़बर है? भला एक ही ख़बर अच्छी और बुरी कैसे हो सकती है? पांच मिनट की दूरी भी माला को पांच जन्मों के बराबर प्रतीत हो रही थी. पहुंचते ही उसने संजना के दोनों हाथ थाम लिए थे.
"जल्दी बताइए, मुझसे सब्र नहीं हो रहा."
"रंजन का प्रमोशन हो गया है."
"ओे… वाह! यह तो बड़ी अच्छी ख़बर है. बुरी ख़बर क्या है?"
"प्रमोशन के साथ तबादला भी हुआ है. हमें यहां से जाना होगा."
माला के चेहरे पर एक के बाद एक रंग आ-जा रहे थे. रंजनजी और संजना दीदी चले जाएगें… वह उनके बिना कैसे रह पाएगी? विशेषतः रंजनजी के बिना? या फिर उनके चले जाने से उसकी गृहस्थी में आया तूफ़ान भी शांति से गुज़र जाएगा? यदि वाक़ई ऐसा होता है, तो यह उसके लिए ख़ुशी की ही ख़बर है. पर अभी इस वक़्त तो उसे उनके चले जाने के ख़्याल मात्र से ही रुलाई आ रही है. माला के मन की बेचैनी और अकुलाहट उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक आई थी.
"रंजन भी इस ख़बर से बहुत ज़्यादा उत्साहित नहीं है, बल्कि मुझे तो ख़ुश कम उदास ज़्यादा नज़र आ रहे हैं." संजना दीदी का स्वर न चाहते हुए भी थोड़ा कटु हो गया था. ऐसा माला ने महसूस किया.
"क… क्यों? उनका तो प्रमोशन हुआ है न?" माला को अपनी ही प्रतिवाद करती आवाज़ लड़खड़ाती और कमज़ोर पड़ती प्रतीत हो रही थी. उसने चोर निगाहों से संजना दीदी की आंखों में झांकना चाहा. उनकी भेदती निगाहों से उसके रहे सहे हौसले भी पस्त होने लगे. वह ख़ुद को एक पल के लिए बेहद असहाय महसूस करने लगी. पर फिर उसने तुरंत ख़ुद को संभाला.
माहौल को हल्का बनाने का प्रयास करने के ख़्याल से वह अचानक बोल पड़ी, "रंजनजी की उदासी दूर करने का तो आपके पास रामबाण नुस्ख़ा है न दीदी. बस वर्षा का नाम ले लीजिएगा. उनके चेहरे पर ख़ुद-ब-ख़ुद मुस्कुराहट छलक आएगी. क्यों?" माला ने ज़बरदस्ती हंसी बिखेरकर माहौल को हल्का करने का निष्फल प्रयास किया. क्योंकि संजना दीदी अभी भी गंभीर ही बनी हुई थीं. माला का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था.
"वो नुस्ख़ा तो कब का पुराना हो चुका माला. अब तो वह मुस्कुराहट लाने के लिए मुझे तुम्हारा नाम लेना होगा." बात समाप्त कर संजना दीदी खिलखिलाकर हंस पड़ी थीं. लेकिन माला आज चाहकर भी इस हंसी में उनका साथ नहीं दे पा रही थी. इस खोखली हंसी के पीछे छुपा दर्द वह बख़ूबी समझ चुकी थी.
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