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कहानी- डाॅक्टर्स भी आख़िर इंसान होते हैं… (Short Story- Doctors Bhi Aakhir Insan Hote Hai…)

'डाॅक्टर भगवान का दूसरा रूप होते हैं' ये कथन उतना ही सत्य है, जितना की उगता सूरज. इस महामारी में अपने जीवन की परवाह किए बिना वे सभी निस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा में लगे हैं. किंतु हम सभी भूल जाते हैं की डाॅक्टर भी इंसान होते है. संवेदनाएं और एहसास उनके भीतर भी होते हैं और परिवार… परिवार तो उनका भी होता है, जिसे वे भी दिलों-जान से प्रेम करते हैं, पर फिर भी वे हम सभी के लिए अपनी जान हथेली पर रख लड़े जा रहे हैं.

“मीनाक्षी… ओ मीनाक्षी… लो तुम यहां बालकनी में बैठी हो और मैं पूरे घर में ढूंढ़ रहा हूं तुम्हें." कॉफी का कप देते हुए मैं उससे बोला.
“क्या बात है? आज बहुत उदास लग रही हो. कुछ हुआ क्या?" एकदम शून्य में ताकते देख मैंने उससे पूछा.
“समीर, कभी सोचा न था की इतनी बेबसी और ऐसा वक़्त भी देखना पड़ेगा. चारों ओर हाहाकार मचा है… लोग तड़प रहे हैं… रोज़ सिर्फ़ ऐसे ही मैसेजेस आ रहे है, कोरोना के कारण कोई क्रिटिकल है, तो किसी का देहांत हो गया… और हम इंसानियत निभाते हुए वही रेस्ट इन पीस लिख हाथ जोड़नेवाली इमोजी भेज देते हैं.
कितनी तकलीफ़ होती है हमें ये करने में. हक़ीक़त तो हक़ीक़त, अब तो सोशल मीडिया पर भी बस यही छाया रहता है. इस महामारी ने तो तोड़ दिया हम सभी को. झकझोर कर रख दिया हमें. इसमें न जाने कितनों ने अपनों को खोया है. बस, बहुत हो गया… अब नहीं देखा जाता…”
“मीनाक्षी क्या हुआ? तुम तो बहुत साहसी हो. तुम्हारे दम पर ही तो हम कोरोनो से जंग लड़ रहे है. अचानक ऐसी बातें क्यूं? बहुत परेशान दिख रही हो.. क्या बात है?"
“पता है समीर, हमारे जो शुक्लाजी हैं ना वो और उनकी पत्नी दोनों ही आज सुबह कोरोना से अपने जीवन की जंग हार गए. दो-दो बेटियां है
उनकी, एक सत्रह साल की और दूसरी तेरह. दोनों बेचारी एक ही दिन में अनाथ हो गई. अब बताओ क्या होगा उनका, कैसे जिएंगी.. कौन पालेगा उन्हें?.. और हम कुछ नहीं कर सकते. बस, मूक दर्शक बन सब देखते जा रहे हैं…” भारी मन से रोती मीनाक्षी अपनी ही लय में बोले जा रही थी.
मुझे मीनाक्षी की बातों पर हैरानी हो रही थी, क्योंकि वो ख़ुद एक डॉक्टर है और वो भी कोविड स्पेशलिस्ट. एक वीरांगना की तरह वो भी कोरोना की युद्ध भूमि पर लड़ रही थी, निस्वार्थ इंसानियत की सेवा में लगी थी.


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वैसे हम सभी की मानसिकता होती है कि एक डॉक्टर तो हृदय से और मानसिक तौर पर अत्यंत कठोर होता है, तभी तो वो एक डॉक्टर बन पाता है. जीवन-मृत्यु तो एक डॉक्टर के लिए धूप-छांव जैसा नाता होता है. अपने जीवन काल में वे न जाने कितने ऐसे पलों का सामना करते हैं, जहां वे अत्यंत विवश भी होते है. न जाने कितनी मृत्यु और कितने नवीन जीवन के वे साक्षी होते हैं.
'डाॅक्टर भगवान का दूसरा रूप होते हैं' ये कथन उतना ही सत्य है, जितना की उगता सूरज. इस महामारी में अपने जीवन की परवाह किए बिना वे सभी निस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा में लगे हैं. किंतु हम सभी भूल जाते हैं की डाॅक्टर भी इंसान होते है. संवेदनाएं और एहसास उनके भीतर भी होते हैं और परिवार… परिवार तो उनका भी होता है, जिसे वे भी दिलों-जान से प्रेम करते हैं, पर फिर भी वे हम सभी के लिए अपनी जान हथेली पर रख लड़े जा रहे हैं.
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था ना-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
गीता के इस सिद्धांत को अपने हृदय में उतार कर सभी डाॅक्टर अपनी कर्मभूमि पर निस्वार्थ अपना कर्म किए जा रहे है, बिना किसी फल की अपेक्षा किए.
मन ही मन ये सब सोचते हुए मैं मीनाक्षी की बातों को ध्यान से सुन रहा था. मैं उसकी पीड़ा को क़रीब से महसूस कर रहा था.
ऐसे आपातकालीन समय में डाॅक्टर्स की कमी न हो, वे सुरक्षित भी रहें, इसका ध्यान रखते हुए सभी डाॅक्टर की ड्यूटी उनकी सुरक्षा को ध्यान में रख कर लगाई जाती है. इसलिए कुछ दिन क्वॉरंटीन होने के बाद बस तीन-चार दिनों के लिए ही मीनाक्षी घर आई थी. बच्चे भी तो उसे मिस कर रहे थे. वैसे तो उनकी दादी उनका पूरा ख़्याल रखती थीं, पर मां तो मां ही होती है, फिर चाहे एक डॉक्टर ही क्यूं ना हो. भई डाॅक्टर भी तो इंसान ही होते हैं. शरीर तो उनका भी थकता है. कोरोना के कारण तो उन पर शारीरिक से ज़्यादा मानसिक तनाव है. उस तनाव को दूर करने के लिए परिवार मिलन से अच्छा विकल्प कोई नहीं. कल उसे वापिस ड्यूटी जाॅइन करनी थी.
मैंने मीनाक्षी को इतना हारा हुआ, विवश पहले कभी नहीं देखा था. शुक्लाजी की मृत्यु ने उसे झकझोर दिया था. वे उसी के वार्ड में काम करते थे. मरीज़ों की देखभाल, उन्हें खाना देना, उनका बिस्तर साफ़ करना आदि सभी काम पूरी लगन के साथ करते थे. दिन हो या रात अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ निभाते थे. मरीज़ों की देखभाल करने में उन्हें कभी घिन्न नहीं आई और ना ही वे कभी उन पर झल्लाए. उनकी सेवा करना ही अपना धर्म समझते थे. एक सच्चे कर्मवीर थे वे.
“समीर, पता है इस समय एक डॉक्टर की मनोस्थिति का अनुमान लगाना भी नामुमकिन है. लोग हमें भगवान का दर्जा देते है. एक बार अपने परिजनों को हमारे हाथों में सौंप कर वे इतने निश्चिंत हो जाते हैं, मानो भगवान के सुपुर्द कर दिया. इस विश्वास के साथ कि उनके परिजन हर हाल में ठीक हो जाएंगे, किंतु हम… हम अपना सर्वश्रेष्ठ देकर भी कितनी बार मजबूर हो जाते है. पता है क्यूं… सिर्फ़ इस घिनौने, खोखले सिस्टम के कारण. हॉस्पिटल में कितने मरीज़ ऑक्सिजन के लिए लड़ रहे हैं, पर हॉस्पिटल में ऑक्सिजन नहीं है. क्यूंकि हॉस्पिटलवालों को सप्लाई नहीं मिल रही. यही हाल दवाइयों का भी है और हम बिना इलाज बेबस रोते हुए उन्हें मौत की गोद में समाते देख रहे होते है, क्योंकि हम कुछ कर ही नहीं सकते. एक गम्भीर कोविड मरीज़ को ऑक्सिजन की कितनी ज़रूरत होती है, अपनी ज़िंदगी की सांसों के लिए कितना तड़पता है, वो ये खोखला सिस्टम कभी नहीं समझ सकता. उसकी सांसों की डोर उस समय हमारे हाथों में नहीं, बल्कि उस ऑक्सिजन और दवाइयों के हाथों में होती है.
हम डाॅक्टर और सारे मेडिकल स्टाफ पंद्रह-पंद्रह घंटे पहन कर जब अपनी पी.पी.ई किट उतारते है, तो कुछ देर तो हम खुली सास लेते है. पसीने से लथपथ होता है हमारा शरीर और कितनी बार तो पी.पी.ई किट के कारण शरीर पर दर्दभरे लाल चकते भी पड़ जाते हैं. हमें ना खाने की फ़ुर्सत, ना सोने का समय… बस, हम दिन-रात मानवता की सेवा में अपना कर्म किए जा रहे हैं.
कैसा कलयुग आ गया है. इंसान ही इंसान का दुश्मन बन गया है. देखो ना, ये इंसानियत को गिद्ध की तरह नोंच कर खानेवाले ये घूसखोर, जो ऑक्सिजन और दवाइयां ऐसी आपात स्थिति में ऊंचे दामों पर बेच रहे है. पता हैं वो दवाई नहीं, बल्कि अपना ज़मीर बेच कर इनकी मजबूरी ख़रीद रहे है. कितने लोग उनके इस षडयंत्र का शिकार बन काल का ग्रास बन रहे हैं और ऐसे हाल में भी उन्हें सिर्फ़ पैसा कमाना है.
उफ़्फ़ समीर, अब और नहीं देखा जाता. थक गई हूं मैं अब. ऐसे कितने शुक्लाजी होंगे और उनके बच्चों की तरह न जाने कितने और बच्चे होंगे, जो अनाथ हो गए
होंगे. हम डाॅक्टर्स भले ही कितने मज़बूत और कठोर बन जाए, पर आख़िर हम डाॅक्टर्स भी तो इंसान ही हैं ना! एक कोमल हृदय, जज़्बात, संवेदनाएं तो हमारे पास भी हैं.
इंसान फिर भी इतना स्वार्थी है कि अगर उसके परिजन को कुछ हो जाए, तो डाॅक्टर्स को दोषी मान उन्हें कोसने में एक पल भी नहीं लगाता. वो एक बार भी ये नहीं सोचता कि उसके परिजन का जीवन बचाने के लिए हम अपनी जान की बाज़ी भी लगा देते है. लेकिन जीवन और मृत्यु तो ऊपर ईश्वर के हाथों में होती है. उफ़्फ़ कितना तकलीफ़देह होता है ये सुनना… ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने गर्म सीसा कानों में उड़ेल दिया हो…” आज मीनाक्षी अपना सारा हृदय खाली कर रही थी. न जाने कितने दिनों… नही महीनों का गुबार निकाल रही थी.


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वो बोले जा रही थी और मैं एक अच्छा श्रोता बना हुआ था. मैं चाहता था कि कल जब वो वापस हॉस्पिटल जॉइन करें, तो एकदम तरोताज़ा हो.
वो बोलते-बोलते मेरी गोद में सिर रख सो गई और मैं अपलक अपनी वीरांगना को निहार रहा था, जिसे वापस कल अपनी युद्ध भूमि पर जाना है. और ये भी तो पता नही कि वो वापस आएगी भी या नहीं. लेकिन कर्तव्य… कर्तव्य परिवार से कहीं ऊंचे स्थान पर विराजमान होता है.
उसकी बातें सुन मुझे परसों पार्क में हुई शर्माजी से अपनी मुलाक़ात याद आ गई. उनकी पत्नी भी इस निर्दय कोरोना का ग्रास बन गई थी. उन्होंने भरसक प्रयत्न कर अपनी पत्नी को हॉस्पिटल में एडमिट करवाया था. उन्हें सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी. हॉस्पिटल में शायद ऑक्सिजन की कमी थी. इधर-उधर, हर तरफ़ हाथ-पैर मारे. उनको बचाने का हर सम्भव प्रयत्न किया. शायद उनका आयु कर्म पूर्ण हो गया था, इसलिए हालात भी सभी उनके विपरीत होते गए और वे स्वर्ग सिधार गई. लेकिन शर्माजी ने उनकी मृत्यु का पूरा दोष का डाॅक्टर्स के सिर पर फोड़ दिया. न जाने क्या-क्या नहीं कहा उन्हें. कितना कोसा था डाॅक्टर्स को, पर अगर शर्माजी मीनाक्षी की ये दर्द भरी दास्तान सुनते, तो डाॅक्टर्स की पीड़ा समझते. वे समझते कि माना डाॅक्टर्स भगवान का रूप होते हैं, पर सिर्फ़ रूप होते है… होते तो आख़िर वे भी इंसान ही हैं. जीवन-मृत्यु की डोर तो ईश्वर के हाथो में होती है. डाॅक्टर्स तो सिर्फ़ निमित होते हैं.
अगली सुबह मीनाक्षी के लिए एक नई किरण लेकर आया था. वो पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी जंग लड़ने के लिए तैयार हो गई. हमने उसे पूरे गर्व और इस उम्मीद के साथ विदा किया कि वो ये कोरोना युद्ध पर अपनी जीत का परचम लहराएगी.
वो चली गई और मुझ लेखक को एक नई कहानी लिखने के लिए प्रेरित कर गईं- डाॅक्टर्स भी आख़िर इंसान होते हैं…

कीर्ति जैन

कीर्ति जैन

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