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कहानी- एक आदमी की कहानी (Short Story- Ek Aadmi Ki Kahani)

मैं अकारण ही स्वयं को हेय समझने लगा और अधिकांश पलायनवादी पुरुषों की भांति मदिरा सेवन करने लगा. जितना वह मुझे समझाने का प्रयत्न करती, मुझे सुपथ पर चलने को प्रेरित करती, उतना ही में जान- बूझकर फिसलता जाता. उसकी नाकामी ही मेरी विजय थी. उसे उदास, परास्त देख मुझे सहानुभूति होती. अच्छा सा लगता.

आप कहेंगे कहानी तो आदमी, औरत की ही होती है, इसमें नया क्या है? सच, इसमें नया कुछ नहीं है. वही सब पुराना है, जो वर्षों से होता आया है, हो रहा है.

तब हम दोनों समान धरातल पर खड़े थे. प्रथम दृष्टि में वह नितान्त साधारण अथवा किंचित हेय लगी थी. अथवा मैंने ही स्वयं का मूल्यांकन कुछ अधिक कर लिया होगा. ठीक-ठीक बता नहीं सकता, पर सब कुछ बहुत साधारण लगा था, जैसे अन्य बहुत से लोग विवाह करते हैं, गृहस्थों के छोटे-छोटे सुखों से भरपूर जीवन जीते हैं, वैसे ही समान्य सुखों की आशा से मैंने उसे स्वीकारा था. कुछ आदर्शवादी ढोंग भी रचा था दहेज न ले कर, पर मेरा सारा आंदर्श रेत की दीवार सिद्ध हुआ और शनैः शनैः मेरे पैर के नीचे की ज़मीन धंसने लगी.

बहुत शीघ्र ही मुझे आभास हो गया कि कुछ ग़लत घट गया है. वह मेरे घर-आंगन में समा नहीं पा रही थी. वह साधारण युवती, देखते ही देखते असाधारण प्रतीत होने लगी. उसका व्यक्तित्व निखरता गया. उसका अभिजात्य मुझे आतंकित करने लगा.

उसके बोलचाल, सोच-विचार, क्रियाकलाप की मौलिक गरिमा उसे सामान्य से अलग रखती. उसकी विलक्षण बुद्धि के समक्ष बौनेपन का एहसास मुझे प्रारम्भ से ही होने लगा था. कई बार मेरे मन में विचार आता कि मैं उसके योग्य पुरुष नहीं हूं. कभी विचारता कि मैं स्वयं उसका विवाह उसके योग्य व्यक्ति से कराके समाज के सामने एक अनोखा दृष्टांत पेश करूं. संभवतः मेरे इन विचारों के पीछे मेरी थोथी आदर्शवादिता व स्वयं को श्रेष्ठ समझने का दंभ ही रहा होगा.

वह रुष्ट होती, मेरे हास्यास्पद विचारों पर खीजती और हर प्रकार से आश्वस्त करने का प्रयास करती कि वह मेरे साथ अत्यधिक प्रसन्न है. मैं जानता था कि यह प्रसन्नता स्थायी नहीं है. यदि वह नहीं हो, स्वयं मैं प्रसन्न नहीं रह सकूंगा.

फिर मैंने उसे लांघने का प्रयत्न किया असफल रहा. कुटिलता पर उतरा, प्रेम की चाशनी में भीगी कैंची से उसके पंख कतरना आरम्भ किया. एम.एस. सी. की परीक्षा प्रारम्भ होने वाली ही थी, जब मैंने उसे अपनी बीमारी का झूठा तार भेजा. वह पतिपरायण स्त्री की भांति अपने भविष्य पर ठोकर मार कर मेरी सेवा में उपस्थित हो गई.

यह मेरी प्रथम विजय थी. मैं अब तक अपनी क्षमता आंक चुका था. एम.एस सी. पूर्ण करते ही, उच्च प्राप्तांकों के आधार पर नौकरी उसके लिए, समस्या न थी यह सुनिश्चित था कि वह मुझसे अधिक वेतन वाली नौकरी जुटा लेगी. अतः नौकरी में होने वाले नारी-शोषण व भ्रष्टाचार

का मैंने ऐसा वीभत्स चित्र खींचा कि उसके हृदय से नौकरी का विचार तक धो-पोंछ डाला. मुझे भलीभांति ज्ञात था कि वैचारिक, सामाजिक स्तर पर में उसे पराजित नहीं कर सकता, अतः आर्थिक स्तर पर उसे स्वयं पर अवलम्बित पा कर मेरा अहं सन्तुष्ट होता.

मेरी खीझ का दूसरा कारण उसका सात्विक सौन्दर्य ही था. वह दिनोंदिन सुन्दर होती जाती थी. सामान्य सूती साड़ी में उसका सौन्दर्य फूट पड़ता. स्निग्ध लुनाई उसके लावण्य में मधु घोल देती. उम्र मानो उसके बाल से गुज़र रही थी. विवाह के बारह वर्ष पश्चात भी वह नवविवाहित सी आकर्षक थी.

जहां समय के मकड़जाल ने मेरे मुख पर रेखाएं बुन दी थीं, वहीं वक़्त की धूप-छांव ने उस टिड्डी सी छोकरी में ऐसा सात्विक सौन्दर्य परोस दिया था, जो सहज सम्मान का अधिकारी था. आत्मविश्वास से भरपूर उसका मुखमंडल अलौकिक तेज़ से चमका करता. बुद्धि प्रदीप्त माथा, उन्नत नासिका, गर्वोन्नत ग्रीवा मानो हर समय उपहास की मुद्रा में तनी रहतीं. जो कल तक निरुपाय व सहज प्राप्य थी, आज अचानक अलभ्य प्रतीत होती. मानो उसके हृदय तक मेरी पहुंच ही न रही. उसकी प्रदीप्त विहंसती आंखें मानो मेरा तिरस्कार करतीं. उसका आत्मसमर्पण, विनय, स्नेह सब मुझे ढोंग लगता.

मैं अकारण ही स्वयं को हेय समझने लगा और अधिकांश पलायनवादी पुरुषों की भांति मदिरा सेवन करने लगा. जितना वह मुझे समझाने का प्रयत्न करती, मुझे सुपथ पर चलने को प्रेरित करती, उतना ही में जान- बूझकर फिसलता जाता. उसकी नाकामी ही मेरी विजय थी. उसे उदास, परास्त देख मुझे सहानुभूति होती. अच्छा सा लगता.

वह बांझ होती, बेटियां जनती तो मुझे दोषारोपण करने का अवसर मिलता. उसके पुरावों को अपशब्द कह कर मेरा आहत मानस कुछ ठंडा पड़ता. पर उसने तो मुझे दो सुन्दर बेटों का पिता बनाया और समाज की दृष्टि में कृतार्थ किया था. मैं किसी प्रकार उसे प्रताड़ित करके अपने लिए सुख के चन्द कतरे बटोर पाता?

जब तब मैं उसके बच्चों की छोटी-मोटी ग़लतियों पर बड़ा बवंडर खड़ा करता. बार-बार, 'तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे लड़के' कह कर उसे आहत करता. एक-दो बार वह आहत भी हुई. सामान्य स्त्री की भांति प्रतिकार भी किया. मान भरे शब्दों में कहा, "बच्चों की शिकायत मुझसे क्यों करते हैं? स्वयं ही समझाइए. क्या आपके बच्चे नहीं हैं." उसके आहत स्वाभिमान ने मुझे इस हद तक आनन्दित किया कि मैं निम्न स्तर तक क्रूर हो उठा, बोला, "क्या पता ?"

इन दो शब्दों का मर्म वह भलीभांति समझ गई.

"अपने लड़कों से कहो, शोर न करें." मैं उससे कहता.

"बच्चों, जा कर बाहर खेलो. पापा को तंग न करो." वह शान्त स्वर में कहती और जिस ठंडी दृष्टि से मुझे देखती, वह और भी 'बेचारा' बना डालती.

कोई भी मेरा दुख नहीं समझ पाता. वह सभ्य, शालीन, सुसंस्कृत बनी सबके सम्मान की अधिकारिणी, मानो मेरा उपहास करती. अड़ोस-पड़ोस, मित्र संबंधी सब उसकी प्रशंसा करते और मैं आहत होता. सीढ़ी ऊपर चढ़ने के प्रयास में मैं फिसलता ही जा रहा था. उसके बनाएं प्रभामंडल में और सब कुछ था, पर मेरी प्रतिष्ठा न थी.

उसका रोना, बिसूरना मुझे संतोष देते, पर उसका समस्त रुदन कहानी-कविताओं तक ही सीमित था. भ्रष्टाचार का भय दिखा कर मैंने उसे नौकरी से तो विमुख कर लिया था, पर उसकी प्रतिभा कब तक ऐसे रहती. वह लिखने लगी, छपने लगी, प्रशंसित होने लगी.

मेरा वश चलता तो मैं उस संपादक का गला दबा देता, जो उसकी कविताएं प्रकाशित करता है, पर मेरे वश में अब कुछ न रहा. मैं निम्न स्तर की कुटिलता पर उतर आता. डाक में डालने के बहाने रचनाएं फाड़ डालता. मनीऑर्डर से आई रॉयल्टी के रुपए हड़प लेता, पर वह निर्विकार भाव से लिखती रही. मुझे घृणा होती है उसके ढोंग पर. वह प्रतिकार क्यों नहीं करती. मुझे खलनायक बना डाला है साली ने, एक फाश गाली मुंह से निकलती है. लगता है, आज कुछ ज़्यादा चढ़ गई है.

उसकी छपी रचना देख मुझे ही सबसे अधिक प्रसन्नता होती है. मित्र-सहयोगियों का वह कथित बुद्धिजीवी वर्ग, जो पैसा ख़र्च करने पर भी प्रभावित नहीं होता, उसके नाम से ही प्रभावित हो जाता है.

कभी-कभी मेरे मन में विचार आता कि 'उसके' बेटे ही आवारा निकल जाएं तो मैं उसे ठीक करूं, पर वे पढ़ने में अव्वल थे. छात्रवृत्ति के बल पर स्वयं आगे पढ़ते रहे. उसका यही स्वयंसिद्धा वाला रूप ही मुझे आतंकित किए रहता. वह इतनी सक्षम क्यों? वह क्यों सब कुछ स्वयं कर लेती है? यदि उसने आगे बढ़ने के लिए मुझे सीढ़ी बनाया होता, तब भी मुझे संतुष्टि होती, पर वह तो स्वयं मेरे लिए सीढ़ी सिद्ध हो रही है.

"यह नेहा का पति है,"

"यह मनुज, अनुज के पिता हैं."

नहीं चाहिए, मुझे यह रोपा हुआ परिचय. सब मेरा दिखावटी सम्मान क्यों करते है? क्यों नहीं कहते, "यह 'वह' शराबी है, जो पत्नी की प्रतिष्ठा से जलता है."

"यह है वह अभागा पिता, जो अपने पुत्रों की सफलता से ईर्ष्या करता है."

उसका कोई लेखक मित्र भी नहीं है कि मैं उसके चरित्र की छीछालेदर करने की सुविधा पा सकूं. मुझे नहीं चाहिए उसका सती-सावित्री वाला निष्कलंक चरित्र. काश! वह किसी प्रेम-पाश में फंस जाए तो मैं उसे क्षमा करके स्वयं को उदार सिद्ध करूं.

मुझे मालूम है, पूरे जीवन में चार सन्तुष्टि के पल भी मुझे न जुटेंगे. वह अनिध्य सुन्दरी है, पर उस पर कोई कुदृष्टि भी नहीं डालता. समाज में कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार होता है. उसके साथ कोई दुर्घटना भी नहीं होती कि मैं उसे गुंडों से छुड़ा कर अपना शारीरिक बल ही दिखा सकूं, उसके जीवन में 'नायक' की स्थिति मैं खो चुका हूं. एक्स्ट्रा बने रहना ही मेरी नियति है.

मैं उसे देख-देख कर जलता रहता हूं. इतनी अच्छी औरत का पति बना रहना मुझे स्वीकार नहीं है. पता नहीं, लोग कैसे 'महान' स्त्रियों के पति बने रहते हैं? मैं उसे तलाक़ देना चाहता हूं. रहे वह अच्छी औरत अपने अच्छे बेटों के साथ.

यह प्रयास भी करके मैं देख चुका हूं. मैं उसके बगैर रह भी नहीं सकता. शराब मेरी आवश्यकता बन गई है. बिना पिए, मुझे नींद नहीं आती. पीने के पश्चात् जब तक उसे पचासों अश्लील अपशब्द न कह लूं, उसके चरित्र की ऐसी की तैसी करके, उसके पुरखों को न कोस लूं, मुझे नींद नहीं आती. घंटे-दो घंटे की बक बक सुनने के पश्चात् वह फटकारती है, "बस अब चुप रहो. बहुत रात हो गई है, सो जाओ."

किसी-किसी दिन वह गाली सुनते-सुनते ही सो जाती. तब मैं उसे खींच कर जगा देता. और बकना शुरू कर देता. वह मेरी कमज़ोरी जान गई है. मुझे खिझाने के लिए ही वह जान-बूझकर शांत बनी रहती. तब मेरा जी चाहता कि मैं उसकी पिटाई करूं.

मैं उसे सार्वजनिक रूप से इस हद तक जलील करता कि हमारे बीच कुछ कोमल भावनाएं आज भी हैं, इसका किसी को विश्वास ही न रहा, विशेषकर अपने परिवार के समक्ष मैं उसके साथ ऐसा निर्भय व्यवहार करता कि मां को भी भ्रम हो गया. पुत्र के प्रत्येक दोष के लिए पुत्रवधू को दोषी ठहराने की पारंपरिक मानसिकता के वशीभूत हो वे मेरे प्रति सदय हो उठती. मैं पत्नी के प्रति जितना निष्ठुर होता, वह मेरे प्रति उतनी ही उदार होती. गांव पहुंचने पर उनकी सहानुभूति का ज्वार यहां तक बढ़ा कि वे अपना बिछौना मेरे ही कमरे में लगाने लगी.

यह स्थिति में कब तक सह पाता? उसके बिना जीना, सोना क्या अब सम्भव था? अंततः बड़े ही लज्जास्पद दृश्य के साथ इस नाटक की पटाक्षेप करना पड़ा. हुआ यू़ं कि जब चौथे दिन भी मां को अपने कमरे में सोता पाया तो मेरा आदिम पुरुष जाग उठा. नशे का बहाना कर, पहले तो बिस्तर पर पानी गिरा दिया और जब वे दूसरा बिछौना लेने अन्दर गई तो इस बीच उनका खटोला उठा कर बाहर फेंक दिया. मां सारी रात रोती-बिलखती रहीं. आहत ममता मेरे इस व्यवहार से स्तम्भित रह गई. उसने आकर मुझे समझाना चाहा तो चट से दरवाज़ा बंद करके मैं उसे देर तक चूमता रहा.

कितना कठिन होता है किसी से प्रेम व घृणा एक साथ करना. वह मुझे जान से प्यारी है और उसे देख कर मेरी रूह जलती है. बेटे के प्रसव के समय ऑपरेशन से पूर्व जब डॉक्टर ने फॉर्म पर हस्ताक्षर करवाया, तब मैं उस फॉर्म को ठीक से पढ़ भी न पाया था. मेरा हाथ कांप रहा था. उसे खो देने की आशंका मात्र से हृदय डूबा जा रहा था. मानो मेरा ही ऑपरेशन होने वाला हो.

सत्य तो यह है कि उस दिन भी मुझे उसकी मृत्यु का उतना भय नहीं था, जितना अपने एकाको जीवन का. मैं जितना उद्वेलित था, वह उतनी ही शान्त, निर्विकार भाव से बोली, "घबराओ नहीं, मुझे कुछ नहीं होगा."

मैं उस पर पूरी तरह आश्रित था. पी कर आने पर वही मुझे संभालती. पूरा वेतन न देने पर भी घर क ख़र्च चलाती. कई बार घातक बीमारी हुई, मानसिक सन्तुलन खोया. उसने ही इलाज करवाया. सच! स्त्री अपने माथे के सिन्दूर को कितनी बड़ी क़ीमत चुकाती है. अकर्मण्य पति को भी जिलाए रखना चाहती है.

सगे-संबन्धी सब मुझसे आशा छोड़ चुके है. कोई झांकने भी नहीं आता. कभी-कभार मैं ही अपनत्व दिखाने वहां पहुंच जाता है. बस वही है, जो मुझको ढोए जा रही है. यदि उसके स्थान पर मैं होता तो कब का उसका साथ छोड़ चुका होता.

अब मैं समझा कि वह भी मेरे बगैर नहीं रह सकती. किसी-न-किसी प्रकार वह इस रिश्ते को जिलाए रखना चाहती है. यदि मैं आत्महत्या कर लूं तो निश्चय ही वह बेमौत मर जाएगी. जीवनभर पराजित होते रहने की कुण्ठा, एक पल में विजय में बदल जाएगी. आत्महत्या के विचार से मन हल्का हो गया. मानो तुरुप का पत्ता हाथ लग गया हो.

पर नहीं, यह भी मेरी भूल थी. भारी संख्या में नींद की गोली खा लेने पर भी मैं न जाने कैसे बच गया. सुना है, डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया था, पर वह एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक मुझे लेकर भागती रही. उसकी जीजीविषा, उसके सामर्थ्य ने ही मुझे बचाया होगा.

महाभारत का युद्ध तो मात्र अ‌ठारह दिन ही चला, पर मैंने अपने अभिमान व अहं के कारण पूरे अ‌ट्ठारह वर्ष तक दाम्पत्य जीवन को कुरुक्षेत्र बनाए रखा पर जिसे परास्त करने में यौवन, नष्ट कर डाला, वह तो कभी प्रतिपक्ष में थी ही नहीं. जिसके साथ प्रतियोगिता में दौड़ते जीवन कटा, वह तो स्पर्धा में थी ही नहीं, वह तो निर्णायक थी. मेरा समस्त पलायन व्यर्थ सिद्ध हुआ, पर मन में हताशा की जगह आशा है. यह खेल मुझे बन्द करना ही होगा. उस अच्छी औरत से बुरा बन कर जीतना असंभव है. अब अच्छा बन कर ही उसे विजित करना है.

- शोभा मेहरोत्रा

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