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कहानी- एक आदर्श (Short Story- Ek Adarsh)

धीरे-धीरे मेरे नाम से अच्छी के स्थान पर 'आदर्श' शब्द जुड़ गया.ये नाम मुझसे छीन न लिया जाए, इसलिए मैं सबकी बहुत सेवा करती. सब को ख़ुश रखती, मगर इस भागदौड़ में मैं बुरी तरह से थक जाती थी.

आदर्श बीवी, आदर्श भाभी… और अब आदर्श सास. ये 'आदर्श' शब्द सदा से मेरे नाम के साथ जुड़ा हुआ है.
ये खिताब मुझे यूं ही नहीं मिल गया. इसके लिए मैंने बरसों मेहनत की है. त्याग और संयम की नींव पर इसे खड़ा किया है.
इस दुनिया में जहां सब एक-दूसरे को लूटने-खसोटने में, बुराई करने में ही आनन्द प्राप्त करते हैं, वहां आदर्श का खिताब पा लेना कोई आसान बात नहीं है.
मैं जब नई-नई ब्याह कर आई थी, मन में एक सपना संजोया था कि मैं एक आदर्श पत्नी व बहू बन कर रहूंगी. हर परिस्थिति का सामना करने के लिए मैं कमर कस कर तैयार थी.
दो दिनों में ही घर में सबने कहना शुरू कर दिया, "बहू तो बहुत अच्छी है." इन्होंने भी कहा, "शुभ्रा तुम बहुत अच्छी हो."
मैं इस 'अच्छी' से भी ऊपर उठना चाहती थी. मैंने इसके लिए बहुत मेहनत की.
ऐसा नहीं कि मैं सिर्फ़ अच्छा कहलाने के लिए ही ये सारी कोशिशें करती थी. मैं अपनी आदत से भी मजबूर थी. दूसरों को ख़ुश रखने में ही मुझे संतोष मिलता था.
मैं सुबह पांच बजे उठ जाती थी. स्नान-पूजा के बाद सारे घर में झाडू लगाना, सफ़ाई करना, पोछा, लगाना, फिर सारे बर्तन रगड़-रगड़ कर साफ़ करना, पानी भरना... इतना काम हो जाने तक सब उठ जाते थे.
फिर मैं चाय बनाती थी. सब हाथ-मुंह धोकर टेबल पर आ जाते. सब इकट्ठे चाप पी रहे होते, उस वक़्त मैं रसोईघर में नाश्ते की तैयारी में जुटी होती थी.
बाबूजी को सूजी का हलवा पसन्द था, तो इन्हें बेसन के पकौड़े, ननद इन दोनों में से कुछ नहीं खाती थी, उसके लिए नमक का परांठा, देवर के लिए तथा इनके लिए
ब्रेड ऑमलेट. सासूजी का मैन्यू रोज़ बदलता रहता था, इसलिए रोज़ उनसे पूछकर ही बनाती थी.
नाश्ते के तुरंत बाद ही मैं खाने की तैयारी शुरू कर देती थी. इधर दाल चढ़ा कर नाश्ता टेबल पर रखती और फिर सबको बुलाती. कोई नहा रहा होता, तो कोई वर्जिश कर रहा होता. ननद किसी उपन्यास में डूबी होती. नज़र उठाए बिना ही‌ जवाब देती, "आती हूं ना, हल्ला क्यों मचा रही हो भाभी?" सासूजी नहा-धो कर पूजा कर रही होतीं. मैं सबको आने के लिए कहकर रसोई में वापस आ जाती. आंच से दाल उतार कर सब्ज़ी चढ़ाती, फिर दौड़कर अपने बेडरूम में आती. इनके ऑफिस के कपड़े निकालती. पैन्ट-शर्ट, रूमाल, जूते, मोज़े, तौलिया, साबुन सब यथास्थान रखती.
फिर जल्दी से इनका टिफिन तैयार करती. तब तक सब नाश्ते के लिए आ जाते. सब ख़ुश होकर नाश्ता करते और मेरी तारीफ़ करते. ससुरजी कहते, "बहू, तुम बहुत लाजवाब हलवा बनाती हो."
सासूजी कहतीं, "बेचारी सुबह से ही काम में लग जाती है." ननद-देवर और ख़ुद ये भी मेरी तारीफ़ किए बिना नहीं रहते.

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धीरे-धीरे मेरे नाम से अच्छी के स्थान पर 'आदर्श' शब्द जुड़ गया.
ये नाम मुझसे छीन न लिया जाए, इसलिए मैं सबकी बहुत सेवा करती. सब को ख़ुश रखती, मगर इस भागदौड़ में मैं बुरी तरह से थक जाती थी.
इनके ऑफिस चले जाने के बाद सासूजी सत्संग में चली जातीं. ससुरजी अपने दोस्तों से मिलने और ननद तथा देवर कॉलेज, मैं घर में अकेली रह जाती.
फिर कपड़ों का घाट लगता. घर भर के कपड़े धोती, फिर दोपहर को सबको गरम-गरम खाना, शाम को फिर वही चाय से लेकर रात के खाने तक का सिलसिला..
रात को जब बिस्तर पर जाती, तो थक कर चूर हो गई होती. पैरों के तलवे दुख रहे होते. तब ये मुझसे कहते, "शुभ्रा तुम सचमुच महान हो घर के सारे काम तुमने अपने ऊपर ले लिए हैं. मां और पिताजी तुमसे इतने ख़ुश हैं कि तुम्हारा गुणगान गाते नहीं थकते. सच! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी मिलेगी."
मेरी सारी थकान दूर हो जाती.

फिर मेरे पैर भारी हो गए, तो भी मैं सब कुछ करती रही. सब वैसे ही चलता रहा. फिर मेरा पहला बेटा हुआ आशीष, प्यारा सा नन्हा सा. उसे पाकर मुझे जैसे जन्नत मिल गई. अब मेरा काम दुगुना हो गया था. फिर भी मैंने कभी उफ़ तक नहीं की और किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दिया.
इस बीच मेरा स्वास्थ्य गिरता चला गया. अपना ध्यान रखने का वक़्त ही कहां था मेरे पास? फिर डेढ़ साल के बाद वैभव हुआ फिर श्रुति और फिर अनिल.

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शादी के बाद कितने अरमान थे. कितने सपने देखा करती थी कि मैं इनके साथ कश्मीर घूम रही हूं.. दोनों बर्फ़ पर बच्चों की तरह दौड़ रहे हैं, एक-दूसरे पर बर्फ़ के गोले फेंक रहे हैं, ख़ूब हंस रहे है, फिल्मे, सैर-सपाटा न कोई डर ना चिंता, पर वो सब कहां? सपनों का नर्म बिछौना यथार्थ के कठोर धरातल पर बिछा हुआ था. मैंने न तो कभी इनसे अपने अरमानों की बात की. उनके धूल में मिलने का डर था. कहीं वो ये न कहें कि इतनी ज़िम्मेदारियां हैं मेरे ऊपर. घूमने, सैर-सपाटे, फिल्मे देखने में ख़र्चे क्या कम होंगे? बड़ी मुश्किल से तो घर का ख़र्च उठाता हूं और तुम हो कि… मैं बुरी नहीं बनना चाहती थी, इसलिए सदा चुप रही. हम दोनों कहीं भी घूमने नहीं गए. बच्चे बड़े होने लगे. इधर सास-ससुर भी वृद्ध हो चले थे और बीमार रहने लगे थे. मैंने उनकी जी जान से सेवा की, पर वे हमारा साथ कब तक देते..? आख़िर दोनों एक-एक करके हमारा साथ छोड़ गए.

फिर हमने ननद की शादी की. मैंने अपने दहेज का सारा सामान उसे दे दिया. सब नया-नया वैसे का वैसा ही रखा था. ननद रो पड़ी थी, "भाभी, तुम कितनी विशाल हृदय हो."
देवर को पढ़ाया-लिखाया, लायक बनाया फिर उसकी भी शादी की.
अचला आई मेरी देवरानी बन कर. मैं उम्र में उससे बहुत बड़ी थी, वो मेरी इज़्ज़त करती थी.
मैंने सोचा था, शायद अब मुझे थोड़ी राहत मिलेगी. पर ये क्या… उस दिन जैसे ही अचला ने रसोई में आ कर सब्ज़ी काटने के लिए चाकू उठाया, देवरजी पीछे-पीछे आए और उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए बाहर ले जाने लगे और बोले, "तुम्हें खाना बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है. भाभी के जैसा खाना तो कोई बना ही नहीं सकता. मैं तो ज़िंदगीभर उन्हीं के हाथ का खाना खाना चाहता हूं… क्यों भाभी?"
मैं मुस्कुराकर बात को हंसी में टाल गई थी. फिर तो अचला कभी मेरी सहायता के लिए नहीं आती थी. मैं भी तो एक इंसान हूं. मेरी भी इच्छा होती थी कि कभी आराम करूं, पर मैंने कभी उससे कुछ नहीं कहा. अचला हमेशा अपनी सहेलियों से यही कहती, "भाभी बहुत अच्छी हैं, मुझे तो किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने देती."
धौरे-धीरे बच्चे भी बड़े हो गए सब अपनी-अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए. मैं सबका पूरा ध्यान रखती कब किसे क्या ज़रूरत है? कौन से कपड़े पहनने है? क्या खाना है? बच्चे हमेशा लाड़ करते हुए मेरे गले से लटक जाते, "मां, तुम कितनी अच्छी हो. हमारा कितना ख़्याल रखती हो."
श्रुति ने भी कभी कोई काम सीखने में रुचि नहीं ली. बचपन से आदत जो पड़ गई थी मां पर निर्भर रहने की हां, जब कभी मैंने ख़ास किसी काम के लिए कहा, तो अवश्य ही मेरी सहायता की. बेटे तो फिर बेटे थे. वे तो राजकुमारों की तरह रहते थे और मैंने भी उनकी हर इच्छा पूरी करने की कोशिश की.
बेटी जब बाइस की हुई, तो हमने उसकी शादी कर दी. वह ससुराल चली गई. बेटे नए ज़माने के थे. बड़े बेटे आशीष ने अपने पसन्द से अन्तर्जातीय विवाह किया.
मैंने थोड़ी चैन की सांस ली कि अब तो मेरी बहू आ गई है, अब शायद बरसों से चली आ रही ज़िंदगी की इस आपाधापी से थोड़ी राहत मिलेगी, मगर उस वक़्त मेरे दुख की सीमा नहीं रही जब देवरजी की बातों को मेरे बेटे ने भी दोहराया.
शादी के कुछ दिनों के बाद एक दिन सालेहा को काम करते देख कर बोला, "ये क्या! सालेहा, तुम काम कर रही हो? अरे तुम आराम से बैठो, अभी तो हमारी मौज-मस्ती के दिन हैं और फिर मां है ना. उनके होते हम किस बात की चिन्ता?"
"फिर भी…." सालेहा ने कुछ बोलना चाहा था. मगर आशीष उसको पकड़ कर बाहर ले गया.
अब मेरा सास का भी एक 'आदर्श' रूप बन गया था. हालांकि सालेहा बुरी नहीं थी, पर जब पति खुद काम करने से मना कर रहा है, तो वो भी निश्चित हो गई थी.
मैंने फिर भी वक़्त का इतज़ार किया. वैभव और अनिल की शादी एक साथ ही कर दी. पर आरती औरअनुराधाभी आकर सालेहा के रूप में ही ढल गईं.
घर का वातावरण ही कुछ ऐसा हो गया था कि सब मुझ पर ही निर्भर थे मैं न देखें तो कोई काम नहीं होता था. मैंने भी सोचा, चलो बच्चे हैं घूमने-फिरने की उम्र है- आखिर मैंने अपने अरमान दवाए ही तो थे. जिस चीज़ से मैं वंचित रही, कम से कम बच्चों को तो उसकी कमी न खले. मुझे तो मालूम था नई-नई शादी के बाद क्या-क्या अरमान होते हैं.
वक़्त बीतता रहा, बहुओं के बच्चे हुए, मैं दादी भी बन गई. बच्चे भी मेरे आगे-पीछे ही घूमते. सच पूछो तो मैंने ही सबको पाला. बहुएं मेरा गुणगान गाते ना थकती थीं.
वैभव मेरे पास आकार बोला, "मां, इन लोगों से कोई काम नहीं होगा. क्यों न हम कोई नौकर रख लें?" मेरी आंखों के कोर भीग गए थे. इतने वर्षों से सब कुछ मैं कर रही थी. आज जब मेरी बीमारी की वजह से बहुओं पर दो दिनों के लिए काम आ पड़ा तो नौकर रखने की बात कर रहे हैं.
फिर ये रिटायर हो गये और अपना समय दोस्तों के साथ ताश खेल कर बिताने लगे, पर मेरी दिनचर्या में कोई फर्क नही आया.
उस दिन की घटना मैं कभी नहीं भूल पाती. मैं बीमार पड़ गई थी. बहुत तेज बुखार था मुझे. हफ्ता भर में बिस्तर पर पड़ी रही. उस एक हफ़्ते सारी ज़िम्मेदारी बहुओं के ऊपर आ पड़ी. दो दिनों में ही वे ब्री तरह खीझ उठीं. मंझली और छोटी किसी काम की बात को लेकर आपस में ही उलझ गई.
उन्हें समझाने-बुझाने के वैभव मेरे पास आकर बोला, "मां, इन लोगों से कोई काम नहीं हो सकेगा. क्यों न हम कोई नौकर रख ले?"
मेरी आंखों के कोर भीग गए थे. इतने वर्षों से सब कुछ मैं कर रही थी. आज जब दो दिनों के लिए काम इन लोगों पर आ पड़ा, तो नौकर रखने की बात कर रहे हैं पर मैंने सिर्फ इतना कहा, "रहने दो बेटा, जरा अच्छी हो जाऊ, दो दिनों बाद मैं खुद ही संभाल लूंगी."
और दो दिनों के बाद फिर सब पहले जैसा ही हो गया था.
अचानक एक दिन सुबह बैठे-बैठे ही मेरी जीभ लड़खड़ाने लगी. बोलती कुछ थी, निकलता कुछ था. मैं खुद हैरान थी कि ये क्या हो रहा है? शाम होते-होते मेरा पूरा बांयां हिस्सा सुन्न हो गया. डॉक्टर को बुलाया गया. सब जांच करने पर पता चला, मुझे लकवा मार गया है.
सारे घर में एक सन्नाटा सा छा गया. मैंने मुस्कुरा कर कहा, "क्या वात है? सबने मुंह क्यों लटका रखे हैं? भगवान ने चाहा तो जल्दी ठीक हो जाऊंगी."
पर मजबूरीवश मैंने विस्तर पकड़ लिया, अपना काम करने लायक भी न रही. तीनों बहुओं के मुंह उतर गए थे.
कुछ दिनों तक तो सबने खूब सेवा की, फिर धीरे-धीरे सब अपनी-अपनी दिनचर्या पर उतर आए,
मैं सुबह से बारह बजे तक भूखी-प्यासी लेटी रहती हूं, किसी को मेरी फ़िक्र ही नहीं है. घर में एक तनाव-सा आ गया है. तीनों बहुओं का परस्पर प्रेम प्रदर्शन अब लड़ाई-झगड़े में बदल गया है,
आख़िर पत्नियों की तकरार से तंग आ कर तीनों बेटे अलग हो गए, मेरी हालत देख कर तीनों मेरे जीते जी सम्पत्ति का बंटवारा चाहते है. सीधे मुंह कोई कह नहीं पाता, पर उनकी बातों से मुझे सब समझ में आ जाता है.
बेटी भी आई मुझे देखने, पर वो तो पराए घर वाली है, कितने दिन रहती? आशीष चाहता है मैं वैभव के पास रहे और वैभव चाहता है अनिल के पास रहूं.
इन्हें भी अपना वक़्त बिताना अच्छी तरह आता है. हो, रात को अक्सर पूछते हैं, "शुभ्रा कोई तकलीफ हो तो बता देना."
शारीरिक तकलीफ़ तो मैं सह सकती हूं, पर मुझे इस रोग ने ज़िन्दगी के यथार्थं से वाक़िफ करा के जो मानसिक अशान्ति दी है, वो मेरी सहनशक्ति से बाहर है.
आज मुझे यह महसूस हो रहा है कि इस 'आदर्श' शब्द से मैं बरसों छली गई हूं. मेरे अच्छे होने का फ़ायदा घर के एक-एक सदस्य ने उठाया है. मैं मृग-मरीचिका-सी आदर्श के पीछे भागती रही, भागती रही, और सबने मेरी इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाया.
जीवन मैंने हमेशा दूसरों के लिए जिया है, और आज जब मैं जीवन के कगार पर खड़ी हूं तो सारे चेहरे मुझे अजनबी से लग रहे हैं. क्या मेरे तीन बेटे, बहुएं, पोते-पोतियां, बेटी, देवर-देवरानी ये सब मिल कर मुझ अकेली का बोझ नहीं उठा सकते? हर बेटा चाहता है कि मां को दूसरा बेटा ले जाए, बेटी ससुराल की दुहाई दे कर चली गई. ये भी मेरे पास बैठ कर अपना वक़्त बरबाद नहीं करना चाहते.
कितना मतलबी है ये इन्सान ? सिर्फ अपने सुख देखता है.
आज एक प्रश्न मुझे बार-बार परेशान कर रहा है. क्या अपना जीवन दूसरों के लिए जी कर मैंने ग़लती की? या फिर ये सब अपना कर्तव्य भूल गए है?

- शिखा मिड्ढ़ा

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