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रक्षाबंधन पर विशेष: लघुकथा- एक बहन की चिट्ठी (Short Story- Ek Bahan Ki Chitthi)

हम तीनों को बड़े जतन से तैयार करके एक बहन ने लिफ़ाफ़े के अंदर रख के रवाना किया था. यह वही बहन थी, जो पिछले पांच सालों से सावन के महीने में पीहर नहीं गई थी. इसीलिए वह पिछले पांच सालों से ऐसा ही लिफ़ाफ़ा तैयार करके पोस्ट बॉक्स में डाल आती थी. उसे यह लिफ़ाफ़ा भेजकर एक तसल्ली होती थी कि वो न सही कम से कम उसकी राखी तो उसके भाई तक पहुंच जाती है.
'हम अपनी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही बीच में अटक गए थे. अब हम तीनों नहीं जानते थे कि हमारी नियति हमें कहां ले जाने वाली थी? एक बंद लिफ़ाफ़े के अंदर हम तीनों छटपटा रहे थे. हम तीनों में मैं यानी चिट्टी, राखी और रोली की पुड़िया थी.
हम तीनों को बड़े जतन से तैयार करके एक बहन ने लिफ़ाफ़े के अंदर रख के रवाना किया था. यह वही बहन थी, जो पिछले पांच सालों से सावन के महीने में पीहर नहीं गई थी. इसीलिए वह पिछले पांच सालों से ऐसा ही लिफ़ाफ़ा तैयार करके पोस्ट बॉक्स में डाल आती थी. उसे यह लिफ़ाफ़ा भेजकर एक तसल्ली होती थी कि वो न सही कम से कम उसकी राखी तो उसके भाई तक पहुंच जाती है.

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मुझे रह-रहकर उस बहन की सूरत याद आ रही थी. मैं मन ही मन ईश्वर से उस बहन के इस लिफ़ाफ़े को मंजिल तक पहुंचाने की प्रार्थना कर रही थी.
''बारिश ज़ोरों पर है, बस अब आगे नहीं जा सकती. आगे की सड़क बहुत ख़राब है. अगर कल सुबह तक बारिश रुक गई, तो बस कल सुबह ही रवाना होगी वरना..."
वरना... वरना क्या? क्या कहना चाहता है बस का कंडक्टर? क्या बस सच में आगे नहीं जाएगी? क्या गाड़ी में सवार यात्री उतर जाएगें? यात्री तो अपनी मंज़िल किसी न किसी तरह तय कर ही लेंगे, मगर हमारा क्या होगा? क्या हम तीनों लिफ़ाफ़े सहित कहीं फेंक दिए जाएगें या तेज़ बारिश में कहीं गलकर बह जाएगें?..
मैं बुरे-बुरे अंदेशों से घिरकर उस बहन को याद करके दुखी होने लगी, जिसने बड़े जतन से हमको अपने भाई के लिए भेजा था. दिनभर की भागदौड़ से भरी ज़िंदगी के बीच उसने इस राखी को बनाया था.
मुझे भी वह अपने जीवन की आपा-धापी के बीच बड़ी मुश्किल से लिख पाई थी. मुझे लिखते वक़्त उससे गीले आटे की, तेल और मसालों की, उसके थके हुए शरीर के चिपचिपाते पसीने की गंध आ रही थ. वह गंध उसकी व्यस्तता का प्रमाण थी, जिसे मैं अपने भीतर भी महसूस कर रही थी.
मुझे लिखते हुए वह बार-बार रोई थी. उसके साथ मैं भी रोई थी, पर यह सोचकर अब मुझे और भी ज़्यादा रोना आ रहा था कि हम उसके लिखे पते पर नहीं पहुंच पाएगें.
कुछ देर बाद किसी ने हमें छुआ तो मैं घबरा गई. फिर गाड़ी स्टार्ट होने की आवाज़ आई, तो मैं समझ गई कि ड्राइवर गाड़ी वापस ले जा रहा है.

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तभी गाड़ी को धीरे से आगे बढ़ाता ड्राइवर, कंडक्टर से बोला, "भाई, आज डाक बाबू ने बस में ख़ूब लिफ़ाफ़े रखे हैं, इनमें ज़रूर कई बहनों कि राखियां और चिठ्ठियां होंगी. अच्छा हुआ कि बारिश रुक गई, वरना इन बहनों की राखियां और चिठ्ठियां रह जातीं." यह कहता हुआ बस का ड्राइवर हमें हमारी मंज़िल की ओर ले चला और हम तीनों मारे ख़ुशी के लिफ़ाफ़े में ही उछल पड़े.

- पूर्ति खरे

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