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कहानी- एक ही थैली के चट्टे-बट्टे (Short Story- Ek Hi Thaili Ke Chatte-Batte)

Short Story, Ek Hi Thaili Ke Chatte-Batte उसकी नज़र में अनशन पर बैठे लोग देश के सच्चे हीरो थे. वो सोच रही थी काश, उसे भी मौक़ा मिलता देश के लिए कुछ कर गुज़रने का, तो वो भी दुनिया को दिखाती कि उसके दिल में देश के लिए कितना प्रेम और समर्पण भाव है. मगर इस घर-गृहस्थी के चक्कर में फंसकर कहां कुछ कर सकती है वो? जब बाहर पसरते अंधेरे ने हॉल में भी दस्तक दी, तो सुलभा ने घड़ी की तरफ़ देखा, 7 बजने को थे... “ओह! घंटा भर हो गया टीवी देखते हुए, पता ही नहीं चला...” उसके पति सुधीर अभी तक ऑफ़िस से नहीं आए थे. जाने क्या बात है? वैसे तो 6 बजे तक आ जाते हैं. सुलभा चिंतित हो उठी, तभी मोबाइल फ़ोन पर एसएमएस आया. सुधीर टैफ़िक में फंसे थे. आने में देरी थी. 11 वर्षीय बेटा बंटी भी बाहर फुटबॉल खेल रहा था. कोई ख़ास काम भी नहीं था, सो सुलभा पुनः टीवी से चिपक गई. एक न्यूज़ चैनल पर देश में फैले भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा काले धन पर बड़ी रोचक परिचर्चा चल रही थी. मुद्दा ज्वलंत था और सुलभा का फेवरेट भी. एक से बढ़कर एक वक्ता थे, जो जी-जान लगाकर सरकार और सिस्टम पर शब्दों के आक्रमण कर रहे थे. सुलभा के रोंगटे खड़े हो गए थे. वो भी उनके साथ सुर से सुर मिलाकर भ्रष्ट लोगों को कोस रही थी कि तभी दरवाज़े पर बजी घंटी ने उसका प्रवाह रोका. दो घंटे की देरी से ही सही, अंततः सुधीर घर आ गए थे. थके-हारे सो़फे पर पसर गए. वैसे तो सुलभा सुधीर के घर आने पर टीवी ऑफ़ करके उसके लिए चाय-पानी के इंतज़ाम में लग जाती है, मगर आज उसका टीवी बंद करने का मन न हुआ. बस, उसने थोड़ा-सा वॉल्यूम कम कर दिया. “इतनी देर कैसे हो गई? क्या ज़्यादा ट्रैफ़िक था?” “बस, पूछो मत. जगह-जगह रोड डायवर्ट की हुई है. पूरी दिल्ली नापकर आ रहा हूं. आधे घंटे के रास्ते को तय करने में पूरे दो घंटे लग गए. दिल्ली अब रहने लायक नहीं बची है, जब देखो लोग एक मुद्दा पकड़कर कभी धरना, तो कभी अनशन... कभी मोर्चा, तो कभी चक्का जाम शुरू कर देते हैं और हम जैसे सुबह-शाम सड़क नापनेवाले लोगों की शामत आ जाती है.” सुधीर की व्यथा सुन सुलभा थोड़ी सजग हुई, “मैं मानती हूं इस तरह के आंदोलनों से थोड़ी जन व्यवस्था बिगड़ती है, मगर देश के वर्तमान हालात में इस तरह की आवाज़ उठाना बहुत ज़रूरी है. हम लोग ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हैं, पूरा टैक्स जमा करते हैं और हमारे खून-पसीने की कमाई से इन भ्रष्ट लोगों की जेबें भरती हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन होना समय की मांग है. ये हमारे ही हित में है.” सुलभा का चेहरा देश के लिए मर मिटनेवाले किसी क्रांतिकारी की भावभंगिमा से भर गया. “सारा दिन घर के सुरक्षित माहौल में बैठकर ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करना बहुत आसान है, पर ज़रा हमारी सोचो. सारा दिन ऑफ़िस में पिसो, फिर आधे घंटे का सफ़र चींटी की चाल से चलकर दो घंटे में पूरा करो और जब घर आओ, तो बीवी बजाय एक कप अच्छी-सी चाय पिलाने के उन्हीं लोगों की तरफ़दारी करे, जो उसके पति के घर देर से लौटने के कारण हैं, तो...” सुधीर ने व्यंग्यात्मक चुटकी ली. सुलभा को अपनी भूल का एहसास हुआ और वो हड़बड़ाकर रसोई की ओर भागी. “सुनो, चाय के साथ कुछ स्नैक्स भी ले आना, बहुत भूख लगी है. खाना थोड़ा रुककर खाऊंगा.” सुधीर ने रिमोट से टीवी चैनल बदलते हुए कहा. तभी बंटी भी खेलकर हांफता हुआ घर आ गया और सीधे सुधीर से रिमोट झपट लिया. “सॉरी पापा, अभी मेरा फेवरेट शो आ रहा है, आप बाद में देख लेना.” सुधीर में अभी इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वो बंटी को डांटे या उससे बहस करे, अतः उसने चुपचाप सरेंडर करना ही बेहतर समझा. यह भी पढ़ें: 5 देश, जहां आप बिना वीज़ा यात्रा कर सकते हैं  सुलभा गरम-गरम चाय और ब्रेड रोल ले आई थी. आते ही उसने रिमोट पर वापस कब्ज़ा जमा लिया. “चल बदमाश कहीं का... पहले ये फुटबॉल जगह पर रख और जूते उतारकर हाथ-मुंह धो. तब यहां आकर बैठना.” बंटी को चलता कर उसने वापस अपनी परिचर्चा लगा ली. “बंद करो सुलभा ये सब. आजकल ऑफ़िस में भी यही सब डिस्कशन चलता रहता है, कम से कम घर पर तो शांति रखो.” सुधीर खीझता हुआ बोला. “बस, दस मिनट का प्रोग्राम रह गया है. शुरू से देख रही हूं, पूरा होने दो न.” “क्या मिलेगा ये सब देखकर?” “कैसी बातें करते हो सुधीर? एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अपने देश और समाज में हो रही हलचलों की पूरी जानकारी होनी चाहिए. हमारी भलाई के लिए चल रहे आंदोलनों को समर्थन देना चाहिए. उनमें अपना योगदान मसलन डोनेशन...” “बस-बस, बहुत हुआ...” डोनेशन के नाम पर सुधीर बिदका. “कबूतर के आंख बंद करने से बिल्ली का ख़तरा टल तो नहीं जाता न. ज़रा सोचो, कैसी भ्रष्ट व्यवस्था छोड़कर जाएंगे हम अपने बच्चों के लिए, इसे तो सुधारना ही होगा.” सुलभा का स्वर आक्रामक और जोशीला हो चला था. बंटी अपने काम निपटाकर वापस आ गया था. चैनल बदला हुआ देख वो बेचैन हो उठा “मम्मी...” “चुप करो... बारह साल के होने जा रहे हो, कब तक यूं कार्टून चैनलों से चिपके रहोगे. ज़रा न्यूज़ भी देखा करो. बस, अपनी दुनिया में मस्त रहते हो. ज़रा देखो तो सही देश में क्या चल रहा है.” मम्मी का एग्रेसिव मूड देखकर बंटी चुपचाप अपने पापा की बगल में दुबक गया. सुधीर उसकी मनोस्थिति समझकर मुस्कुराए और उसके मुंह में ब्रेड रोल डालते हुए धीरे से कान में फुसफुसाए, “आज मम्मी को देखने दो, कल मैं ऑफ़िस से आते हुए एक कार्टून मूवी की सीडी लाऊंगा और उसे स़िर्फ हम दोनों देखेंगे.” प्रस्ताव सुनकर बंटी का मुरझाया चेहरा खिल उठा. परिचर्चा अपने चरम पर थी. ‘करप्शन हमारी नसों के साथ ख़ून में दौड़ रहा है. इसने स़िर्फ शासन वर्ग में ही नहीं, बल्कि हर स्तर पर अपनी पैठ बना ली है. पुलिस, प्रशासन और नेता ही नहीं, बल्कि आम आदमी भी उसमें सहभागी हो रहा है...’ टीवी पर चल रही बातों ने बंटी का ध्यान खींचा. “मम्मी, ये करप्शन और काला धन क्या है?” बंटी ने जिज्ञासा जाहिर की. “बाद में बताऊंगी. अभी मुझे सुनने दो.” थोड़ी देर बाद परिचर्चा बिना किसी निष्कर्ष और समाधान के समाप्त हो गई, मगर सुलभा अभी भी अभिभूत थी. उसकी नज़र में अनशन पर बैठे लोग देश के सच्चे हीरो थे. वो सोच रही थी काश, उसे भी मौक़ा मिलता देश के लिए कुछ कर गुज़रने का, तो वो भी दुनिया को दिखाती कि उसके दिल में देश के लिए कितना प्रेम और समर्पण भाव है. मगर इस घर-गृहस्थी के चक्कर में फंसकर कहां कुछ कर सकती है वो? प्रोग्राम ख़त्म हुआ देख बंटी ने अपनी जिज्ञासा पुनः प्रकट की, मगर सुलभा को डिनर बनाना था, अतः उसने बंटी का प्रश्‍न वापस टाल दिया. अगले दिन स्कूल में बंटी ने टीचर के सामने अपनी जिज्ञासा रखी, तो टीचर ने छोटे-छोटे उदाहरण देकर उसे करप्शन, काला धन, रिश्‍वत जैसे शब्दों के मायने समझाए. अब वह भी कभी अख़बारों में तो कभी टीवी के ज़रिए भ्रष्टाचार विषय संबंधीजानकारियां लेने लगा. ‘हम भ्रष्टाचार के दानव को तभी हरा पाएंगे, जब आम आदमी मज़बूती से इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करेगा और इसका हिस्सा बनने से इंकार करेगा.’ अख़बार में छपे ये शब्द मासूम बंटी के मस्तिष्क पर छप गए थे. आज सुधीर जल्दी घर आ गए थे, “क्या बात है, बेहद ख़ुश लग रही हो?” सुलभा का खिला चेहरा देख उसने पूछा. “पापा का फ़ोन आया था. अगले ह़फ़्ते लखनऊ से आ रहे हैं... ट्रेन से.” यह भी पढ़ें: वेट लॉस टिप ऑफ द डे: 8 हेल्दी सूप्स फॉर वेट लॉस “अचानक कैसे? पहले से तो कोई प्रोग्राम नहीं था. इतनी जल्दी रिज़र्वेशन मिलेगा क्या?” “पापा कह रहे थे मामाजी के रेलवे में कुछ कनेक्शन हैं. उन्होंने ही कहा है कि अभी वेटिंग में ले लो, बाद में कुछ ले-देकर क्लियर करा लेंगे.” सुलभा चहकते हुए बोली. पास बैठा बंटी सब सुन रहा था. ले-देकर... मतलब रिश्‍वत. उसके दिमाग़ की घंटी बजी. मतलब नानाजी रिश्‍वतख़ोरी और भ्रष्टाचार में सहयोग कर रहे हैं. मम्मी को तो इसका विरोध करना चाहिए था, वो तो भ्रष्टाचार विरोधी हैं, पर वो बड़ी ख़ुश हैं. बंटी को याद आया, अभी कुछ दिन पहले उसके दादाजी शिर्डी होकर आए थे. उन्होंने प्रसाद देते हुए बताया था कि इस बार वहां बहुत भीड़ थी. वो तो एक एजेंट को कुछ रुपए देकर वीआईपी पास का इंतज़ाम करा लिया था, अतः लंबी लाइन में नहीं लगना पड़ा, वरना 4 घंटे खड़ा रहना पड़ता. तो क्या वो भ्रष्टाचारी हैं? बंटी का दुनिया देखने का नज़रिया ही बदल गया था. जिन बातों पर उसका कभी ध्यान भी नहीं जाता था, अब वो उनकी गहराई में जाकर नए अर्थ खोज रहा था. “आज बंटी की भी छुट्टी है. क्यों न पिक्चर चला जाए?” सुधीर के प्रस्ताव पर बंटी और सुलभा दोनों उछल पड़े. “मैं फ़ोन करके शर्मा को टिकट का इंतज़ाम करने को कह देता हूं.” शर्मा सुधीर के अधीनस्थ क्लर्क थे. तीनों तैयार हो रहे थे कि तभी मि. शर्मा का फ़ोन आया. “सुलभा टिकट एवेलेबल नहीं हैं, पर वो कह रहा है कि शायद ब्लैक में इंतज़ाम हो जाए. तुम क्या कहती हो?” “हां, तो लेने को कहिए न... अभी पिक्चर नहीं गए, तो बेकार में बंटी का मूड ऑफ होगा.” सुलभा ने सहर्ष स्वीकृति दे दी. बंटी अंदर से सब सुन रहा था. ब्लैक के नाम से उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. तीनों कार से थियेटर की ओर बढ़ चले, मगर बंटी के संवेदनशील मस्तिष्क में टीवी में सुने भ्रष्टाचार विरोधी कथन गूंज रहे थे, ‘आम आदमी भी भ्रष्टाचार में सहभागी हो रहा है. वो भी रिश्‍वत देकर अपना काम बनवाने का सुलभ रास्ता चुन रहा है, हम भ्रष्टाचार के दानव को तभी हरा पाएंगे, जब आम आदमी मज़बूती से इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करेगा और इसका हिस्सा बनने से इंकार करेगा.’ थियेटर आ गया था. शर्माजी गेट पर टिकट लेकर उनका इंतज़ार कर रहे थे. सुधीर टिकट लेकर पैसे देने लगे, तो शर्माजी ने पैसे लेने से इंकार कर दिया. “क्या करते हैं साहब? ये पिक्चर भाभीजी और बंटी को मेरी तरफ़ से...” वो चापलूसी भरे स्वर में हंसते हुए बोले. सुधीर के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई. अभी तक उन्हें यही मलाल हो रहा था कि बेकार में पिक्चर जाने का प्रस्ताव रखा और ब्लैक में टिकट पर डबल ख़र्चा करवाया. मगर शर्माजी के प्रस्ताव से उनकी सारी मायूसी दूर हो गई. शो शुरू होनेवाला था. सुधीर और सुलभा तेज़ी से चलने लगे, मगर बंटी वहीं ज़ड़वत् खड़ा रहा. “क्या हुआ, चलना नहीं?” सुलभा ने पूछा. “नहीं. मैं देश का ईमानदार और ज़िम्मेदार नागरिक हूं और भ्रष्टाचार को अपने किसी भी एक्शन से हेल्प नहीं करूंगा.” बंटी सिर ऊंचा कर दृढ़ता से बोला. बंटी की बात सुन सुधीर और सुलभा सकते में आ गए. “क्या कह रहे हो? हमने कौन-सा भ्रष्टाचार किया है?” “क्यों... ब्लैक में टिकटें लेना और वो भी शर्माजी से इनडायरेक्टली रिश्‍वत के तौर पर लेना, ये भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है? आप सभी भ्रष्टाचारी और एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं.” बंटी की स्वाभिमानी भावभंगिमा बरक़रार थी. सुधीर ने सुलभा को ऐसे घूरा जैसे कह रहा हो कि ये सब तुम्हारा ही किया-धरा है और अपडेट करो इसे ऐसे आंदोलनों के बारे में. वहीं सुलभा अवाक् थी. आज बंटी ने उसे उसके व्यक्तित्व के ऐसे पहलू से परिचित कराया था, जिससे वो अब तक अनभिज्ञ थी.         दीप्ति मित्तल

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