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कहानी- एक महानगर की होली (Short Story- Ek Mahanagar Ki Holi)

"… दो-चार ने गुलाल लगाया था, मगर ऐसे हिचकते हुए कि मुंह भी पूरा नहीं रंगा गया था… और मुझे तो बचपन से ही ताबड़तोड़ होली खेलना पसंद है… रंगों से भरी, पानीवाली होली, जिसमें रंगकर सबकी पहचान ही मिट जाए… ऐसी रूखी-सूखी, हिचकवाली होली मुझे नहीं जमती, बनारस का जो ठहरा… आज भी जब होली समारोह में आने के लिए सभी एक-दूसरे को बुला रहे थे, तो मेरा दरवाज़ा किसी ने नहीं खटखटाया… पहले मैं मायूस हुआ फिर सोचा अगर होली के रंग में शामिल होना है, तो इस बार मुझे ही कुछ करना पड़ेगा.”

एक महानगर की सुबह ऐसी ही थी जैसी लगभग रोज़ होती है. प्रदूषण से धूमिल हो चुके आसमान मुश्किल से दिखते कुछ पंछी, गाड़ियों की आवाजाही का शोर, भवन निर्माण में लिप्त मशीनों की खड़खड़… आज बस वायु प्रदुषण के साथ-साथ वातावरण में तेज कानफोड़ू संगीत का ध्वनि प्रदूषण भी घुला था. जगह-जगह फिल्मी गाने बज रहे थे, वो भी होली के त्योहार पर आधारित… इसी से पता चल रहा था कि आज होली है, वरना कोई विशेष अंतर नहीं था.
सुबह दस बजे के आसपास का समय हो चला था. उस महानगर की एक पॉश सोसायटी में होली ऐसे ही खेली जा रही थी जैसे आजकल पढ़े-लिखे, सभ्य शहरियों की सोसायटी में खेली जाती है… सोसायटी के मुख्य गार्डन में एक तरफ़ डीजे की व्यवस्था थी, दूसरी तरफ़ जलपान और गुलाल का स्टॉल लगा था. सोसायटी निवासी घरों से निकल गार्डन में जमा होने शुरु हो गए थे. लोग एक-दूसरे को बडी सभ्यता से गुलाल लगाते, गले मिलते और आपसी गपशप में शामिल हो जाते. सीनियर सिटीजन की टोली अलग से पीछे बिछाई कुर्सियों पर जमी हुई थी. वे बीते समय की होली के मीठे अनुभवों को शेयर करते ठहाका लगा रहे थे और होली के चलन के अनुसार, एक-दूसरे की खिंचाई भी कर रहे थे.
बच्चे अपनी मस्ती में मगन पिचकारी, गुब्बारे और रंग लेकर साफ़-सुथरे शिकार ढूढ़ रहे थे और जैसे ही कोई दिखता उस पर टूट पडते… महानगरों में आए दिन रहनेवाली पानी की किल्लत के कारण सोसायटी ऑफिस से पहले ही आदेश जारी कर दिया गया था कि होली सिर्फ़ गुलाल से ही खेली जाएगी, उसमें पानी का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया जाएगा. अगर कोई गार्डन के नलों को खोलते पाया गया, तो जुर्माना लगेगा… सेक्रेटरी और मैनेजर की पैनी नज़र नलों का बीच-बीच में निरीक्षण कर रही थी. अतः बच्चे जितना संभव हो सकता था अपने घरों से ही पिचकारी टैंक और गुब्बारे भरकर ला रहे थे।.
डीजे के आसपास किशोर और युवा टोली थिरक रही थी. वहां होली खेलने से ज़्यादा सेल्फी खींची जा रही थी. सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ स्टेटस अपडेट हो रहे थे. लड़कियां बीच-बीच में अपनी त्वचा की चिंताएं करती भी नज़र आ रही थी. किशोर टोली द्वारा हर दो सेकंड में गाना बदलने की रिक्वेस्ट से झल्लाकर सोसायटी का ऑफिस ब्वॉय धीमे स्वर में गालियां बकना आरंभ कर चुका था…
होली के दिन भी महिलाओं की बातों के वही घिसे-पिटे टॉपिक थे, घर के कामों का बखान, बाइयों का रोना और बच्चों की पढ़ाई की चर्चाएं… आज वे सब इसी बात से ज़्यादा ख़ुश थीं कि सोसायटी की तरफ़ से जलपान की बड़ी अच्छी व्यवस्था है. अतः उन्हें घर जाकर नाश्ता-खाना बनाने की टेंशन नहीं लेनी पड़ेगी. कुल मिलाकर कहें, तो उस सोसायटी में होली लोगों के चेहरों पर भले ही सज गई हो, मगर उनके मन और आत्मा होली की उल्लासित जादुई फुहारों से अछूते ही थे.


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वह तूफ़ान की तरह आया और पूरे जोश और तेजी के साथ सबको होली की मुबारकबाद देता हुआ गुलाल लगाने लगा. इसके बाद सबके बीच कनस्तर खोल बैठ गया. आह, पूरा वातावरण मावा गुझियों की सुगंध से भर उठा. उसकी महक से ही सबके मुंह में पानी आ गया. वरिष्ठों का सारा फोकस गुझियों पर चला गया और उनके दिमाग़ से उस अपरिचित को पहचानने का विचार ही उड़ गया.
… यूं ही देखते-देखते 11 बज गए. सूरज सिर पर चढ़ने की तैयारी करने लगा. डीजे के शोर-शराबे से जब सब के कान पक गए, तो उसे वरिष्ठों द्वारा धीमा करा दिया गया. उनके बीच अब होली छोड़, देश-दुनिया और राजनीति की बड़ी-बड़ी चर्चाएं चल पडी थी.
इसी बीच इस मालगाड़ी से खिसकते होली समारोह में एक लंबे-चौड़े डीलडौल वाले इंसान का आगमन हुआ. वह सिर से पांव तक हरे, बैंगनी, काले, नीले जैसे गहरे रंगों में बुरी तरह रंगा-पुता था. बालों पर सिल्वर पेंट का बेस था, जिसके ऊपर अलग-अलग रंगों के गुलाल चिपके थे. हरे, बैंगनी चेहरे पर बड़ी-बडी आंखों के भीतर श्वेत डोले ऐसे चमक रहे थे जैसे घनी काली अमावस्या में एक साथ दो चांद चमक उठे हों. मुंह खुलता तो लगता जैसे सफ़ेद दांतों की कतारें जामुनी किनारीवाली बनारसी पहने खडी हों. गले में ढोलक लटक रही थी, कंधे पर झांझ-मंजीरे झूल रहे थे, दोनों हाथों में टीन का कनस्तर संभाले वह सीनियर सिटीजन के ग्रुप की ओर बढ़ता चला जा रहा था.
सबकी सवालिया नज़रें उन पर ऐसे ठहर गई जैसे कह रही हों, उनकी सभ्य महानगरीय होली के बीच यह 19वीं सदी के मध्यार्ध से होली खेलकर इतने साजो-सामान के साथ कौन नौजवान चला आ रहा है, सोसायटी से है या बाहर से..? सभी उसे पहचानने की कोशिश में आंखें मिचमिचाने लगे. वह तूफ़ान की तरह आया और पूरे जोश और तेजी के साथ सबको होली की मुबारकबाद देता हुआ गुलाल लगाने लगा. इसके बाद सबके बीच कनस्तर खोल बैठ गया. आह, पूरा वातावरण मावा गुझियों की सुगंध से भर उठा. उसकी महक से ही सबके मुंह में पानी आ गया. वरिष्ठों का सारा फोकस गुझियों पर चला गया और उनके दिमाग़ से उस अपरिचित को पहचानने का विचार ही उड़ गया.
“लीजिए, सबके लिए होली का विशेष व्यंजन, गुझिया… वो भी होममेड… मेरी पत्नी ने बनाई है आप सबके लिए.” उसने जैसे पूरा कनस्तर ही उनके हवाले कर दिया. यह अविश्वसनीय दृश्य देख शर्मा आंटी की फटी आंखें जैसे कह रही थी, इतना बडा दिलदार दानी उन्होंने अपने पूरे जीवन में नहीं देखा… कितनी मेहनत लगती है गुझिया बनाने में… तीन घंटे लग गए थे फिर भी उनसे बमुश्किल 15 गुझिया ही बन पाई थी. वो भी ऐसे छिपते-छिपाते बनाई और खाई गई जैसे जच्चा की छुआनी हो… मजाल थी जो पड़ोसी से लेकर कामवाली बाई तक कोई उसकी महक भी सूंघ पाया हो… और एक ये महाशय हैं, होममेड गुझिया, वो भी इतनी सारी, यू ही बांट दी, माथे पर बल तक न पडे… बड़ा जिगर है भई…
“वाह, उम्म्… अति स्वादिष्ट…” मुंह में जैसे-जैसे गुझिया घुल रही थी, खानेवालो के चेहरे और आंखें ऐसे तृप्त नज़र आ रहे थे जैसे सालों के अकाल के मारो को राजभोग मिल गया हो.


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“हमारे उधर तो इनके बिना होली सम्पन्न ही नहीं होती, लीजिए सभी लीजिए भरपूर है.” जो लोग शरमाशरमी में हाथ रोके खड़े थे, खानेवालों के तृप्त चेहरे देख वे भी टूट पडे… यह अद्भुत नज़ारा दूर खड़े पुरुषों-महिलाओं की टोली ने भी देख लिया और उनके कदम भी स्वचालित से उस ओर बढ़ चले… सबने जमकर गुझिया का आनंद लिया और भर-भरकर तारीफ़ें की… फिर वह अपरिचित ढोलक जमाते हुए बोला, “अरे इस सोसायटी में क्या ऐसी ही सूखी सूखी होली चलती है, कोई नाच-गाना… गाना-बजाना नहीं…”…
… “क्या बात करते हैं साहब, डीजे का इंतज़ाम किया है हमने…” सोसायटी मैनेजर आवेश में बोले, आख़िर उंगली उनके इंतज़ाम पर जो उठी थी.
“अरे मैनेजर साहब, डीजे पर भी कोई फगुआ जमता है भला… उसका रंग तो तभी चढ़ता है, जब ढोलक पर थाप पड़े, झांझ-मंजीरों की झंकार गूंजे, हारमोनियम से सुर लहरियां बहे, लोकगीतों की तानें चढें…” वह बोला.
“हां-हां भई, बिल्कुल सही कह रहे हो… मैनेजर साहब ज़रा अपना कानफोड़ू संगीत बंद करवाइए, आज फगुआ गान होगा…” उस अपरिचित की बात सुन इलाहाबाद से संबंध रखनेवाले रिटायर्ड कर्नल मिश्रा के भीतर जैसे बचपन से रचा-बसा पूरबिया फगुआ जाग उठा. वो जोश में भरकर चौकड़ी मार ज़मीन पर बैठ गए और तुरंत ढोलक थाम ली.
“चलिए, सब मेरा साथ दीजिए… अह… हूं… ” सबका प्रतिसाद देख वह सज्जन गला खंगारते हुए गाने की तैयारी करने लगा.
“हां हां.. भई चलो, मज़ा आएगा…” बूढ़ों के खून में रवानगी आ गई और जवान भी सबके साथ शामिल होकर ज़मीन पर बैठ गए. झांझ-मजीरे संभाल लिए गए. गुप्ताजी को कुछ नहीं मिला, तो गुझिया का खाली कनस्तर ही लपक लिया. पाटिल अंकल ने समय की नजाकत भांप तुरंत घर पर फोन घुमाया, “वॉचमैन को भेज रहा हूं, ज़रा हारमोनियम भिजवा देना…” और फिर शुरु हुई फाग की महफ़िल, “जोगीरा सररर… काहे ख़ातिर राजा रूसे, काहे खातिर रानी. काहे खातिर बकुला रूसे कइलें ढबरी पानी… जोगीरा सररर…" रंग जमा तो नई तान छिड़ी," अवध मा होली खेलैं रघुवीरा… केकरे हाथे ढोलक सोहै, केकरे हाथ मंजीरा, केकरे हाथ कनक पिचकारी, केकरे हाथ अबीरा…”
उम्रदराज़ महिलाओं ने जब “सासू पनिया कैसे जाऊं रसीले दोऊ नैना…” उठाया, तो अपने ज़माने में ‘कत्थक क्वीन’ कहलाई जानेवाली मालती आंटी के बुढ़ाते घुटनों में भी जैसे नई जान आ गई और उन्होंने पूरे जोश में ठुमकना आरंभ कर दिया. 50 साल पहले अपनी शादी के लेडीज़ संगीत में वे इसी लोकगीत पर नाची थीं, यह उनकी रग-रग में बसा था. जवान लोग, जो लोकगीतों से अनजान थे, वे जब फिल्मी गानों पर उतरे तो ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली..’ और ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है…’, चल पड़े. इन सुने सुनाए गानों में ज़्यादा लोग सम्मलित हुए और गाते हुए उठकर नाचने-ठुमकने लगे… सोसायटी में जो होली समारोह 12 बजे के अंदर-अंदर समाप्त हो जाता था आज 2 के पार हो गया था, मगर जोश था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था…
“भई वाह, बड़े सालों बाद आज लगा कि वाक़ई होली खेली है… मज़ा आ गया.” महफ़िल की समाप्ती पर कर्नल मिश्रा ने उस अपरिचित की पीठ थपथपाई, “और ये सब तुम्हारे कारण ही संभव हुआ नौजवान.”
“सही बात है… विशेषकर अपनी पत्नी को हम सभी का धन्यवाद कहना… ऐसी गुझिया सालों बाद खाई है… कभी मां बनाया करती थी…” माथुर साहब ने अपनी मां को याद करते हुए उसका शुक्रिया अदा किया, तो सभी के सहमति के स्वर उभरे.
“वैसे भई, आपको पहचान नहीं पा रहे हैं, सोसायटी के किस विंग में रहते हो या किसी के यहां आए हुए हो?”…
“बी विंग में रहता हूं माथुर साहब, छठे माले पर.” कहकर वह अपरिचित मुस्कुराने लगा, तो वे पहचानने की कोशिश करने लगे. वे भी तो उसी विंग में रहते थे. कुछ पकड़ नहीं पा रहे थे.
“आप से चार फ्लोर ऊपर…” एक और क्लू मिला, तो बुद्धि पर ज़्यादा ज़ोर डाला, ‘कद-कठी से तो… नहीं नहीं, वह कैसे हो सकता है..?’, वे असमंजस में थे.
“नहीं पहचाना, तीन दिन पहले आपके किसी विजिटर ने ग़लती से मेरी पार्किंग में कार लगा दी थी, मैं आपसे उसे हटाने का अनुरोध करने आया था.”
“हां… हां… ओ… हो… तुम? क्या नाम बताया था..?”
“जी शाहनवाज अली.”, नाम सुनकर सभी को झटका लगा. शाहनवाज अली… एक मुस्लिम… और ऐसी होली..? इनका तो त्योहार भी नहीं, फिर भी क्या रंग जमाया होली पर, क्या फगुआ गाया… होली का मिज़ाज ही बदल दिया..

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“माफ़ करना भई तुम इतने ज़बर्दस्त रंगे हो कि पहचान में ही नहीं आए.” पाटिल साहब ने कहा, जो अक्सर शाहनवाज से मार्निंग वॉक पर 'हाय-हैलो' किया करते थे.
“यहां आने से पहले क्या कहीं और होली खेलकर आए थे, जो ऐसे रंगे पुते थे?”
“जी, घर पर खेली थी… बाथरूम में, वो भी अकेले…” शाहनवाज हंसते हुए बोला.
“मतलब..?”
“मतलब ये कि पहले ख़ुद ही ख़ुद को रंगा, ताकि अपनी मज़हबी पहचान छिपा सकूं… मुस्लिम होते हुए भी आप लोगों के बीच का हिस्सा बन सकूं, सब के साथ घुलमिल कर होली खेल संकू.”
“अरे, इसकी क्या ज़रूरत थी? हमारी सोसायटी तो मार्डन है, सभी पढ़े-लिखे लोग हैं, कोई जात-पात, धर्म का अंतर नहीं मानता… मुझे देखो क्रिश्चन हूं, पर होली खेलने आया हूं,” ऐरन डिसूजा बोले.
“जी डिसूज़ा साहब, सही फरमा रहे हैं आप. यही सोचकर पिछली होली पर आया था, मगर महसूस किया लोग सभी को गर्मजोशी से गुलाल लगा रहे थे, मगर मेरे क़रीब आते हुए असहज हो रहे थे… दो-चार ने गुलाल लगाया था, मगर ऐसे हिचकते हुए कि मुंह भी पूरा नहीं रंगा गया था… और मुझे तो बचपन से ही ताबड़तोड़ होली खेलना पसंद है… रंगों से भरी, पानीवाली होली, जिसमें रंगकर सबकी पहचान ही मिट जाए… ऐसी रूखी-सूखी, हिचकवाली होली मुझे नहीं जमती, बनारस का जो ठहरा… आज भी जब होली समारोह में आने के लिए सभी एक-दूसरे को बुला रहे थे, तो मेरा दरवाज़ा किसी ने नहीं खटखटाया… पहले मैं मायूस हुआ फिर सोचा अगर होली के रंग में शामिल होना है, तो इस बार मुझे ही कुछ करना पड़ेगा.”
… “भई बुरा मत मानना शाहनवाज भाई, सोसायटी में एक-दो पुरानी मुस्लिम फैमिली हैं, जिनके यहां हम शुरु-शुरु में होली के लिए बुलाने गए, मगर उन्होंने हमें ऐसे दुत्कारा जैसे हमने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो, उसी इंप्रेशन में शायद…” शर्माजी ने अपना पक्ष रखा.
“यही तो गौर करनेवाली बात है शर्माजी, एक-दो के व्यवहार से हम पूरी कौम के बारे में एक पुख्ता राय कायम कर लेते हैं. हम जान-पहचान के लोगों के साथ तो इतने इफ एंड बट, इतने शको-शुबाह के साथ पेश आते हैं, मगर अनजानों से बड़ी सहजता से खेल लेते हैं. अगर आज आप सब मुझे पहले ही पहचान लेते, तो मेरे साथ इस रंग में यूं शामिल न होते.. या मुझे अपने साथ शामिल होने का मौक़ा न देते… कहीं न कहीं मेरा मजहब आड़े आ ही जाता…” इस बात पर सभी चुप होकर गंभीर हो गए.
“यह तो सही कह रहे हो तुम…” शाहनवाज का हमउम्र नेक्सट डोर नेबर संदीप भोसले बोला, “इंसान के पहनावे या सरनेम को देखकर और कुछ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर हम अपने मन में उसकी एक इमेज बना लेते हैं और फिर जब भी वह इंसान सामने आता है, तो उसे देखने की बजाय हमेशा उसी इमेज को देखते हैं. हमारा सारा व्यवहार उस इमेज के साथ चलता है, उस इंसान के साथ नहीं… मेरे मन में भी कुछ ऐसा ही था. दिवाली पर मैंने बार-बार सोचा, सबको मिठाई बांटी है तुम्हारे घर पर भी दूं, मगर पता नहीं क्यों कदम नहीं बढ़े… सोचा, पता नहीं तुम्हारा कैसा रेस्पांस हो, पर अब आगे से ऐसा नहीं होगा.”
शाहनवाज हंसा, “जी शुक्रिया, मैं इंतज़ार करूंगा… दरअसल, हिचक दोनों ओर से ही होती है. ऐसे में यदि कोई एक भी कदम बढ़ा दे, तो दूरियां कम हो जाती हैं. आज मैंने यही कदम बढ़ाया है… वैसे गुडीपडवा पर आपके घर से बड़ी अच्छी ख़ुशबू आ रही थी, मैं और मेरी बेगम कयास लगा रहे थे कि क्या बना होगा..?” सुनकर सब हंसने लगे, तो भोसले शरमा गया.
“महक तो हमें भी हर रविवार आती है, बिरयानी की… इतनी कि लार टपकने को तैयार हो जाती है.. बीवी से कई बार कहा, ज़रा रेसिपी पता करो.. मगर वो सुनती ही नहीं..”
“उसकी ज़रूरत नहीं है, इस रविवार आप हमारे यहां बिरयानी की दावत पर आइए और ख़ूब खाइए.” शाहनवाज का न्यौता पाकर भोंसले की आंखें चमक गई.
“चलो भई, आज की होली सफल हुई और हमें सीखा गई कि अगर हम साल में एक दिन सामनेवाले का बैकग्राउंड, जाति-धर्म, स्टेटस भूलकर एक रंग में रंग सकते हैं, सबके साथ मिलकर ख़ुशियां मना सकते हैं, तो रोज़ क्यों नहीं…”
“सही पकड़े हैं, शर्माजी…”, मालती आंटी ने जिस अंदाज़ में कमेंट किया, उसे सुनकर सबके बरबस ठहाके निकल पड़े. उन ठहाकों के साथ आज सोसायटी का गार्डन भी खिलखिला उठा, उसका आंगन आज पहली बार फगुआ के असली रंग में जो रंगा गया था.

Deepti Mittal
दीप्ति मित्तल

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