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कहानी- एक मनुष्य की सोच… (Short Story- Ek Manushay Ki Soch…)

"उस दिन जब तुमने मन्दिर में प्रवेश किया, तो तुमने देखा कि फ़र्श का एक पत्थर टूटकर ऊपर उठ आया है. अनेक लोगों को उससे ठोकर लगी, कुछ गिरे भी. पर किसी ने कुछ नहीं किया. तुमने फावड़ा लाकर उसे बाहर निकाला, फ़र्श को समतल किया, तभी आगे बढ़े, जबकि पत्थर तुम्हारी राह में था भी नहीं…"

एक धनाढ्य व्यक्ति ने अपने घर के सामने एक भव्य मंदिर बनवाया. बहुत दूर-दूर से लोग दर्शन करने आने लगे. जैसे-जैसे मंदिर की ख्याति बढ़ी, दर्शनार्थियों की भीड़ भी बढ़ती गई. रात बिताने के लिए कमरे बनवाने पड़े. खाने-पीने की व्यवस्था की ज़रूरत आ पड़ी.
एक परिवार के लिए यह सब संभालना कठिन हो गया, तो सेठ ने एक ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरु की, जो यह व्यवस्था संभाल सके.
सेठ जी अच्छा वेतन देने को तैयार थे, अतः अनेक व्यक्तियों ने सम्पर्क किया. अधिकांश तो शिक्षित ही थे, परन्तु सेठ जी को उनमें से कोई भी इस योग्य नहीं लगा.
सेठ जी ने सुयोग्य व्यक्ति की तलाश ज़ारी रखी.
उनका घर मंदिर के ठीक सामने पड़ता था और वह सायंकाल वहीं बैठे मन्दिर में आने-जाने वाले लोगों को देखा करते थे.
एक दिन एक अनपढ़-सा व्यक्ति मंदिर में घुसा. उसके कपड़े मटमैले परन्तु साफ़-सुथरे थे.

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दर्शन करके जब वह लौटने लगा, तो सेठ जी ने पास खड़े अपने नौकर को उसे बुला लाने को भेजा.
उसके आने पर सेठ जी ने उससे पूछा, “क्या आप इस मंदिर की व्यवस्था का भार उठाने को तैयार हैं? आपको इसके एवज़ में उचित पारिश्रमिक मिलेगा.”
व्यक्ति ने हामी भरी और दूसरे दिन से ही काम शुरू कर दिया. परन्तु वह हैरान हुआ, जब उसने सुना कि अच्छा वेतन होने के कारण अनेक शिक्षित लोग यह काम करने को आतुर थे. उन सब को छोड़ उसे ही क्यों यह काम दिया गया?..
और एक दिन अवसर पाकर उसने सेठ जी से इसका कारण पूछ ही लिया. सेठ जी ने उतर दिया, “मुझे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो सेवा भाव से यह काम करे, न कि पैसे की ख़ातिर और तुम वैसे ही व्यक्ति हो."

कुछ देर रुककर फिर उन्होंने कहा, "उस दिन जब तुमने मन्दिर में प्रवेश किया, तो तुमने देखा कि फ़र्श का एक पत्थर टूटकर ऊपर उठ आया है. अनेक लोगों को उससे ठोकर लगी, कुछ गिरे भी. पर किसी ने कुछ नहीं किया. तुमने फावड़ा लाकर उसे बाहर निकाला, फ़र्श को समतल किया, तभी आगे बढ़े, जबकि पत्थर तुम्हारी राह में था भी नहीं…"

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अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे बोले, "चाहते तो तुम उसे नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ सकते थे, परन्तु तुमने दूसरों के बारे में सोचा. ‘कोई गिर न जाए’ यह सोच कर कर्म किया. तुम्हारा सेवा भाव देखकर ही मैंने तुम्हें पढ़े-लिखे लोगों पर वरीयता दी.
दूसरों का भला सोचना हर मनुष्य की नैतिक ज़िम्मेदारी है और यही सोच हमें एक बेहतर इंसान बनाती है. और मन्दिर आने का लाभ ही क्या जब अपनी सोच ही न बदली."

- उषा वधवा

Photo Courtesy: Freepik

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