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कहानी- घुटन (Short Story- Ghutan)


“मैं होश में ही हूं, अमित मैं तुम्हें साफ़-साफ़ बता देना चाहती हूं कि निशा निशा है, आनंदी नहीं. निशा का भी अपना एक अस्तित्व है, अपनी पहचान है, अपनी ज़रूरतें हैं, अपनी इच्छाएं हैं, जो तुम कभी नहीं जान पाए.” एक-एक शब्द ज़हर से भरा था और कहीं न कहीं उनका निशाना आनंदी ही थीं, जो अब तक दरवाज़े पर खड़ी उनकी सब बातें सुन चुकी थीं.

सुबह घड़ी के अलार्म की आवाज़ के साथ ही निशा की दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी. पति अमित तथा बच्चों के लिए नाश्ता बनाने, बच्चों को स्कूल भेजने तक वह चक्की की तरह पिसती रहती. अमित के ऑफिस जाने के बाद ही उसे सुस्ताने का समय मिल पाता. फिर रोज़मर्रा के कार्य निपटाते-निपटाते वक़्त कब गुज़र जाता, पता ही नहीं चलता. अगले दिन फिर वही दिनचर्या, परंतु यह तो उसका कर्त्तव्य था, जिसका वह निर्वाह कर रही थी. निर्वाह, हां यही तो उसके जीवन में शेष था. सदैव अपने कर्त्तव्यों का ही तो निर्वाह करती आई थी वह, परंतु इन कर्त्तव्यों के नीचे दबकर उसका अपना व्यक्तित्व कब और कहां खोता चला गया, वह ख़ुद नहीं जान पाई. जीवन की यह अविरल धारा यूं ही पूर्ववत चलती रहती, यदि उसे मम्मी के आने की सूचना न मिलती. उस सूचना के मिलते ही उसकी सारी ज़िंदगी एक पल में जैसे ठहर-सी गई थी. उसकी वही तिल-तिल पिसती हुई ज़िंदगी, उस पर मम्मी के आने की सूचना जैसे बोझ के ऊपर कोई और बोझ भी लाद दिया गया हो.
हर रोज़ घर की साफ़-सफ़ाई करते हुए उसे कुछ ख़ास परेशानी नहीं होती थी, परंतु आज पता नहीं उसे क्या हो गया था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी पराए के स्वागत की तैयारी करनी है, लेकिन... लेकिन वह कोई पराई तो नहीं थी, उसकी अपनी मां थी. फिर यह घुटन क्यों? विचारों का सागर यूं ही घुमड़ता रहता यदि कॉलबेल का स्वर उसकी तन्द्रा भंग न करता.

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“हाय निशा, कैसी हो? यह क्या हाल बना रखा है? अपनी पत्नी का कुछ तो ध्यान रखा करो दामादजी.” मम्मी का चिर-परिचित अंदाज़ उसे अच्छी तरह से पता था. कुछ ही मिनटों में सारे घर में उनके ठहाके की आवाज़ गूंज रही थी. उनका नाम भी उनके व्यक्तित्व की भांति ही था- आनंदी! चारों ओर आनंद बिखेरनेवाली. मां के व्यक्तित्व के सम्मुख उसे स्वयं का व्यक्तित्व बहुत ही छोटा और फीका-सा प्रतीत होता था. शायद यही वजह थी कि मां के सामने बैठकर भी वह वहां नहीं थी. सबके होते हुए भी एक अजीब-सा अकेलापन महसूस कर रही थी.
जब से निशा ने होश संभाला, मां के इसी रूप से परिचित थी वह. चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों, मां के व्यक्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने के उनके व्यक्तित्व के कारण ही पापा के देहांत के बाद भी उन्होंने उनकी कमी हमें कभी महसूस नहीं होने दी. लेकिन मां के यही गुण निशा के मन में उपजी कुंठा का कारण थे. मां के सामने वह स्वयं को अजनबी सा महसूस करती. शायद यही कारण था कि मां तो आज भी निशा की उम्र की ही लगती थीं, परंतु निशा शायद उम्र से पहले ही बूढ़ी हो रही थी.
“हैलो, कहां खो गई निशा?” अचानक अमित ने निशा को अतीत से वर्तमान के धरातल पर ला खड़ा किया.
“तुम भी अजीब हो. तुम्हारी मां आई है और तुम आज भी उसी तरह उदास, ग़मगीन चेहरा लिए बैठी हो. यह देखो, मॉम ने कितनी बढ़िया साड़ी ख़रीदी है तुम्हारे लिए, मेरे लिए यह शर्ट, बच्चों के लिए ढेर सारे खिलौने...”
“अमित मां इस समय कहां हैं?” अमित की बात बीच में ही काटकर निशा ने पूछा. अमित एक पल के लिए चुप हो गया और फिर कपड़े आलमारी में रखने लगा.
“वो हमारी पड़ोसन मिसेज़ वर्मा आई हैं, शायद उन्हीं के साथ होंगी. वो सब छोड़ो, देखो यह शाम की पार्टी की लिस्ट है. तुम्हें कुछ और मंगवाना हो, तो बता देना.” निशा ने लिस्ट को देखा और देखती ही चली गई. इतनी लंबी लिस्ट, शायद पूरी बिल्डिंग को न्यौता दिया गया था. एक पल को लगा कि वह अमित से पूछे कि क्या कभी उसके लिए इतनी बड़ी पार्टी दी है उसने. लेकिन पूछने से भी क्या फ़ायदा, अमित के लिए वह केवल एक पत्नी ही थी. ऐसी पत्नी, जो सिर्फ़ अपनी गृहस्थी और बच्चों में ही उलझी रहे. वह ख़ुद क्या चाहती है, यह जानने की कभी कोशिश नहीं की अमित ने. 
ख़ैर, दिनभर तो मां से उसका आमना-सामना कम ही हुआ, लेकिन फिर वही घड़ी आ गई, जिसका सामना करने से वह हमेशा कतराती थी. पार्टी शुरू हो गई थी और आज भी वह महसूस कर रही थी कि मां के सामने उसका व्यक्तित्व दबा-दबा सा ही है. उनका पहनावा, उनके गहने, उनकी बातचीत का हर अंदाज़, हर तरीक़े से वे उस पर भारी पड़ रही थीं. जहां मां एक ओर भीड़ से घिरी ठहाके लगा रही थीं, वहीं दूसरी ओर निशा अपनी कुछेक सहेलियों के साथ अलग खड़ी थी.
“एक बात पूछूं निशा, यह तुम्हारी मां ही हैं न? भई, बुरा मत मानना, मैंने तो यूं ही पूछ लिया. वैसे लगती तुम्हारी बड़ी बहन जैसी ही हैं.”
“क्या ड्रेसिंग सेंस है तुम्हारी मां का. भई, मैंने तो सोच लिया है कल मैं पूरे दिन तुम्हारी मां के साथ ही शॉपिंग करूंगी. तुम्हारे पतिदेव कहां हैं निशा? ओह, मैं तो भूल ही गई थी, अभी तो तुम्हारी मां के साथ देखा था उन्हें, गप्पे लड़ाते हुए. भई कमाल है, पत्नी यहां अकेली है और वह वहां अपनी सास के साथ...”
व्यंग्य भरे स्वर निशा को आहत कर रहे थे. यह कोई नई बात नहीं थी. बचपन से लेकर आज तक शायद ही उसने अपनी तारीफ़ सुनी होगी. लेकिन आज उसे अपना पूरा अस्तित्व हिलता सा महसूस हो रहा था. उस पार्टी के बाद घर का सन्नाटा और बढ़ गया. मां, बच्चों के साथ उनके कमरे में थीं और अमित-निशा अपने कमरे में.


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“मैं कौन हूं अमित.” एकाएक निशा के इस प्रश्‍न ने अमित को चौंका दिया था.
“यह क्या पूछ रही हो तुम? तुम निशा हो.”
“वह तो मैं जानती हूं अमित. लेकिन निशा कौन है? क्या पहचान है इस दुनिया में उसकी?” आज पहली बार निशा के स्वर में कड़वाहट का एहसास हुआ था अमित को.
“क्या बात है, तुम्हारी आवाज़ में आज कड़वाहट‌ सी महसूस हो रही है मुझे. तुम परेशान हो?”
“हां, परेशान हूं मैं, क्योंकि मुझे ख़ुद अपनी पहचान मिटती नज़र आ रही है.” आज फट ही पड़ा दिल में बसा वह ज्वालामुखी, जो इतने सालों से सुलग रहा था.
“तुम होश में हो निशा? धीरे बोलो, कहीं मम्मी न सुन लें.” 
“तुम्हें मेरी मां की फ़िक्र है अमित, लेकिन मेरी नहीं. शादी के इतने सालों बाद भी तुम्हें अपनी पत्नी की फ़िक्र नहीं है. क्यों अमित, क्यों? क्योंकि निशा, आनंदी नहीं है, इसलिए.”
“यह क्या बकवास है निशा? होश में आओ.”
“मैं होश में ही हूं, अमित मैं तुम्हें साफ़-साफ़ बता देना चाहती हूं कि निशा निशा है, आनंदी नहीं. निशा का भी अपना एक अस्तित्व है, अपनी पहचान है, अपनी ज़रूरतें हैं, अपनी इच्छाएं हैं, जो तुम कभी नहीं जान पाए.” एक-एक शब्द ज़हर से भरा था और कहीं न कहीं उनका निशाना आनंदी ही थीं, जो अब तक दरवाज़े पर खड़ी उनकी सब बातें सुन चुकी थीं.
एक-एक बात उन पर हथौड़े की तरह बरस रही थीं और उनकी आंखें अविश्‍वास से फैली जा रही थीं कि यह उन्हीं की बेटी है, उनका अपना ख़ून. बड़ी हिम्मत के साथ आनंदी ने अंदर पैर रखा, “ये सब क्या हो रहा है निशा. बाहर तक आवाज़ें जा रही हैं, बच्चे सो रहे हैं, उठ जाएंगे, शांत हो जाओ.”
“नहीं मम्मी, आज नहीं... बचपन से आप मुझे शांत करती आई हैं, लेकिन आज मुझे जानना है कि क्या पहचान है मेरी? क्या जगह है अमित के जीवन में मेरी? किस तरह साबित करूं इस दुनिया में अपनी पहचान को?”
“इतना ग़ुस्सा, इतनी कड़वाहट... यह क्या हो गया है तुम्हें निशा. तुम पहले तो ऐसी नहीं थीं.”
 “इसकी वजह भी आप ही हैं. बचपन से लेकर आज तक हर जगह आपने अपनी बेटी की भावनाओं को आहत किया है. जो इंसान अपनी बीवी के लिए थोड़ा वक़्त नहीं निकाल पाता था, वह आपके लिए बड़ी-बड़ी पार्टी देने लगा. जो बच्चे अपनी मां से एक पल के लिए भी जुदा नहीं होते थे, आपके आते ही अपनी मां को याद ही नहीं करते. आपने सब कुछ तो छीन लिया है. पर अब और नहीं अमित. मुझे अपनी जगह चाहिए. अपना हक़, अपना अस्तित्व और अब कोई आनंदी मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी.” न तो अमित कुछ बोल पाए और ना ही आनंदी. दोनों एक-दूसरे को ताकते रहे.
अगली सुबह सब कुछ शांत था. टैक्सी आ चुकी थी. आनंदी का सामान उसमें रखा जा रहा था. निशा अभी तक अपने कमरे में बंद थी. अमित भी उसे बुला-बुला कर हार चुका था. आनंदी सारी परिस्थिति समझ चुकी थी.
“वो नहीं आएगी अमित. शायद ग़लती मेरी ही है. अपनी लाइफस्टाइल में इतनी खो गई थी मैं कि यह भी न जान पाई कि मेरी बेटी का अस्तित्व कब, कहां और कैसे मेरी वजह से दबता जा रहा है. दुनिया के लिए एक आदर्श बन गई मैं, लेकिन अपनी बेटी के लिए आदर्श मां न बन सकी. शायद मैंने महसूस भी नहीं किया होगा कि मेरी बेटी को भी अपनी पहचान बनानी है, मेरी आवाज़ के बगैर. वह सिर्फ़ मेरी बेटी के रूप में नहीं, निशा के रूप में भी पहचानी जानी चाहिए और यह काम तुम्हें करना है. मैं तो शायद ही वापस आऊं, लेकिन तुम मुझे उसकी ख़बर देते रहना. अब मैं चलती हूं.” आनंदी कुछ पल के लिए रुकी और फिर चल दी. निशा खिड़की से उन्हें जाते हुए देख तो रही थी, लेकिन उन्हें रोक नहीं पाई. अगला दिन नई उमंग से भरा था. अब कुछ भी बोर नहीं करता था. घर हो या बाहर, निशा को दुनिया में अपनी पहचान महसूस होने लगी थी. आख़िर दिल में बसा इतने सालों का सारा गुबार बाहर जो निकल गया था. अब वह घुटन के एहसास से मुक्त जो थी.
- अंकुर सक्सेना


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