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कहानी- गुल्लक (Short Story- Gullak)

गुल्लक में छिपा मां का अस्तित्व, उनका दर्द आंसू बन मेरी आंखों से बह रहा था. आज इस बात का मुझे एहसास हुआ कि कैसे एक निर्जीव गुल्लक सिर्फ रुपए-पैसे संजोकर रखना ही नहीं जानती, बल्कि सजीव होकर किसी का साथी बन उसके जीवन के उतार-चढ़ाव में उसको संभालने की एक अहम् भूमिका भी निभा सकती है. 

“हेलो मैम, मेरा नाम वृंदा है. मैंने आपकी पत्रिका के लिए कुछ दिन पहले अपनी कहानी ‘क्षितिज की ओर’ भेजी थी. क्या मेरी यह कहानी आपको पसंद आई?”
“क्षितिज की ओर... हां... एक मिनट... सॉरी वृंदाजी, आपकी कहानी अस्वीकृत है. दरअसल, आपने लिखा तो अच्छा है, पर कहानी में कुछ नएपन की कमी है. आपने हमारी पत्रिका में छपी कहानियां तो ज़रूर पढ़ी होंगी, तो आप उस हिसाब से भाषा पर भी थोड़ी मेहनत कीजिए.”
“मैम, इस बार भी अस्वीकृत... पिछले कई सालों से मैं यह अस्वीकृति झेल रही हूं. हर बार कोशिश करती हूं, कुछ नया लिखने की पर... पर हर बार अस्वीकृत हो जाती है.”
“आप निराश मत होइए वृंदाजी! कहानी के अस्वीकृत होने से दिल छोटा मत कीजिए. आप बस लिखती रहिए और इसे अपनी असफलता भी मत मानिए, बल्कि असफलता ही सफलता की मंज़िल पाने की राह बनाता है. आप प्रयास करती रहें.”
“कोई बात नहीं मैम, मैं कुछ और अच्छा लिखने का प्रयास करूंगी और मुझे विश्‍वास है कि एक-न-एक दिन मेरी कहानी को आपकी पत्रिका में ज़रूर जगह मिलेगी. धन्यवाद!” कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मां को लिखने का बेहद शौक था, पर अपनी घर-गृहस्थी को संवारने में मां अपने लेखन के शौक को संवारना भूल गई थीं. पिछले कुछ सालों से मां पुऩ: लेखन क्षेत्र में सक्रिय हो गई थीं. वे अक्सर अपनी कहानी व लेख अपनी प्रिय पत्रिका में छपने के लिए भेजती थीं, परंतु हर बार वहां से अस्वीकृत हो जाती थी. उनकी हार्दिक अभिलाषा थी कि उनकी प्रिय पत्रिका में उनकी कहानी या किसी लेख को जगह मिले. हर बार अस्वीकृति सुनकर वे आहत और निराश होकर कुछ क्षण के लिए बैठ जातीं, पर फिर अचानक उठकर एक पर्ची पर कुछ लिखतीं और फिर उसे अपनी गुल्लक में डाल देतीं. पर्ची गुल्लक में डालकर वे अपने आप को बहुत हल्का महसूस करती थीं. फिर एक नई आशा, नई स्फूर्ति और ख़ुशी के साथ अपने जीवन में व्यस्त हो जातीं. ऐसा वो सालों से करती आ रही थीं.
“वृंदा, लोग गुल्लक में पैसे इकट्ठे करते हैं, पर तुम पर्चियां.” व्यंग्यात्मक टिप्पणी देते हुए उसके पति निलेश हंसने लगे. मां ने पापा के इस व्यंग्य का उत्तर एक नीरसताभरी मुस्कुराहट से दिया.


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“मां, मैं बचपन से आपकी इस गुल्लक को देख रही हूं, आख़िर आप इन पर्चियों में क्या लिखकर गुल्लक में डालती हैं?” मैंने मां से पूछा.
“महक बेटा, यह गुल्लक मेरी सहेली है. इस गुल्लक में मेरा अस्तित्व, मेरी स्मृतियां, मेरा मान-सम्मान सुरक्षित है.”
“मैं समझी नहीं मां...?”
“बेटा, वक़्त आने पर समझ जाओगी, पर हां, एक बात का स्मरण रहे कि तुम लोग मेरी गुल्लक से दूर रहना.” कहकर वो किचन में चली गईं. गुल्लक के विषय में वे कभी भी बात करने में रुचि नहीं लेती थीं.
बचपन से आज तक मैंने कभी भी मां को निराश और हताश नहीं देखा. मेरे लिए तो वे सुपर मॉम थीं, जिन्हें हमेशा स़िर्फ मुस्कुराते और ख़ुश देखा था. उनका सर्वस्व तो सिर्फ उनका घर-परिवार था, जिसे वे स्वर्ग का दर्जा देती थीं. बिना किसी शिकायत के वे बड़ी शिद्दत से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर रही थीं. पूरे घर का एक-एक कोना, एक-एक चीज़ उनके क़रीब थी, परंतु एक छोटी-सी चीज़ उनके लिए सबसे अनमोल थी और वो थी उनकी गुल्लक, जो मेरे लिए सदा जिज्ञासा और कौतूहल का विषय बनी रहती. वो उनकी गुल्लक नहीं, बल्कि उनकी सहेली थी. उनकी गुल्लक को हाथ लगाने की इजाज़त किसी को नहीं थी. अक्सर वे अपनी व्यस्त ज़िंदगी से कुछ लम्हे चुराकर एकांत में अपनी आरामकुर्सी पर बैठकर अपनी गुल्लक को निहारतीं और अपनी यादों के समंदर की लहरों को अपने हृदय से टकराते देखती थीं. इन पलों पर उनका एकाधिकार था, जो उनको अत्यंत सुकून प्रदान करते थे. मां सदैव मुझे एक बात सिखाती थीं कि महक बेटा, ज़िंदगी पग-पग पर तुम्हारी परीक्षा लेकर तुम पर निराशा की बरसात करेगी, तुम्हारा हौसला तोड़ने का भरसक प्रयत्न करेगी, पर यदि तुम हमेशा हिम्मत, संयम और मुस्कुराहट का छाता लेकर चलोगी, तो अवश्य ही उस बरसात से बची रहोगी और अंत में उस समय पर विजय प्राप्त करोगी, अन्यथा जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा. 
अपनी हताशा व उदासी को अपने ऊपर कभी भी हावी मत होने देना, क्योंकि कोई और हमारे लिए नहीं लड़ता, अपितु हमें ख़ुद ही ख़ुद की हिम्मत बन अपने लिए लड़ना पड़ता है. ये संसार अपने स्वार्थी स्वभाव से विवश होकर तुम्हारी निराशा की नुमाइश कर देगा. बेटा, ये तो वक़्त का पहिया है, जो सदैव घूमता रहता है. हर निराशा एक आशा को साथ लेकर आती है. तुम बस संयम का दामन थामे रखना. उनकी यह अनमोल सीख सदैव उनके एहसास को मेरे क़रीब रख मुझे जीवन में किसी भी हालात में परास्त नहीं होने देती और निरंतर चलने की प्रेरणा देती थी.
“महक, मां को वेंटिलेटर पर डाल दिया है. उनके पास वक़्त बहुत कम है.” समीर, मेरे पति ने मेरे कंधे पर हाथ रख मेरे विचारों की तंद्रा तोड़ी, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं तो मां के साथ यादों के गलियारों में घूम रही थी. आईसीयू में वेंटिलेटर पर लेटी हुई मां के चेहरे से पहली बार मुस्कुराहट गायब थी. उनके हाथ-नाक पर नलियों ने कब्ज़ा कर रखा था. मुंह पर ऑक्सीजन मास्क था. इतना बेबस मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था. मेरी नज़र एकटक घड़ी की सुइयों पर टिकी थी. उन घड़ी की सुइयों में मां की सांसें अटकी थीं. चंद घंटों का समय दिया था डॉक्टर ने मां को. उम्मीद रेत की तरह हाथ से फिसलती जा रही थी. हिम्मत जवाब दे रही थी. मन-मस्तिष्क सब शून्य हो गए थे. यह जानते हुए कि मां को अब जाने से कोई रोक नहीं सकता था, फिर भी हृदय ईश्‍वर से निरंतर एक चमत्कार की दुआ कर रहा था.
एक साधारण से बुख़ार ने उनके शरीर के सभी ऑर्गन्स फेल कर दिए थे. चट्टान-सी मज़बूत मां आज ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थीं. एक वीर योद्धा की तरह लड़ते-लड़ते, आख़िर मां अपने जीवन का युद्ध हार गईं. कहते हैं, जानेवाले को अपनी मृत्यु का आभास हो जाता है, कदाचित् मां उदास चेहरे के साथ विदा नहीं होना चाहती थीं, इसलिए जाने से पहले उनके शरीर में मात्र एक हलचल हुई थी और वो थी उनके चेहरे पर मुस्कुराहट के भाव का आना.
सभी अंतिम क्रियाएं पूर्ण हो चुकी थीं. मैं मां के एहसास के साथ एकांत में कुछ समय बिताना चाहती थी. वैसे तो उनको घर का एक-एक कोना प्रिय था, पर उन्हें जो सबसे अत्यधिक प्रिय था, वो था उनका अपना कमरा. मां के कमरे में उनकी सभी चीज़ें करीने से रखी थीं. उनकी समस्त चीज़ों में उनकी ख़ुशबू समाई थी. मैं उनकी आरामकुर्सी पर बैठकर उनके होने के एहसास को महसूस कर रही थी कि अकस्मात् ही मेरी नज़र उनकी गुल्लक पर पड़ी. उनकी गुल्लक, उनकी सहेली, जो उनके जाने के बाद नितांत अकेली हो गई थी. उसने अपने सहेली को खो दिया था. मेरे मन में द्वंद चल रहा था कि गुल्लक खोलूं या नहीं. अंत में बचपन के कौतूहल और जिज्ञासा की जीत हुई और कांपते हाथों से मैंने गुल्लक खोलकर एक-एक करके पर्चियां निकालकर पढ़नी आरंभ की.

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गुल्लक में छिपा मां का अस्तित्व, उनका दर्द आंसू बन मेरी आंखों से बह रहा था. आज इस बात का मुझे एहसास हुआ कि कैसे एक निर्जीव गुल्लक सिर्फ रुपए-पैसे संजोकर रखना ही नहीं जानती, बल्कि सजीव होकर किसी का साथी बन उसके जीवन के उतार-चढ़ाव में उसको संभालने की एक अहम् भूमिका भी निभा सकती है. 
उनका जीवन आज उनकी गुल्लक परतों में खोल रही थी. मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ बन विचारों में विचरण करने लगी. कितनी होशियारी से एक कुशल कलाकार की तरह वे हमारे समक्ष मुस्कुराहट और संतुष्टि का मुखौटा पहने ख़ुश होने का सफल नाटक करती रहीं. हमने कभी उस मुस्कुराहट के पीछे छिपे दर्द का मर्म समझने का प्रयास ही नहीं किया. सदैव इसी भ्रम में रहे कि मां का जीवन ख़ूबसूरत रंगोली से सजा है, जिसमें चिंता और ग़म के कोई रंग नहीं हैं. सच कहा था उन्होंने कि इस गुल्लक में उनका अस्तित्व और उनकी निराशा है. उनके हृदय के भीतर की वेदना का मात्र एक ही साथी एवं साक्षी थी... उनकी गुल्लक. 
जैसे-जैसे गुल्लक की पर्चियां खुल रही थीं, वैसे-वैसे उनका दर्द गुल्लक से निकलकर बहने को आतुर था. उनका जीवन एक चलचित्र की भांति आंखों के समक्ष चलने लगा...
‘सवेरे से घर का सारा काम पूरा करके रात को बिल्कुल थककर चूर हो जाती हूं, पर इस थकावट का एहसास सिवाय मेरे और किसी को भी नहीं...’
‘आज निलेश ने तीसरी बार गर्भ में कन्या होने के कारण मेरा गर्भपात करवा दिया. बेटियों के प्रति ऐसी छोटी सोचवाले इंसान के साथ दम घुटता है मेरा. क्यों नहीं बचा पाई मैं अपनी बेटियों को...’
‘ईश्‍वर का शुक्र है कि इस बार मेरा गर्भ एक मास अधिक होने के कारण बच गया, मेरी बेटी मेरी गोद में अपनी आंखें खोलेगी. मुझे मां बनाकर मुझे संपूर्ण स्त्री बनाएगी.’
‘निलेश ने मुझे कन्या को जन्म देने का दोषी करार कर मेरी आत्मा को छलनी-छलनी कर दिया.’
‘अरसा हो गया निलेश को मुझसे प्रेम के दो बोल बोले हुए. अगर पति ही ऐसा हो, तो एक स्त्री खोखली हो जाती है.’
‘आज फिर मेरी कहानी मेरी प्रिय पत्रिका में अस्वीकृत हो गई. कोई बात नहीं आज नहीं तो फिर कभी सही.’
‘क्यों अपने अहंकार में डूबकर मेरे मायकेवालों को तुच्छ समझ हर बार निलेश उनका अपमान करते हैं. उनका अपमान मुझसे और नहीं सहा जाता. एक बेटी होने के नाते क्यों नहीं रोक पाती मैं यह सब.’
‘ये मेरी कहानियां ही तो हैं, जिनमें मैं अपने जीवन के यथार्थ सत्य को पिरो देती हूं और मुझे लगता है कि जैसे मैंने अपना दर्द बांट लिया है. इनके सहारे मैं अपने सभी ग़म को भूल जाती हूं. बस, अब तो इंतज़ार है अपनी कहानियों को अपनी प्रिय पत्रिका में छपे हुए देखने का...’
‘अपने चेहरे पर सदा के लिए मुस्कुराहट का मुखौटा पहन लिया, क्योंकि दुख जीवनयात्रा को कठिन बना देता है और मुझे जीना है अपनी महक के लिए... उसकी ख़ुशी के लिए, उसको सदा मुस्कुराहटें देने के लिए...'
‘आख़िर मैं भी एक इंसान हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं, आरज़ू है... अब मैं थक गई. और बर्दाश्त नहीं होता मुझसे...’
कितनी और भी पर्चियां अभी बाकी थीं, किंतु इन अश्रुभरी आंखों से पढ़ना संभव नहीं हो पा रहा था या फिर अब और पढ़ने की हिम्मत नहीं बची थी मुझमें. आदर्श रूपवाले अपने पापा के दोहरे व्यक्तित्व को देख भीतर तक टूट गई थी मैं. मेरे पापा, उफ़्! मां की पर्चियों का सत्य मुझे कचोट रहा था. लड़कियों से इतनी घृणा थी पापा को... यह सत्य तो मुझसे सहन नहीं हो रहा था.
मुझे मुस्कुराहटें और ख़ुशी देने के लिए वे ख़ुद आजीवन दर्द से लड़ती रहीं. फिर भी सदैव अपने घर को स्वर्ग का दर्जा दिया. सच ही कहा था मां ने, उनकी इस गुल्लक ने एक सच्चा साथी बन उनके अस्तित्व और मान-सम्मान को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखा था और उनके जीवन की रिक्तता को भरने में मुख्य भूमिका निभाई थी. अभी मैं गुल्लक और उसकी अमूल्य भूमिका में खोई हुई थी कि फोन की घंटी ने मेरी तंद्रा तोड़ी, “हेलो वृंदाजी! आपके लिए ख़ुशख़बरी है. आपकी कहानी ‘गुल्लक’ हमारी टीम को बेहद पसंद आई है और आगामी अंक में इसको प्रकाशित किया जाएगा.” फोन मां की प्रिय पत्रिकावालों का था. आख़िरकार मां की तमन्ना पूरी हो गई थी. यह सुनकर आंसू सब्र का बांध तोड़कर अविरल झरने की तरह बहने लगे. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इसे ख़ुशख़बरी मानूं या फिर... पर हां, यह सुनकर मां को अवश्य ही मुक्ति मिल गई होगी.

कीर्ति जैन
कीर्ति जैन

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