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कहानी- हीमैन (Short Story- Heman)

उस दिन के बाद से मेरी जिम संबंधी रूचि और ज्ञान बढ़ने लगा था. उनकी ऐसी बातें सुनने में मुझे विशेष आनन्द आने लगा था. यही नहीं जाने-अनजाने मैं अपने पति सुनील में भी ‘हीमैन’ तलाशने लगी थी. यदि स्त्रियों के शारीरिक कटाव और उभार हमेशा से पुरुषों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, तो पुरुषों का शारीरिक सौष्ठव भी बरसों से हर उम्र की महिला को लुभाता रहा है.

मैंने रसोई और डाइनिंग के बीच की सर्विंग विंडो से झांका. पंकज,अनूप और माधव, हां तीनों ही लड़के नाश्ते के लिए टेबल पर आ चुके थे. मैंने अपने हाथों की गति बढ़ाई और कान उनकी बातों की ओर लगा दिए. किसी लेडी टीचर की सख्ती से शुरू हुई बात, एक्स्ट्रा क्लास से होते हुए शीघ्र ही जिम पर आ गई.
मैंने तुरंत बर्तनों की उठापटक बंद कर परांठे सेंकने आरंभ कर दिए. सर्विंग विंडो से एक-एक परांठा सरकाते मैं ध्यान से उनकी बातें सुनने लगी. पुशअप्स, कार्डियो जेैसे नए-नए शब्द मेरी डिक्शनरी में तेजी से जुड़ते जा रहे थे.
“आंटी...” अनूप ने पुकारा.
“शाम को कॉलेज से आते हुए हम केले और बादाम लेते आएंगे, तो कल से आप हमें कोल्ड कॉफी की जगह बनाना आलमंड शेक देना.”
“ऐसा क्यों?” मैंने जिज्ञासा से पूछा.
“जिम प्रशिक्षक ने नया डायट चार्ट दिया है. जैसे-जैसे एक्सरसाइज़ चेंज होगी डायट भी चेंज होगी. प्रोटीन शेक भी शुरू करना है. वो हम ख़ुद बना लेगें. प्रोटीन पाउडर ले आए हैं.”
लड़के नाश्ता करके कॉलेज निकल गए, तो मैं टेबल समेटने लगी. इन लड़कों को पेइंग गेस्ट रखे कोई 10-15 दिन ही हुए थे. अब तक मुझे उनके नाम तो याद हो गए थे, पर मैं उन्हें सम्मिलित रूप में ‘बच्चे’ कहकर संबोधित करना ही पसंद करती थी. मेरी दोनों बच्चियों आशा और उषा से भी उम्र में छोटे जो थे तीनों. आशा तो अपने ससुराल चली गई थी और उषा दूसरे शहर में नौकरी करने लगी थी.
खाली घर और समय मुझे काटने लगा, तो बाप-बेटियों ने मुझसे सलाह-मशविरा कर इन पेइंग गेस्ट का प्रबंध कर डाला. तीनों लड़के आम लड़कों जैसे ही थे, पर चूंकि मैंने अब तक मात्र बेटियों की ही परवरिश की थी, इसलिए इन लड़कों के तौर-तरी़के, रहन-सहन, बातें मुझे आश्‍चर्य में डाल देती थीं.
शुरू-शुरू में जब मुझे पता चला कि जिम भी उनकी दिनचर्या का एक अनिवार्य हिस्सा है, तो मैं टोक बैठी थी, “तुम तीनों कहां मोटे हो, जो जिम जाने की ज़रूरत पड़ गई? तुम्हारी तो खाने-पीने की उम्र है. अच्छे से खाओ और मस्त रहो.”
तब उन्होंने हंसते हुए बताया था कि जिम स़िर्फ वजन कम करने के लिए नहीं, बल्कि फिट रहने के लिए और वजन बढ़ाने के लिए भी जाया जाता है.
“आंटी, मैं तो सिक्स पैक एब्स बनाने जाता हूं.” अनूप जो सबसे ज़्यादा चुलबुला और वाचाल था.  ने मुस्कुराते हुए प्रसिद्ध फिल्मी एक्टर की मुद्रा में अपने दोनों हाथ अदा से फैला दिए.
“उसके आठ हैं.” पंकज ने टोका.
“अब यह क्या बला है?” मैंने कुछ न समझ पाने के अंदाज़ में आंखें चौड़ी की.
“आपने फिल्मों में हीरो को शर्टलेस नहीं देखा आंटी? कैसी मसल्स होती हैं उनकी?” अनूप ने अपना हाथ उठाकर, कोहनी मोड़ते हुए मुझे समझाया, तो मैं तुरंत समझ गई.
“अच्छा, हीमैन जैसी!” मैं तुरंत बोल पड़ी.
“बस... बस... बिल्कुल ठीक समझी आप?”
उस दिन के बाद से मेरी जिम संबंधी रूचि और ज्ञान बढ़ने लगा था. उनकी ऐसी बातें सुनने में मुझे विशेष आनन्द आने लगा था. यही नहीं जाने-अनजाने मैं अपने पति सुनील में भी ‘हीमैन’ तलाशने लगी थी. यदि स्त्रियों के शारीरिक कटाव और उभार हमेशा से पुरुषों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, तो पुरुषों का शारीरिक सौष्ठव भी बरसों से हर उम्र की महिला को लुभाता रहा है.
“क्योंजी, आजकल आपके सीने पर बाल ज़्यादा नहीं हो गए?” सुनील नहाकर, तौलिया लपेटे बाथरूम से बाहर आए, तो मैं टोक बैठी थी. सुनील एक पल ठिठके, मुझे घूरकर देखा, फिर बोले, “समझ नहीं आ रहा तुम तारीफ़ कर रही हो या आलोचना?”
मन किया सिर पीट लूं अपना. पर प्रत्यक्ष में मैं धैर्य धारण किए रही.
“फिल्मों में आपने शर्टलेस हीरो नहीं देखे? आजकल साफ़-सपाट सीने का फैशन है.” मैंने अपना ज्ञान बघारने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष में अपनी रूचि भी दर्शा दी थी. पर पतिदेव तो किसी और ही मिट्टी के बने थे. उन्होंने बेफिक्री से कंधे उचकाए और कपड़े पहनना जारी रखा.
“हुंह, हीरो का क्या है? कल को फिर उगा लेगें, फिर फैशन हो जाएगा. और वैसे भी मैं ज़िंदगी के 50 बसंत देख चुका हूं. ये लड़कों वाले चोंचलें मुझ पर सूट नहीं करेगें. अब कल को तो तुम कहोगी कि रोज़ जिम जाया करो?’
“हां तो जाया करो न! क्या बुराई है उसमें?” मैं तपाक से बोल पड़ी थी.
“बच्चे कह रहे थे जिम में हर उम्र के लोग आते हैं. प्रशिक्षक उनके बॉडीमास, उम्र, वज़न आदि के हिसाब से उनके लिए व्यायाम और डायट सुझाते हैं.”
“मुझे मालूम है प्रभा. पर दस से पांच की अध्यापन की नौकरी, एक-एक घंटा आने-जाने में ख़र्च करने के बाद मेरे में इतना स्टेमीना नहीं रहता कि मैं जिम जा सकूं. दूसरे यूनिवर्सिटी इतनी लंबी-चौड़ी है कि एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाने, सीढ़ियां चढ़ने-उतरने, खड़े रहकर पढ़ाने में ही मेरी अच्छी-ख़ासी एक्सरसाइज़ हो जाती है. वैसे तुम चाहो तो जिम जॉइन कर सकती हो? तुम्हारी उम्र की महिलाएं भी तो आती होगीं वहां?”
“अच्छा, मैं जैसे बड़ी फ्री रहती हूं? घर-गृहस्थी के सैंकड़ों काम रहते हैं मुझे. फिर ये तीन पेइंग गेस्ट का काम और बढ़ गया है.”
"अब ये तो तुमने अपनी मर्ज़ी से ही..."
"हां तो मैं कहां‌ इंकार कर रही हूं?" बात को कहां से कहां पहुंचते देख मैंने वार्ता को वहीं विराम लगा दिया और फिर से अपने कार्यक्षेत्र रसोई में पहुंच गई.
शाम को सुनील लौटे तो मैंने मुस्कुराते हुए उनके सामने एक ग्लास पेश कर दिया.
"यह क्या है?"
"बनाना शेक!.. किसलिए?"
"पीने के लिए."
"मैं केला काटने, पीसने की बजाय उसे ऐसे ही खाना पसंद करता हूं." उन्होंने टेबल पर रखे फ्रूट बास्केट से एक केला उठाकर, छीलकर खाना आरंभ कर दिया, तो मैं जलभुन गई.
"छीलने की भी कहां ज़रूरत है, ऐसे ही खा‌ लो." मैं मन ही मन कुड़मुड़ाई, पर प्रत्यक्ष में इतना ही पूछा, "अब इसका क्या करूं?" मेरा इशारा बनाना शेक की ओर था.
"इसे तुम पी लो. तुम्हें ज़्यादा ऊर्जा की ज़रूरत है."
भुनभुनाते हुए मैंने एक ही घूंट में ग्लास खाली कर दिया था. पतिदेव को हीमेैन बनाने का मेरा यह प्रयास भी विफल हो गया था.
अगले दिन बच्चे नाश्ता करके उठे, तो अनूप ने फीता मांगा.
"फीता? फीते का क्या करोगे तुम लोग? कोई कपड़ा सुधारना हो, तो मुझे दो. मैं मशीन से ठीक कर देती हूं."
"अरे नहीं आंटी, आप ग़लत समझ रही हैं. हमें तो हाथ नापने थे. आप लेकर आइए, मैं बताता हूूं."
मैं उत्सुकता से फीता ले आई. अनूप ने उसे पंकज की बांह के ऊपरी हिस्से पर लपेटा और नापा.‘कॉन्गे्ट्स! आधा इंच बढ़ गई है." फिर माधव की नापी, "अरे वाह माचोमैन, तेरी तो एक इंच बढ़ गई है... अबे कोई मेरी तो नापो."
मैं हैरत से उनके चेहरे पर आते-जाते आश्‍चर्य और उल्लास के भाव देख रही थी. वे लोग ऐसे ख़ुश हो रहे थे जैसे उन्हें कोई ख़ज़ाना मिल गया हो.
‘अच्छी सेहत सुखी जीवन की कुंजी है’ यह तो सुना था, पर अच्छी सेहत कुंजी नहीं ख़ुद ही ख़ज़ाना है.’ ऐसा पहली बार देख रही थी. काश सुनील भी यह बात समझ पाते. पुरुषों को देखने का मेरा नज़रिया बदलने लगा था. मेरी भेदती निगाहें कभी उनकी कमीज़ के नीचे सिक्स पैक्स, एट पैक्स तलाशती, तो कभी बांहों की मोटाई नापते हुए उनकी मसल्स का अनुमान लगाती... हूं यह है हीमैन... माचोमैन! मेरे जुनून का आलम देखिए कि एक दिन रेस्तरां में सुनील के संग डिनर करते मुझे एक अच्छी सेहत वाला आदमी अंदर प्रवेश करते दिखा तो मेरे मुंह से निकल गया, "वॉव माचो..."
मैन्यूकार्ड देखते सुनील ने नज़रें उठाकर पूछा था, "कुछ कहा तुमने."
'हं. म... मैं पूछ रही थी... वो मंचूरियन है क्या?"
"क्या जुनून है!" सुनील के मुंह से निकला, तो मैं बुरी तरह चौंक उठी.
"... पर बस आज का ही है. परसों तो पोलिंग है ही." सुनील ने बात पूरी की, तो मैंने राहत की सांस ली.
"ओह, आप इस चुनावी शोरशराबे की बात कर रहे थे?"
"और क्या इनके नारों और ढोल-ढमाकों से तो कान के परदे फटने लगे हैं. पास बैठे आदमी की भी बात सुनाई नहीं देती."
पोलिंग वाले दिन सुनील जल्दी ही किसी काम से निकल गए थे.
"तुम तैयार हो जाना. आकर फिर वोट देने चलेगें." स्कूटर स्टार्ट करते हुए उन्होंने मुझे याद दिलाया. बच्चेे आए तो बड़े उत्साह में थे.
"आंटी, आज आप नाश्ता रहने दीजिए. अमुक पार्टी वाले जीप भेज रहे हैं. हम उसमें बैठकर वोट देने जाएगें. साथ में गरम जलेबी और समोसे के नाश्ते की ऑफर भी है. आप और अंकल भी फटाफट तैयार होकर हमारे साथ चलो."
"पर वे गाड़ी क्यों भेज रहे हैं?" मैं उलझन में थी.
"सीधी सी बात है आंटी. उनकी जीप में जाएगें, उनका नाश्ता करेगें, तो उनके उम्मीदवार को ही तो वोट देगें." माधव बोला.
"कोई ज़रूरी नहीं. उन्हें क्या पता अंदर कौन-सा बटन दबाया है? आंटी, आप तो मर्ज़ी हो उसे वोट देना. कोई ज़बरदस्ती नहीं है." अनूप बोला.
अभी वार्तालाप चल ही रहा था कि बाहर गाड़ी का ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न सुनाई दिया. हम सब भागकर बाहर आए. एक बड़ी मूंछों वाला आदमी सबको जबरन बड़ी सी गाड़ी में बैठा रहा था. अनूप मेरा हाथ पकड़कर ले जाने लगा, तो मैंने हाथ छुड़ा लिया.
"मैं बाद में तुम्हारे अंकल के साथ स्कूटर पर आऊंगी."
"अरे बहनजी आइए." मूंछों वाला आदमी मेरे सामने नतमस्तक ही हो गया था. मैं और दो कदम पीछे हो गई.
"आंटी अभी अंकल के साथ स्कूटर पर आएंगी." अनूप ने उसे समझाना चाहा.
"अरे भाईसाहब को तकलीफ़ करने की ज़रूरत नाहीं है. हम अभी आध घंटे में गाड़ी फिर से भिजवाय देत हैं. हम तो हैं ही जनता की सेवा के लिए." वह दांत निपोरता चला गया, तो मैंने राहत की सांस ली.
'अच्छा हुआ सुनील घर में नहीं है,!वरना... उन जैसा आदर्शवादी इंसान कुछ भी कर सकता था.
मैं सुनील के साथ बूथ के बाहर उतरी ही थी कि वही मूंछों वाला शख़्स जाने कहां से फिर से अवतरित हो गया.
"अरे हमने दुबारा गाड़ी भिजवाई तो थी. खैर कोनू बात नाहीं, पहले आप गरम-गरम नाश्ता कर लें. फिर आराम से बटन दबा दीजिएगा." उसने पीछे की ओर कहीं इशारे से रास्ता बताया. मैं डरते-डरते सुनील को पूरी बात बताने लगी. तभी किसी बड़े सरकारी ऑफिसर की जीप वहां आकर रूकी, तो मौजूद गार्ड आदि उनकी ओर लपके.
मैं कुछ समझ पाती इससे पूर्व ही सुनील तुरंत उस अफसर के पास पहुंच गए और एक ही सांस में सारी बात उगल डाली. इससे पहले कि वे लोग इधर-उधर हो पाते ऑफिसर के इशारे पर गार्ड ने दो को पकड़कर सरकारी जीप में ठेल दिया. सुनील सगर्व मुझे बताने लगे, "देखा, सारे नेता, अफ़सर भ्रष्ट नहीं होते. उम्मीद अभी ज़िंदा है." ऑफिसर वहां मौजूद जनता को हड़काने लगा, "आप जनतंत्र के आधारस्तंभ हैं. जनतंत्र आप लोगों के कंधों पर टिका है. इस तरह इन स्वार्थी नेताओं के हाथ बिकते आप लोगों को शर्म आनी चाहिए."
भीड़ मुंह छुपाकर छितरने लगी, तो मैंने गौर किया तीनों बच्चे भी नज़रें चुराते निकल रहे थे.
दो दिन तक बच्चे चुपचाप आकर नाश्ता करके खिसकते रहे. मैं समझ रही थी वे शर्मिंदा हैं. इन्हें और कुछ कहकर असुविधाजनक स्थिति में डालना सही नहीं होगा. इसलिए मैं सामान्य बनी रहकर उनसे बातें करती रही मानो कुछ हुआ ही न हो. थोड़े ही दिन में बच्चे वापस खुलने लगे और नाश्ते की टेबल पर चहकने लगे, तो मैं मन ही मन मुस्कुरा उठी.
सुनील को हीमैन बनाने के मेरे प्रयास भले ही विफल हो गए थे, पर जिम और उससे जुड़ी शब्दावली के प्रति मेरा क्रेज़ बरक़रार था. मैंने कार्बस्, कैलोरी, वार्मअप जैसे कई नए शब्द और सीख लिए थे. बेटियों से फोन पर बात करते हुए मैं इस शब्दावली का भरपूर प्रयोग करते हुए उन्हें आसानी से इम्प्रेस कर लेती. वे भी मुझसे आगे बढ़कर सब शेयर करतीं. परी लोक की तरह जिम मेरी फैंटेसी की दुनिया बनता जा रहा था. पर सुनील को इन सबसे अप्रभावित देख थोड़ी निराशा होती थी.
उस दिन हम किसी रिश्तेदार के घर से लौट रहे थे कि सड़क के किनारे भीड़ एकत्रित देख सुनील ने स्कूटर रोक दिया.
"कोई एक्सीडेंट लगता है." मेरे बोलने के पूर्व ही सुनील भीड़ को चीरते सबसे आगे जा पहुंचे थे. मैं उनके पीछे-पीछे हो ली. तभी किसी की पुकार ने मुझे चौंका दिया, "आंटी, आप यहां?" अनूप था. और उसके पीछे-पीछे उसके दोनों दोस्त भी.
"बहुत भयंकर एक्सीडेंट हुआ है आंटी! टक्कर मारने वाला तो ट्रक लेकर भाग गया. स्कूटरवाला लहुलुहान पड़ा है, शायद ही बच पाए."
तभी मैंने देखा सुनील भीड़ में जगह बनाते हुए उस घायल को सहारा देते आगे ला रहे हैं.
"प्रभा, तुम पीछे इसे पकड़कर बैठ जाओगी? एंबुलेस आने में जाने कितना वक़्त लगे? हम इसे नुक्कड़ वाले अस्पताल तक तो ले ही चलते हैं."
"बहनजी, समझाइए इन्हें. पुलिस केस है, किसी लफड़े में न पड़ें. लेने के देने पड़ जाएगें." कुछ लोग बोले, तो शेष भी उनकी हां में हां मिलाने लगे.
"आंटी, आप लोग रिस्क मत लीजिए. ये लोग सही कह रहे हैं. ज़िंदगीभर कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ जाएगें. भलाई महंगी पड़ जाएगी." तीनों बच्चे भी हमें समझाने लगे. मैं असमंजस की सी स्थिति में सबको ताक रही थी.
"प्रभा, तुम चल रही हो या ऑटो रूकवाउं?"!सुनील दृढ़ता से बढ़े जा रहे थे.
"आंटी, जब सब लोग मना कर रहे हैं, तो फिर अंकल को ही ऐसी क्या पड़ी है?" अनूप ने फिर मुझे रोकने का प्रयास किया.
"क्योंकि बाकी सब सिर्फ़ मैन हैं ‘साधारण आदमी’, तुम्हारे अंकल ही ‘ही मैन’ हैं." कहते हुए मैंने आगे बढ़कर सुनील का हाथ मज़बूती से थाम लिया.
"ठहरिए, मैं अपनी गाड़ी यहीं ले आता हूं." भीड़ में से एक सज्जन अपनी कार की तरफ़ बढ़ने लगे, तो कुछ कदम स्वत: ही मदद के लिए हमारी ओर बढ़ आए. मैंने गौर से देखा इनमें तीनों बच्चों के कदम भी शामिल थे. ‘वाकई उम्मीद अभी ज़िंदा है’ मैं बुदबुदा उठी.

संगीता माथुर


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