"सुहाना, तुम तो हीनभावना से ग्रस्त क्लब की सदस्यता छोड़ना चाहती थी? पर मुझे तो माजरा कुछ और ही नज़र आ रहा है. मुझे तो तुम सभी के आकर्षण का केंद्र बनती नज़र आ रही थी."
"हां, सिम्मी को जेक इन ऑल बनाते-बनाते मैं ख़ुद भी बहुत कुछ सीखती चली गई थी. तब कहां सोचा था वह सब मुझे एक दिन सबकी नज़रों में इतना ऊंचा उठा देगा.
नई जगह, नए लोग और सबसे ऊपर धवल की पदोत्रति की ख़ुशी सुहाना के कदम ज़मीन पर नहीं थे. चीफ इंजीनियर की पत्नी होना अपने आप में ही कितने गर्व की बात थी. यह उसे आसपास चाटुकारों की भीड़ देखकर ही अहसास हो गया था. लेकिन कुछ समय बीतते-बीतते सब कुछ व्यवस्थित होता चला. धवल अपने ऑफिस में और सिम्मी, राहुल अपने स्कूल-कॉलेज में व्यस्त होते चले गए, तो सुहाना ने भी ऑफिसर्स क्लब की सदस्यता ले ली.
आरंभ में तो उसे यहां भी सब कुछ अच्छा लगा. सभी अभिजात्यवर्ग की महिलाएं थीं. अच्छा रहन-सहन, खान-पान, शिष्ट व्यवहार जो सुहाना के लिए सामान्य सी बात थी. पर जिस चीज़ ने उसे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह यह था कि हर महिला की अपनी एक व्यक्तिगत पहचान थी. कोई डॉक्टर थी, तो कोई लेक्चरर, राइटर या फिर ब्यूटीशियन.
वे क्लब की सदस्य भले ही मिसेज़ गुप्ता, मिसेज़ मेहता के नाम से बनी थीं, पर अब उनकी पहचान उनके अपने नाम और उनके अपने काम थे. ऐसे में सुहाना को भी अपनी मिसेज़ धवल वर्मा की उपाधि बोझ लगने लगी थी. एक हीनता का बोध उसे चारों ओर में घेरने लगा था. क्या वाकई उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है? वह एक आम औसत घरेलू महिला मात्र है? जिसकी समाज में जो भी इज़्ज़त है वह पति के ओहदे के कारण मात्र है? जैसे-जैसे यह हीन भाव गहराता जा रहा था सुहाना को एक घुटन सी महसूस होने लगी थी. क्लब की फैमिली गेदरिंग में भी वह स्वयं को सबसे कटा सा महसूस करती. एक दिन उसने दबे शब्दों में पति से अपनी क्लब छोड़ने की मंशा भी ज़ाहिर कर दी थी. लेकिन धवल को यह उपयुक्त नहीं जान पड़ा.
"मेरे ख़्याल में तुम बेवजह हीनभावना की शिकार हुई जा रही हो. सभी तो तुम्हें इतना सम्मान देते हैं. यदि सदस्यता छोड़ोगी तो वजह क्या दोगी? यह ऑफिसर्स क्लब है. हर कोई तो इसका सदस्य बन नहीं सकता. फिर इसी बहाने सबसे मिलना-जुलना हो जाता है. तुम नहीं जानती हम भी ऑफिस के कई मुद्दे इन अनौपचारिक पार्टियों में ही सुलझाते हैं." धवल ने फुसफुसाते हुए राज़ की बात बताई, तो सुहाना की ज़ुबान पर अपने आप ही ताला लग गया था. पर गुज़रते समय के साथ-साथ उसके मन में एक धारणा बलवती होती जा रही थी. अपनी युवा होती बेटी सिम्मी को वह ऐसी किसी हीनभावना का शिकार नहीं होने देगी. उसे वह सब कुछ सिखाएगी, जो आज के समाज में किसी भी सभ्य लड़की को सिर उठाकर जीने का हौसला दे सके.
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किसी बड़े शहर में आकर बसने का सिम्मी की ज़िंदगी का भी यह पहला अवसर था. अन्यथा उसकी भी स्कूली शिक्षा तो अलग-अलग कस्बों के स्कूलों से ही हुई थी. जहां-जहां उसक पापा का स्थानांतरण होता रहता था. यह तो अच्छा हुआ कि इधर उसका इंजीनियरिंग में प्रवेश हुआ और उधर उसके पापा का इस बड़े शहर में पदोन्नति में स्थानांतरण हो गया, वरना तो उसे परिवार से दूर हॉस्टल में रहना पड़ता. सुहाना ने बेटी को ऑलराउंडर बनाने के लिए कमर कस ली थी.
सुहाना ने स्वयं तो ज़िंदगी में तीन पहियों की साइकिल के अलावा और कोई वाहन नहीं चलाया था, पर बेटी के लिए उसने ड्राइविंग स्कूल से गाड़ी मंगवा ली थी. धवल से उसने साथ जाने का आग्रह किया, तो वह साफ़ मुकर गया.
"मैं कैसे जा मकता हूं? मुझे तो ऑफिस निकलना है. मीटिंग को तैयारी करनी है और भी ढेरों काम हैं."
"तो जवान लड़की को अनजान ड्राइवर के संग अकेले भेज दूं?" सुहाना बेबसी से बोली.
"तुम ही क्यों नहीं चली जाती साथ? घर के काम वापिस आकर देख लेना. वैसे भी सारा कुछ तो नौकर करते हैं." मजबूरन सुहाना को ही साथ जाना पड़ा. दो ही दिनों में उसे इसमें रस आने लगा था, जो उसकी बातचीत में ही झलक जाता था. तीसरे दिन तो सिम्मी ने मम्मी को ज़बरदस्ती ड्राइविंग सीट पर बिठा ही दिया था.
"अब से आधे समय आप सीखेंगी और आधे समय मैं."
"लेकिन मैंने तो कभी साइकिल भी नहीं चलाई." सुहाना के हाथ-पांव फूल उठे थे.
ड्राइविंग सीख लेने के बाद मां-बेटी का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. सुहाना ने अब बेटी को एक स्वीमिंग स्कूल में भेजने का निश्चय किया, लेकिन बेटी के आम मध्यमवर्गीय संस्कार और संकोची स्वभाव आड़े आने लगा. वह मां के बिना कॉस्ट्यूम पहनने और पानी में उतरने को तैयार ही नहीं थी. काफ़ी दिन सुहाना अपने अंदर के संकोच से लड़ती रही और आख़िर बेटी की खातिर उसने अपने भय पर काबू पा ही लिया. जिस दिन उसने बेटी के साथ एक सुविधाजनक किंतु शालीन पोशाक में पूल में कदम रखा, वह दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन था. अब जब एक बार कदम आगे बढ़े, तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. सिम्मी के कदमों को आगे बढ़ाने के लिए सुहाना ने उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने को अपनी नियति मान लिया था. लेकिन अब सिम्मी की यह कमज़ोरी उसे मन ही मन खाए जा रही थी. क्या यह लड़की सारी ज़िंदगी उसकी उंगली पकड़कर ही आगे बढ़ेगी?
गर्मी की छुट्टियां हुईं, तो शहर में हॉबी क्लासेज की बाढ़ सी आ गई. सुहाना ने दोनों बच्चों को उनकी मनपसंद क्लासेस में जाने की छूट दे दी थी. राहुल ने तो अपने दोस्तों के साथ गिटार क्लासेज में जाना आरंभ भी कर दिया था. सिम्मी तो अभी तक यही तय नहीं कर पा रही थी कि उसे सीखना क्या है? और सुहाना को डर था वह फिर से मां का पल्लू न पकड़ ले.
एक दिन एंकरिंग की क्लास में प्रशिक्षिका के रूप में एक परिचित चेहरा देखकर सुहाना चौंक पड़ी. यह तो उसकी कॉलेज की साथी प्राची थी. प्राची और एंकरिंग की क्लासेज ले रही है? सुहाना हैरान थी, क्योंकि प्राची क्लास की सबसे संकोची और झेंपू लड़की थी.
उसने सुहाना को अपने पास बुलाया, "मुझे इस रूप में देखकर हैरानी हो रही है ना? मैं ख़ुद भी उस समय हैरान रह गई थी जब मेरे छोटे भाई ने मुझे अपनी रिकॉर्डिंग सुनाई. दरअसल हुआ यूं कि एक दिन उसे कुछ पढ़ाते हुए मैं धाराप्रवाह लगभग बीस मिनट तक बोलती रही. अपनी स्पीच सुनकर मैं ख़ुद हैरान रह गई थी. क्या मैं इतना स्पष्ट और अच्छा बोल लेती हूं? यदि मैं अपने अंदर के भय को जीत लूं, तो इतना अच्छा परफॉर्म कर सकती हूं. मैंने ख़ूब अभ्यास किया और देखो आज परिणाम सामने है."
"तुम्हें कोई दबाव महसूस नहीं होता?" सुहाना ने हिचकिचाते हुए पृछा.
"होता है न, पर थोड़ा-बहुत दबाव तो स्वाभाविक है. उसके बगैर इंसान अच्छा परफॉर्म कर ही नहीं सकता." "अच्छा, क्या मैं…" कहते-कहते सुहाना रूक गई. उसने चोर नज़रों से आसपास देखा.
'अरे, सिम्मी कहां चली गई?' कुछ दूर लड़कियों के एक झुंड में उसे सिम्मी खड़ी नज़र आई. उसने हाथ हिलाया. "मम्मी, मुझे कुछ फ्रेंड्स मिल गई हैं. मैं क्लास ख़त्म होने पर मिलती हूं." सुहाना ने राहत की सांस ली. शुक्र है, सिम्मी ने उमे साथ लेने की ज़िद नहीं की. प्राची उससे क्लास ज्वाइन करने की ज़िद करने लगी.
"कुछ दिन आकर देखो. अच्छा न लगे तो छोड़ देना."
सुहाना जानती थी सिम्मी अकेले क्लास में आने-जाने के लिए तैयार ही नहीं होगी. उसे तो साथ आना-जाना ही होगा, तो फिर क्यों न वह भी इस सुनहरे अवसर का लाभ उठा ही ले. सुहाना ने लाभ उठाया और अंग्रेज़ी कहावत के अनुसार बेटी के साथ-साथ उसकी ख़ूबियों की केप में भी एक पंख और लग गया.
आज ऑफिसर्स क्लब ने पिकनिक के तौर पर एक फैमिली गेट-टूगेदर रखी थी. पिकनिक पर रवाना होने के लिए सभी परिवार एक जगह एकत्रित हो गए थे. गाड़ियां तो पर्याप्त थीं, पर ड्राइव करने वाले कम पड़ रहे थे. धवल ने प्रस्ताव रखा कि एक गाड़ी वे ड्राइव कर लेगें.
"पर फिर आपकी गाड़ी? वो कौन ड्राइव करेगा?" "सुहाना."
महिलाएं आश्वर्य से सुहाना को देखने लगीं, पर सुहाना की गर्दन गर्व से तन गई थी. बड़ी कुशलता से ड्राइव करते हुए वह सभी को पिकनिक स्थल पर ले गई. चाय और हल्के नाश्ते के बाद पूल में नहाने का कार्यक्रम बन गया. बच्चे-बड़े सभी पानी में अठखेलियां करते हुए पिकनिक का आनंद लेने लगे. ज़्यादातर तो बच्चे और कुछ पुरुष ही स्वीमिंग कर रहे थे. महिलाओं में शर्माजी की मुंबई वाली बहू दिव्या ही स्वीमिंग कर रही थी. कुछ ही पलों में सुहाना भी उसका साथ देने उतर गई. वह सभी के आकर्षण का केंद्र बन गई थी. दिव्या अन्य महिलाओं को तो आंटी कहकर संबोधित कर रही थी, पर सुहाना को भाभी कहकर पुकार रही थी.
उस दिन एंकरिंग श्रीमती भल्ला को करनी थी, पर उनके परिवार में किसी का एक्सीडेंट हो जाने से वे वहां चली गई थीं और पिकनिक पर नहीं आ सकी थीं. अब बच्चे और उनकी मम्मियां हतोत्साहित हो रहे थे. सुहाना ने उन्हें यह कहकर धीरज बंधाया कि वह एंकरिंग कर कार्यक्रम को सफल बनाने का प्रयास करेंगी. उसने बच्चों के कार्यक्रम की सूची ली.
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सुहाना की ख़ूबसूरत एंकरिंग ने समां बांध दिया. सभी ने कार्यक्रम का भरपूर आनंद लिया. अब तक खाना तैयार हो चुका था. खाना खाकर सभी लौट पड़े. सभी बहुत थक चुके थे. लौटते वक़्त पूरा परिवार एक ही गाड़ी में था. दोनों बच्चे थके-मांदे पीछे की सीट पर लुढ़क गए थे. सुहाना आज के हसीन दिन की ख़ूबसूरत स्मृतियों में खोई थी. आज का दिन शायद उसकी ज़िंदगी का सबसे हसीन दिन था. धवल भी शायद ऐसे ही हसीन ख़्यालों में खोए हुए थे. उनके चेहरे की मुस्कुराहट सफ़र के आरंभ से ही बरक़रार थी.
"सुहाना, तुम तो हीनभावना से ग्रस्त क्लब की सदस्यता छोड़ना चाहती थी? पर मुझे तो माजरा कुछ और ही नज़र आ रहा है. मुझे तो तुम सभी के आकर्षण का केंद्र बनती नज़र आ रही थी."
"हां, सिम्मी को जेक इन ऑल बनाते-बनाते मैं ख़ुद भी बहुत कुछ सीखती चली गई थी. तब कहां सोचा था वह सब मुझे एक दिन सबकी नज़रों में इतना ऊंचा उठा देगा. लेकिन धवल, सिम्मी को लेकर एक चिंता मुझे बराबर बनी रहती है. वह मुझ पर बहुत ज़्यादा निर्भर रहने लगी है, जबकि मैं उसमें आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता कूट-कूटकर भर देना चाहती हूं."
"मुझमें आत्मविश्वास है मम्मी." पीछे से सिम्मी का स्वर उभरा तो दोनों चौंके.
"अरे, तुम सोई नहीं थी?"
'सॉरी मम्मी-पापा. आज भी मैं चुपके-चुपके आपकी बातें सुन रही थी और उस दिन भी मैंने आपकी बातें सुन ली थीं. जब मम्मी हीनभावना की शिकार होकर आपसे अपनी प्रॉब्लम शेयर कर रही थीं. फिर जब मम्मी मेरे लिए इतना कुछ करने को तत्पर हो गई, तो मुझे लगा कि उन्हें साथ लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए. इसलिए मैं हर जगह उन्हें साथ लेकर जाने की ज़िद करती थी."
धवल गौरवान्वित थे, तो सुहाना की मुस्कुराहट और भी गहरी हो गई थी, क्योंकि आशंका के बादल छंट गए थे और संतुष्टि की उजास चारों ओर फैल गई थी.
- संगीता माथुर
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