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कहानी- जीने की नई राह (Short Story- Jeene Ki Nai Raah)

अकेले पुरुष के कम से कम पुरुष मित्र तो बन जाते हैं, पर अकेली औरत पुरुष मित्र तो क्या स्त्री मित्र भी नहीं बना पाती... ख़ासतौर पर उसकी तरह ऊंचे ओहदे पर बैठी स्त्रियां... स्वयं को श्रेष्ठ समझने के कारण वे आम स्त्रियों से मित्रता कर ही नहीं पातीं. यदि किसी के साथ मित्रता करना भी चाहती हैं, तो उक्त स्त्री के अंदर पनपी ईर्ष्या या अपने पति को खोने का डर मित्रता पनपने ही नहीं देता...

प्रियंका गिल कमरे में बेचैनी से चहलक़दमी कर रही थी. दिसंबर की कड़क सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें झलक आई थीं. अपनी बेचैनी कम करने के इरादे से ग्लास में पैग बनाकर कमरे में पड़ी आरामकुर्सी पर बैठ गई. राज- जिसके घर जाने से न तो वह स्वयं को रोक पाती थी, न ही वहां से आने के पश्‍चात् सहज हो पाती थी. आज उसने जो देखा-सुना, उसे महसूस कर वह आश्‍चर्यचकित थी. क्या किसी रिश्ते में इतना माधुर्य, एक-दूसरे के प्रति चिंता एवं समर्पण भी हो सकता है? आज प्रियंका राज के घर बिना बताए चली गई थी. संयोग से दरवाज़ा खुला था, वह बिना घंटी बजाए ही अंदर चली गई.
उसने देखा कि राज की पत्नी आरती उससे चाय पीने का आग्रह कर रही है, वहीं उसकी बड़ी बेटी शिखा उसके माथे पर बाम लगा रही है तथा छोटी बेटी शेफाली अपने नाज़ुक हाथों से उसके पैर दबा रही है. उसे देखते ही राज उठ खड़ा हुआ तथा झेंपती हंसी के साथ बोला, “ज़रा बुखार क्या हो गया, तीनों ने घर आसमान पर उठा लिया है. चाय के नाम पर काढ़ा पीना पड़ रहा है.”
“देखिए ना, तीन दिन से बुखार है. ऑफिस जाने के लिए मना किया था, पर माने ही नहीं. न ही डॉक्टर को दिखाया, ऑफिस से भी अभी-अभी आए हैं. स्वास्थ्य की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं है...” आरती ने राज की ओर देखते हुए शिकायती स्वर में कहा.
“ज़ुकाम की वजह से थोड़ी-सी हरारत हो गई थी. अब इतनी सी बात के लिए डॉक्टर के पास क्या जाना?” राज ने सफ़ाई देते हुए कहा. सवाल-जवाब में छिपे प्यार ने उसे झकझोर कर रख दिया था. ज़रा-से ज़ुकाम में पत्नी की पति के लिए इतनी चिंता उसे सुखद एहसास दे गई थी. उसे याद आए वे दिन जब वह मलेरिया से पीड़ित हो गई थी. यद्यपि पूरा स्टाफ उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित था. डॉक्टर घंटे-घंटे पर फोन कर उसका हाल लेते रहते थे, पर उसमें यह अपनत्व और चिंता कहां थी..? वह तो अपना-अपना कर्त्तव्य निभा रहे थे. उसकी जगह यदि और कोई भी होता, तो उसके साथ भी उनका वही व्यवहार होता. उनका व्यवहार उनकी कुर्सी के प्रति था, न कि उसके प्रति लगाव के कारण.
आज उसका यदि स्थानांतरण हो जाए, तो ऐसी स्थिति में इनमें से शायद ही कोई उसका हालचाल पूछने आए. उसने नाम और शोहरत तो बहुत कमा लिया था, पर दिल एकदम खाली था. इस पूरी दुनिया में अपना कहने लायक मां-बाप के बाद शायद ही कोई बचा था. अपने अहंकार और अहम् के कारण वह स्वयं अपने परिवार से दूर होती गई थी. वैसे भी परिवार के नाम पर बस एक चाचा और एक बुआ ही तो थे. पर जब भी वे आते, उसे लगता कि उससे कोई काम होगा. तभी आए हैं. यह सोच उसे उनसे दूर करती चली गई... धीरे-धीरे उनका आना भी बंद हो गया.
पिछले दस वर्षों से तो वह उन सबसे मिली भी नहीं है. राज और आरती की नोक-झोंक में आज उसे रिश्तों की गर्माहट का एहसास हो चला था. शायद यही कारण था कि मां-पापा दो अलग-अलग व्यक्तित्व होते हुए भी सदा साथ-साथ रहे. कहीं न कहीं उनके बीच प्यार का सेतु अवश्य रहा होगा, जिसे पापा का उग्र स्वभाव भी नहीं तोड़ पाया. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वे पूरी ज़िंदगी एक साथ बिता पाते? वही उनके दिलों में छिपे प्यार को पहचान नहीं पाई थी. प्रियंका को लग रहा था कि वह पापा की उम्मीदों पर अवश्य खरी उतरी थी, पर मन का एक कोना इतना सब पाने के पश्‍चात् भी सूना रह गया था.
सीढ़ी दर सीढ़ी सफलता के सोपानों पर चढ़ती स्वयं को आम औरतों से अलग समझने के कारण उसका रहन-सहन और बात करने का तरीक़ा भी अलग हो चला था. स्त्री सुलभ लज्जा का उसमें लेशमात्र भी अंश नहीं था. पर क्या वह मन के नारीत्व को मार पाई? यह सच है कि पिता उसके आदर्श रहे थे. वह उन्हीं के समान स्वतंत्र और निर्भीक जीवन व्यतीत करना चाहती थी, वह मां की तरह बंद दरवाज़े के भीतर घुटन और अपमानभरी, चौके-चूल्हे तक सीमित ज़िंदगी नहीं जीना चाहती थी. पर अब लगता है कि पापा ने न मां के साथ न्याय किया और न ही उसके साथ...
मां से ज़्यादा पढ़ा होने के कारण वह सदा उन्हें नीचा दिखाते रहे. उनकी सही बात को भी अपने पुरुषोचित अहंकार के कारण ग़लत साबित करते रहे. अपनी कमी को उसके द्वारा पूरी करने की धुन में उन्होंने उसके नारीत्व को भी रौंद डाला. बचपन से लड़कों के कपड़े पहनने के कारण उसका स्वभाव भी लड़कों जैसा ही बन चला था. ये पिता के उपदेशों का ही असर था कि जब भी मां विवाह की बात चलाती, वह बिगड़ उठती. उसे लगता कि क्या वह किसी अनजान आदमी के साथ समझौता कर पाएगी? क्या वह अपनी पूरी ज़िदगी उसके बच्चों को बड़ा करने में बिता देगी? उसके अपने करियर का क्या होगा? वह विवाह करके अपने करियर को तहस-नहस नहीं करना चाहती थी और न ही अपनी स्वतंत्रता में किसी का दख़ल चाहती थी. उसे लगता था बंधन हमेशा इंसान को कमज़ोर बनाते हैं. आख़िर क्या कमी है उसे, अच्छा पद है, पैसा है, फिर क्यों किसी का आधिपत्य स्वीकारे? ‘एकला चलो रे’ का मूलमंत्र अपनाते हुए उसने स्वयं को विवाहरूपी बंधन से मुक्त रखने का निश्‍चय कर लिया था.
अकेले पुरुष के कम से कम पुरुष मित्र तो बन जाते हैं, पर अकेली औरत पुरुष मित्र तो क्या स्त्री मित्र भी नहीं बना पाती... ख़ासतौर पर उसकी तरह ऊंचे ओहदे पर बैठी स्त्रियां... स्वयं को श्रेष्ठ समझने के कारण वे आम स्त्रियों से मित्रता कर ही नहीं पातीं. यदि किसी के साथ मित्रता करना भी चाहती हैं, तो उक्त स्त्री के अंदर पनपी ईर्ष्या या अपने पति को खोने का डर मित्रता पनपने ही नहीं देता...
आरती उसे इन सबसे अलग लगी. राज से उसे बात करते देखकर न तो उसके अंदर ईर्ष्या जागृत हुई और न ही कभी मन में कोई कड़वाहट जगी. राज भी सहजता से उससे बातें करता था. कभी ऑफिस की, तो कभी कॉलेज के दिनों की. वह भी सदा उनकी हंसी में शामिल होती थी. शायद यही कारण था कि ऑफिस से आने के बाद वह कभी बताए या बिना बताए उनके घर पहुंच जाती. दोनों ही स्थितियों में उसका खुलकर स्वागत होता. जब उसे पता चला कि आरती सीए है, तो उसने उससे करियर के बारे में पूछा, तब उसने कहा था, “दीदी, विवाह से पूर्व मैं एक प्राइवेट कंपनी में एकाउंट ऑफिसर थी, लेकिन राज यहां और मैं वहां. क्या फ़ायदा ऐसी नौकरी से, जब अलग-अलग रहना पड़े. इसलिए मैंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया. और आज मुझे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है. अभी मेरे लिए अपने करियर से ज़्यादा बच्चों की उचित देखभाल एवं परवरिश ज़रूरी है. लेकिन अभी भी आवश्यकता पड़ने पर या राज के बाहर रहने पर ऑफिस मैं ही संभालती हूं. काम छोड़ा नहीं है, हां दायित्यों के कारण कुछ कमी अवश्य आई है.”
पति-पत्नी के बीच प्यार विश्‍वास और पारदर्शिता पर निर्भर है. राज ने उसे न केवल अपने अतीत के बारे में सब कुछ बता दिया था, वरन् वर्तमान में भी उसके साथ पूरी तरह समर्पित था, तभी उनमें न कोई कुंठा थी और न ही कोई डर. उसे वह दिन याद आया जब वह राज से मिली थी. इस शहर में आए कुछ ही दिन हुए थे कि उसे अपने सहयोगी पाठक के पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में जाना पड़ा. पार्टी पूरे जोश पर थी. वर-वधू को आशीर्वाद देने के पश्‍चात् खाना खा ही रही थी कि एक जोड़ा उसके सामने आकर खड़ा हो गया. वह कुछ सोच पाती, उससे पहले ही वह व्यक्ति अभिवादन करते हुए बोला, “क्या आपने मुझे पहचाना? मैं आपका सहपाठी. राज सक्सेना.”
“ओह, राज. बहुत बदल गए हो. कैसे हो? क्या कर रहे हो आजकल?” अचानक फ्लैश की तरह सब कुछ सामने आ गया था. राज उसका सहपाठी था. स्कूल से दोनों का साथ रहा. उसकी इच्छा सिविल सेवा में जाने की थी, वहीं राज सीए कर अपनी एक अलग कंपनी खोलना चाहता था, क्योंकि उसे लगता था सिविल सेवाओं में आज योग्यता की नहीं वरन् चापलूसी करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो स्थितियों के अनुकूल गिरगिट की तरह रंग बदलते रहें. जबकि वह सोचती थी कि अगर व्यक्ति में योग्यता है, आंतरिक शक्ति है, कुछ कर गुज़रने की क्षमता है तो वह दूसरों से अपनी बात मनवा सकता है, कायर लोग ही दूसरों के सामने घुटने टेकते हैं. मंज़िलें अलग-अलग थीं, अतः अलग हो गए थे.
फिर भी जब भी समय मिलता, अवश्य मिलते. अपनी ख़ुशी, अपने ग़म एक-दूसरे के साथ बांटते. अपनी मंज़िल पाने के पश्‍चात् उसने अपने प्यार का इज़हार करते हुए विवाह का पैग़ाम उसके पास भेजा था. उसके मन के किसी कोने में भी उसके लिए सॉफ्ट कॉर्नर था, पर विवाहरूपी बंधन में बंधकर वह अपना करियर नष्ट नहीं करना चाहती थी. उसका तटस्थ व्यवहार देखकर राज ने भी उसके द्वारा निर्मित लक्ष्मण रेखा को कभी पार करने की चेष्टा नहीं की थी और वह स्वयं भी सिविल सेवाओं की कोचिंग के लिए दिल्ली चली गई थी, जिसके कारण उनका संपर्क भी टूट गया था.
“मैं तो ठीक हूं.. वही वैसा ही, पर आप वैसी नहीं रहीं?” उसने उसी ज़िंदादिली से अपनी बात कही.
“मैं वैसी नहीं रही?” उसकी बात सुनकर अतीत से वर्तमान में आते हुए आश्‍चर्य से प्रियंका ने पूछा.
“मेरे कहने का मतलब था- अब आप पहले वाली प्रियंका नहीं रहीं. अब तो मेरे लिए प्रियंका गिल हो, एक जानी-मानी हस्ती, हमारे शहर की कमिश्‍नर.” एक बार फिर स्वर में ख़ुशी झलक उठी थी. उसकी बात सुनकर चेहरे पर अनायास ही मुस्कान आ गई थी. इतने दिनों में पहली बार उसे सहज और स्वाभाविक स्वर सुनने को मिला था, वरना ‘यस मेम, आपने बिल्कुल ठीक कहा...’ जैसे शब्द ही सुनने को मिलते थे.
वह कुछ कहती, इससे पहले उसने एक स्त्री से उसे मिलवाते हुए कहा, “इनसे मिलो. यह हैं मिसेज़ आरती सक्सेना. मेरी धर्मपत्नी.” प्यार से अपनी पत्नी की ओर देखते हुए राज ने कहा.
“इन्होंने देखते ही आपको पहचान लिया और मुझे आपसे मिलवाने ले आए.” आरती ने उसका अभिवादन करते हुए कहा. कहीं कोई ईर्ष्या या द्वेष की भावना उसके स्वर या आंखों में नहीं झलकी जैसा कि आम औरतों की निगाहों में उसने देखा था जब वह उनके पतियों से बातें कर रही होती थी. आरती उसे बेहद आकर्षक एवं सुलझी हुई लगी. वह कुछ उत्तर दे पाती कि वह पुनः बोली, “दीदी, यदि आपको कोई आपत्ति न हो तो कल का डिनर हमारे यहां करें. ये आपको लेने पहुंच जाएंगे.”
“लेकिन...” प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि  वह उनका आतिथ्य स्वीकार करे या न करे.
"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं दीदी, आपको आना ही होगा. आख़िर आप इनकी बेस्ट फ्रेंड रही हैं. ये जब-तब आपका ज़िक्र करते रहते हैं और आज जब आप मिल ही गई हैं, तो आपको हमारा आतिथ्य तो स्वीकार करना ही पड़ेगा.” आरती ने ज़ोर देकर कहा.
“ठीक है.” उसने कह तो दिया था, पर उसे लग रहा था कि इनको भी अन्य लोगों की तरह उससे कोई काम तो नहीं है, वरना इस तरह आकर मिलना, खाने का आग्रह करना... अनचाहे विचारों को झटक कर उसने सकारात्मक सोच अपनाई. मां-पिताजी की मृत्यु के पश्‍चात् पहली बार इतनी आत्मीयता से किसी ने बातें की थीं. अब तक लोग मिलते थे, लेकिन उनके व्यवहार में चापलूसी ज़्यादा रहती थी. किसी से पारिवारिक मित्रता का तो प्रश्‍न ही नहीं था. वैसे उसने स्वयं को सदा रिज़र्व रखा था, जिससे कि उसका नाम व्यर्थ न उछले.
उसे अपनी ड्यूटी के अलावा इतना समय ही नहीं मिलता था कि इधर-उधर बैठे. जो समय बचता था, उसमें वह क्लब में ब्रिज खेलती, ड्रिंक करती तथा देर रात लौटकर सो जाती थी. यही उसकी दिनचर्या थी. राज का उससे इतना अपनत्व से मिलना तथा घर बुलाने के लिए आग्रह करना, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? वह सोच ही रही थी कि नौकर ने राज के आने की सूचना दी. पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई तथा साथ चल दी.
आरती उसका इंतज़ार कर रही थी. उनकी दोनों बेटियां भी गाड़ी रुकते ही तुरंत बाहर निकल आईं तथा अभिवादन करते हुए अपना-अपना परिचय दिया. सुरुचि घर के कोने-कोने से झलक रही थी. खाना भी लज़ीज एवं ज़ायकेदार था. उनका आतिथ्य भोगकर वह घर तो चली आई थी, पर मन वहीं रह गया था. आज सब कुछ है उसके पास- मान-सम्मान, नौकर-चाकर, गाड़ी, पैसा लेकिन घर नहीं है... जहां कुछ पल बैठकर वह तनावमुक्त हो सके... अपना दुख-सुख किसी से बांट सके.
यह वही राज था, जिसने उससे अपने प्यार का इज़हार करते हुए सदा साथ चलने की इच्छा ज़ाहिर की थी, पर उसने मना कर दिया था. वह उसका मित्र अवश्य था, पर ड्रीममैन नहीं. वैसे भी उस समय उसे विवाह बंधन लगता था. पता नहीं क्यों राज के परिवार से उसे इतना लगाव हो गया था कि वह अक्सर उनके घर जाने लगी थी. वे भी उसके आने पर ख़ुश होते. बाहर घूमना, खाना भी साथ-साथ होने लगा था. पर आज की स्वस्थ तकरार ने उसके दिल में एक हूक पैदा कर दी थी. काश! उसका भी ऐसा ही घर-परिवार होता, जिसमें एक-दूसरे के प्रति इतना लगाव, इतनी चिंता होती. आज उसे अपना पद ही अपना दुश्मन लगने लगा था. वह अलग-थलग पड़ती जा रही थी. वीआईपी का सम्मान तो उसे मिलता था, पर दिल के इतना क़रीब कोई नहीं था जिसे अपना मित्र, सखा या सहचर कह सके. प्रकृति के विरुद्ध जाने का साहस तो कर लिया था, पर आज वह सिर्फ़ प्रियंका गिल बनकर रह गई है.
विभिन्न रिश्ते जिसमें बंधकर इंसान अपनी जीवन नैया की कठिन से कठिन घड़ियां भी हंसते-हंसते पार कर लेता है, वह उन रिश्तों से दूर थी. उसने अपनी मंज़िल भले ही पा ली हो, पर जीवन की उन अकेली और दुरूह राहों को कैसे पार करेगी, जो इस मंज़िल के पूरे होने के बाद वृद्धावस्था में आएंगी. सोचकर वह सिहर उठी. आज उसे मां बहुत याद आ रही थी, जो उसके आचार-विचार, लक्षण एवं विवाह के प्रति नकारात्मक रुख देखकर कहती, “तुम ऊंचा अवश्य उठो, पर यह मत भूलो कि तुम एक स्त्री हो, नारीत्व से विमुख स्त्री कहीं की नहीं रहती... सच कहें तो नारीत्व की शोभा मां बनने में है. स्त्री चाहे कितनी भी ऊंची क्यों न उठ जाए, मां बने बिना वह अधूरी ही है.”
आज उसे मां के कहे शब्द अक्षरशः सत्य लग रहे थे. शिल्पी और शिखा की मासूमियत ने उसके अंदर के मातृत्व को जगा दिया था. इस उम्र में विवाह... अब यह संभव नहीं है. जिस स्वतंत्रता से वह आज तक रहती आई है, उसमें बंदिश क्या वह सह पाएगी..? यह ज़िंदगी उसने अपने उसूलों पर चलकर बनाई है, फिर अफ़सोस, दुख और निराशा क्यों? सोचकर मन को समझाती, पर दूसरे ही पल दूसरा विचार हावी हो जाता... तो क्या पूरी ज़िंदगी यूं ही अकेले, तन्हाइयों में काटनी पड़ेगी? आख़िर किसके लिए इतनी मेहनत कर रही है... ज़िंदगी निरूद्देश्य नज़र आने लगी थी... अब दिमाग़ में तरह-तरह के विचार हावी हों, तो भला नींद कैसे आती..? ड्रॉवर से नींद की गोली निकालकर खाई तथा सोने की कोशिश करने लगी. 
दिन कट रहे थे, पर फिर भी कभी-कभी मन बेहद उदास हो उठता था. एक दिन पेपर पढ़ते-पढ़ते प्रियंका की निगाह एक लेख पर पड़ी. भारत में भी सिंगल पैरेंटिंग का प्रचलन बढ़ा है. अचानक उसे लगा उसके एकाकीपन का एक यही हल है, जिसमें न तो उसे अपने स्व की तिलांजलि देनी होगी और न ही अपने एकाधिकार पर किसी का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ेगा. इससे उसे अकेलेपन से भी मुक्ति मिल जाएगी तथा कोई तो ऐसा होगा, जिसे वह सिर्फ़ अपना कह सकेगी.
सच है, नकारात्मक विचार जहां निराशा का संचार करते हैं, वहीं सकारात्मक विचार आशा का. आशा-निराशा, दुख-सुख तो जीवन में आएंगे ही, पर मनुष्य वही है, जो इन सबके बीच भी सामान्य ज़िंदगी जीने की कोशिश करे. एक सहज मार्ग तलाश ले. इसी के साथ प्रियंका ने एक निश्‍चय कर लिया, वह अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेकर अपने जीवन को नया आयाम देने का प्रयत्न करेगी. वह बच्चा न केवल उसके जीवन के अधूरेपन को दूर करेगा, वरन् बुढ़ापे में भी जीने का संबल बनेगा. उसकी मासूम हंसी में अपने दुख, अपनी परेशानियां भूलकर, नए दिन का प्रारंभ नव उमंग, नव उत्साह के साथ किया करेगी.
एकाएक ममत्व का सूखा स्त्रोत बह निकला. एकला चलो रे का मूलमंत्र उसने अपने मन से निकाल फेंका. उसी दिन उसने अनाथाश्रम से एक बच्चा गोद ले लिया. उस अनजाने प्राणी को गोद में लेते ही उसके संपूर्ण व्यक्तित्व में पूर्णता का एहसास जग गया. उसकी मासूम मुस्कुराहट ने उसे जीवनदान दे दिया. मन का अवसाद कोसों दूर भाग गया. उसे जीने की नई राह मिल गई थी.
- सुधा आदेश



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