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कहानी- जीवन लाल को मिला जीवन (Short Story- Jeevan Lal Ko Mila Jeevan)

जीवन लाल समझने लगे थे बाबुओं की उंगलियां सैकड़ा वाली, साहब की सहस्त्रवाली होती हैं. एक वह मल्लाह था, जिसने अपनी क्षमतानुसार धन लगाकर उनका जीवन बचाया, एक यह सरकारी तंत्र है जो उन्हें आधिकारिक तौर पर जीवित करने की क़ीमत मांग रहा है. वे साहब के मुख को नहीं, उंगलियों को देखने लगे.

सुषमा मुनीन्द्र

जीवन लाल उन दिनों के सेवानिवृत्त हैं, जब 58 वर्ष में सेवानिवृत्ति होती थी. पत्नी अनंती उन दिनों की गोलोकवासी है, जब कोरोना अस्तित्व में नहीं आया था. अपने नामों से शर्मसार रहने के कारण नौकरी लगते ही गेंदालाल से जी. एल. मांगीलाल से एम. एल. हो गए. दोनों पुत्र अलग-अलग शहर में बैंक की अच्छे पद वाली नौकरी कर रहे हैं. जीवन लाल अपने गृह जिला बीजपुर में रहते हुए उन दिनों लॉकडाउन बिता रहे थे. उन्होंने बाबू पद की शोभा बढ़ाते हुए लगभग पूरी नौकरी बीजपुर में की. तबादले पर एक-दो बार आसपास गए ज़रूर, लेकिन परिवार को बीजपुर में रखते रहे कि स्कूल अच्छा है. आसपास गए, जल्द ही जहाज के पंछी की भांति बीजपुर लौट आए. यहीं दो कमरे का मकान बनवाया, जो बनते-बनते आठ कमरों वाला हो गया. यहीं से अपने गांव उच्च कल्प जाकर अम्मा, बाबू, खेतों की खैरियत देख आते. अम्मा, बाबू अब नहीं हैं. खेत ठाँस (जिसे बोवाई के लिए खेत दिया जाता है उससे प्रति वर्ष निर्धारित रकम वसूली जाती है) में उठा दिए गए हैं. लॉकडाउन क्या लगा, इन्हें ओटीटी पर प्रदर्शित की जा रही वेब सीरीज़ और मूवी का चस्का लग गया. शाम से टीवी देखने लगते हैं, जो रात दस बजे तक देखते हैं.
काग़ज़ मूवी देखते हुए वे साल 1953 के 40 साल की आयु में पदार्पण कर गए. कभी भावुक हुए, कभी गंभीर हो गए. उस सत्र की घटना जिसे दुर्घटना कहना न्याय के क़रीब होगा, उनके मानस में पैबस्त है. काग़ज़ का केन्द्रीय पात्र पंकज त्रिपाठी उन्हें सम्मोाहित किए रहा. वह जैसे अभिनय नहीं कर रहा था, उनका जीवन जी रहा था. उसके अभिनय में ऐसे सजीव भाव थे, जो भुक्त भोगी होते हुए भी उनकी मुख मुद्रा में न रहे होंगे. सचमुच कई बार अभिनय जीवन से अधिक असरकारक हो जाता है. पंकज को कपटी रिश्तेेदारों ने सरकारी अमले से सांठ-गांठ कर मृत साबित करा दिया था, उन्हें दुर्घटना ने जीवित से बॉडी बना दिया. मूवी में पंकज ने तमाम तरह के दांव-पेंच लगाए, पर शासकीय नियमों से बंधे वे हुक्मरानों के सम्मुख निवेदन ही कर सकते थे.
जीवन लाल ठीक-ठीक क़िस्म का जीवन जी रहे थे कि बॉडी बन गए. मनुष्य मरते ही बॉडी क्यों कहा जाने लगता है, यह शोध का विषय है. वे बस से नातेदार की तेरही में जा रहे थे. दूसरे दिन सुबह लौटने को कह गये थे, जो दाहिने हाथ और बाईं कनपटी पर पट्टी बांधे, होश फाख़्ता किए ग्यारहवें दिन दुपहरी में लौटे. सोच रहे थे कि आराम करते, पथ्य और खाते तंदुरुस्त हो जाएंगे, पर घर के सदर द्वार पर बड़ा ताला जड़ा था. लगा उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठा अनंती रोज़ बाज़ार-हाट कर रही है. वे ओटले पर बैठे रहे. अब यह क्षेत्र सड़क, पानी, बिजली, टेलीफोन वाला सम्पूर्ण आवासीय हो गया है, तब सपाट मैदान था. वाजिब दूरी पर चार-छह मकान दिखाई दे जाते. सबसे समीप वाले घर में रहने वाली नीरू से अनंती की मित्रता रही. दोनों ज़रूरत मुताबिक़ कटोरी लेकर शक्कर, चायपत्तीे, नमक मांगने एक-दूसरे के घर पहुंच जातीं. बाद में कटोरी में नाप कर लौटा देतीं. वे इन 11 दिनों में काफ़ी अशक्त हो गए थे. दुपहर की गरमाहट सही न गई, तो अनंती की जानकारी लेने हेतु नीरू के घर गए. उन्हें देख नीरू के पति के मुख से विस्मित निनाद निकला, “भ भ… भूत…’


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वे यथार्थ से पूरी तरह अनभिज्ञ थे, “मोहल्ले में भूत आ बसे हैं क्या?”
“आप भ…”
“मैं जीवन लाल, नहीं पहचानीं?”
“आप बस एक्सीडेंट में मर गए थे ना?”
“मैं?”
“जिस बस में गए थे, वह बाढ़ के कारण पुल टूट जाने से नदी में बह गई, आप…”
वे मानसिक-दैहिक रूप से अशक्त हो चुके थे. लगा नीरू सदमा दे रही है.
“मैं नदी में बह गया था, पर बच गया.”
नीरू की इच्छा हुई उन्हें टटोल कर देखे, जीवित हैं या प्रेत बनकर उसे सताने चले आए हैं. पराए पुरुष को टटोलना उसे शील के विरुद्ध लग रहा था. भय भी था यदि प्रेत हैं, तो छूते ही उसके भीतर समा जाएंगे. चालाक प्रेत झांसे देते हैं. सम्भव है पछार-पछार कर पटकें.
“पुलिस वाले आपकी लाश पहुंचा गए थे. ऐसी बुरी हालत में थी कि अनंती मुश्किल से पहचानी.”
“किस पराए मर्द को पहचान लिया?”
“आपको. गांव में आपका दाह संस्कार हुआ.”
“दाह संस्कार…?”
“परसों तेरही है.”
गाथा सुनकर उनकी धड़कन इतनी तेज़ और असामान्य हो गई, जिसे वे उंगलियों के पोरों में साफ़-साफ़ महसूस कर रहे थे.
“मुझे गांव जाना होगा.” वे बस स्टैंड आ गए.
गफ़लत में याद न रहा, उच्च कल्प के लिए मात्र दो बसें हैं. पहली सुबह आठ बजे रवाना होती हैं, दूसरी 12 बजे. दोनों बसें जा चुकी हैं. बस उच्च कल्प के पहुंच मार्ग वाले मोड़ पर सवारी को उतारकर आगे चली जाती थी. मोड़ से पांच किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. उन्होंने दो समोसे खाकर मुसाफिरखाने में रात बिताई. मच्छरों ने उन्हेें अपना आहार बनाया. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे किसी होटल में रात बिताते. घर में ताला जड़ा था. सुबह आठ बजे वाली बस पकड़ मोड़ पर उतर गए.
बड़े किसान, कुलीन द्विज, सरकारी बाबू जैसी दक्षता के कारण उच्च कल्प में उन्हें सम्मान प्राप्त था. मार्ग में मिलने वाले लोग जोहार करते थे. उस दिन लोग उन्हें देखते ही एक ओर हो गए कि भूत का मार्ग नहीं रोकना चाहिए. वह उनके भीतर वास कर सकता है. वे घर पहुंचे. कच्चे घर में चौगान से आंगन तक कल दिए जाने वाले तेरही भोज की हलचल व्याप्त थी. अवसर दुख का हो या सुख का- लोकाचार करना पड़ता है. बाबू चौगान में पड़ी खाट पर बैठे मिले. वे बाबू की ओर ऐसे दौड़े जैसे उन्हें अरसे बाद देख रहे हों.
“बाबू…”
बाबू इस तरह उठकर खड़े हो गए जैसे देह में स्प्रिंग लगी है. यदि यह जीवित हैं, तो दाह किसका कर दिया? यदि प्रेत हैं, तो अब भी अच्छे वस्त्रों के मोह में पड़े हैं. बंडी परदनी में उम्र गुज़ारने वाले बाबू को अच्छे वस्त्र पहनना अपव्यय लगता था. बाबू के विपरीत जीवन लाल को अच्छे वस्त्र पहनने का जुनून है. क़ीमती की हैसियत नहीं थी, अत: सस्ते साफ़ स्वच्छ वस्त्रों को लोहा कर इस तरह पहनते कि बाबू समुदाय में कुलीन दिखते थे. उन्होंने बाबू के चरण मज़बूती से पकड़ लिए, “बाबू…”
बाबू का मुख ऐसा हो गया मानो चरण भूत के पंजे में है.
“बाबू, मैं बहुत तकलीफ पाया.”
उपस्थित लोग एक घेरे की शक्ल में उनके ईदगिर्द सिमट आए. उन्होंने चमत्कृत होते हुए घटित कहा, जिसे लोगों ने चमत्कृत होते
हुए सुना.
“इतना याद है बस नदी में गिर रही है. फिर मैं अचेत हो गया. नहीं जानता कब तक अचेत रहा. होश आने पर देखा, नदी के उस पार बसे चार-छह घर वाले गांव में एक मल्लाह की झोपड़ी में हूं. बूढ़े मल्लाह ने मुझे बचाया. देसी इलाज किया. पांच दिन बुखार रहा. सिर जैसे जाम हो गया था. चोट देख ही रहे हो. पुल टूटने से उस गांव का सम्पर्क मार्ग बंद हो गया. वहां बिजली अब तक नहीं पहुंची, टेलीफोन तो बीजपुर में ठीक से नहीं पहुंचा, वहां कैसे पहुंचता. मेरा बैग कहां गया मालूम नहीं. मल्लाह के परिवार ने मेरी बहुत सेवा की. कमज़ोरी से उठ नहीं पाता था. चलते समय मल्लाह ने कुछ पैसे दिए. ये जो कपड़े पहने हूं इसके अलावा मेरे पास कुछ नहीं था. मल्लाह ने अपने कपड़े पहनाए. उसकी घर वाली ने इन कपड़ों को धो दिया. मल्लाह मेरे लिए देवता बन गया… कभी जाकर उसकी कुछ आर्थिक सहायता कर दूंगा…”

लोग इस तरह सम्मोहन में दिख रहे थे, मानो नदी पार की नहीं यम लोक की कथा सुन रहे हैं. बाबू का कंठ भर आया, “भला आ गए जीवन. हम तो जीते जी मर गए थे. भीतर जाओ.”
भीतर की दशा दयनीय थी. चार पुत्रियों के बाद जन्मे अकेले वारिस- जीवन लाल किसी को ढा़ंढस न होता था. अनंती घूंघट में सिसक रही थी. बहनें सदमे में थीं. अम्मा उन्हें पकड़ कर दुलराने लगीं.
“हमारी आतिमा कहती थी तुम राजी खुसी हो.”
बहनें, अम्मा की बात दुहराने लगीं. उन्हें लगा उनके जीवित होने का फ़ायदा उठाया जा रहा है. आत्मा कहती थी जीवित हैं, तो दाह किसका कर डाला? अपरिचित के शव में ऐसी क्या समानता देखी, जो उसे जीवन लाल मान लिया? या कि इकलौते पुत्र की मृत्यु ने ऐसा संज्ञाशून्य कर दिया कि बाबू ने कुछ न सोचते हुए मान लिया पुलिस सही व्यक्ति का शव सौंप रही है. अम्मा संताप बताते-बताते बता गईं, “जीवन, तुम्हारे दफ़्तर वालों का दिल उदार है. तीन हज़ार रुपिया भेजे कि जरूरत पड़ेगी.”
जीवन लाल के लिए एक और सदमा.
तात्कालिक सहायता के तौर पर राशि दी गई अर्थात कार्यालय में उन्हें मृतक मान लिया गया है. चाहते थे तत्काल दफ़्तर पहुंच कर अपने जीवित होने का प्रमाण दें, पर उच्च कल्प की धरा में यह जो अकल्पित सा घटा था, उसे जानने के लिए लोग दिनभर उन्हें घेरे रहे.
दूसरे दिन तड़के उठ गए.
पहली बस पकड़ अनंती और बेटों के साथ बीजपुर पहुंचे. घर से साइकिल ले दफ़्तर पहुंचे. दफ़्तर के लोगों ने उन्हें बॉडी या प्रेत नहीं माना, लेकिन असाधारण भाव से इस तरह देखा जैसे उनकी देह में विस्फोटक पदार्थ भरा है. सामूहिक स्वरों ने उन्हें घेर लिया, “जीवन लाल… आप… तुम… कैसे?”
उन्होंने चहुं ओर घूम कर सबको नमस्ते किया. बाढ़ में बहने की गाथा बताई. बड़े बाबू ने मर्म कहा, “हम लोगों ने तुम्हारी आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन रख प्रार्थना कर डाली. बड़े साहब हरदम तुम्हारी गलतियां निकालते थे. शोक सभा में उन्होंने तुम्हारे ऐसे-ऐसे गुणों पर प्रकाश डाला, जो मुझे नहीं लगता तुम्हारे स्वभाव में हैं.”
जीवन लाल भावविभोर हो उठे. बड़े साहब ने उन्हेें काबिल मान ही लिया. इच्छा हुई धावक की तरह बड़े साहब के कक्ष में जाकर उनसे लिपट जाएं या चरणों में लोट जाएं और बोलें, “बड़े बाबू आपको नहीं लगता, पर साहब को लगता होगा, तभी न…”
“चलो साहब से मिल लो. अब तुम ग़लतियां करने वाले बाबू नहीं, चमत्कार हो.”
वे बड़े साहब के कक्ष में जाने से झिझक रहे थे मानो जीवित बचकर लज्जास्पद क्रिया कर बैठे हैं. साहब को सलाम ठोकते, इसके पूर्व साहब वो चीखे, “जीवन लाल… आप…”
साहब के मुख पर चस्पा भयानक भाव को देख कर वे लटपटा गए.
“जी. डयूटी पर आ गया हूं.”
“ड्यूटी नहीं कर सकते. आप ज़िंदा नहीं हैं.”
“ज़िंदा हूं साहब.”
“सरकारी रिकॉर्ड में ज़िंदा नहीं हैं. नगर निगम ने आपका मृत्यु प्रमाणपत्र जारी
किया है.”
घटना का सार कह अनुनय की, “आपके समक्ष जीवित खड़ा हूं.”
“देख रहा हूं, पर आपको सरकारी रिकॉर्ड में जीवित होना पड़ेगा. जब तक जीवित नहीं होते, नौकरी नहीं कर सकते.”
“परिवार भूखों मर जाएगा साहब.”


“नगर निगम कार्यालय चले जाइए. त्रुटिवश जारी हुए मृत्यु प्रमाणपत्र को रद्द करा जीवित होने का प्रमाणपत्र ले आइए.”
जीवन लाल को लगा वे न अवनी के वासी हैं न अंबर के.
अंतरिक्ष में कहीं अटक गए हैं. वे जीवित हैं, लेकिन नहीं हैं. काग़ज़ बता रहा है जीवित नहीं हैं. वे नगर निगम पहुंचे. यहां हरदम गहमागहमी बनी रहती है. कई कर्मचारियों से पूछताछ करते हुए अपने काम से संबंधित नामदेव बाबू की मेज तक पहुंच सके. नामदेव बहुधा अन्तर्ध्यान रहता है. भाग्यवश यथास्थान मिल गया. उनकी गाथा सुन वह कतई नहीं चौंका. जैसे प्रत्येक छोटी-बड़ी स्थिति में निर्विकार रहना उसकी पहली पसंद है. गाथा सुन निर्विकार भाव से बोला, “मृत्यु प्रमाणपत्र जारी हुआ है, इसका मतलब आप जीवित नहीं हो. यहां मृतक आवेदन नहीं कर सकते. जीवित करते हैं.”
उन्होंने नामदेव को अग्रज बना लिया, “बड़े भाई मृत्यु प्रमाणपत्र को निरस्त कराने की कृपा करें. मेरी नौकरी चली जाएगी. चली ही गई है.” “किसी की नौकरी बचाना मेरा काम नहीं है.”
आपदा और अड़चन ने उन्हें बरगला रखा था. जो भी कहना चाहते थे यह कह गए.

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“आपका काम तो जन्म और मृत्यु को संचालित करना है.”
“ठीक बात. यहां जन्म और मृत्यु के प्रमाणपत्र बनते हैं. मृतक को जीवित करने के नहीं बनते.” सरकारी कर्मचारी होने के कारण वे जानते थे त्रुटि के निराकरण के लिए दान दक्षिणा का प्रचलन है. कुछ कर्मचारी दक्षिणा पाने के लिए तमाम तरह की नज़ाकत दिखाते हैं. उन्होंने नामदेव को दो उंगलियां दिखाईं. दो उंगलियां अर्थात दो सौ रुपया. आज तो दो सौ में अच्छा पिज़्ज़ा तक नहीं मिल पाता है. उन दिनों यह रकम सम्मानजनक समझी जाती थी. दो उंगलियां देख नामदेव कुपित हो गया, “दो में कोई ज़िंदा हुआ है, जो आप होंगे? तीन चाहिए.”
प्रकरण नाज़ुुक था. मोल-भाव से बात बिगड़ सकती थी. उन्होंने तीन सौ नामदेव के हवाले किए. नामदेव के निर्विकार मुख प्रदेश में कर्तव्य भाव उदित हुआ, “आवेदन लिखना आता है?”
“हां. सरकारी मुलाजिम हूं.”
“यहां ऐसे-ऐसे प्राणी आते हैं, जिन्हें हाथ जोड़ने के अलावा कुछ नहीं आता. बोलकर लिखवाना पड़ता है.”
“आवेदन लिख लाया हूं.”
उन्होंने आवेदन पत्र नामदेव को पकड़ा दिया. नामदेव बुदबुदा कर बांचने लगा, “श्रीमान, सेवा में निवेदन है कि आवेदक को बस दुर्घटना में त्रुटिवश मृत घोषित कर मृत्यु प्रमाणपत्र जारी कर दिया गया है. आवेदक नदी में बह गया था जिसे एक मल्लाह द्वारा बचा लिया गया. अस्तु निवेदन है कि आवेदक को जीवित घोषित किए जाने की कृपा करेें.
आवेदक
जीवन लाल
नामदेव ने उन्हें भर्त्सहना से देखा, “श्रीमान? यहां पर सभी श्रीमान हैं. अधिकारी का पद, विभाग, जिला स्पष्ट लिखो.”
“बड़े भाई, दिमाग़ थका है. मैं दूसरा आवेदन लिख देता हूं.”
उन्होंने नामदेव के निर्देशानुसार आवेदन लिखा. नामदेव ने कुछ देर इधर-उधर देखते हुए व़क्त चौपट किया, फिर आवेदन पत्र के साथ टिप्पणी लिख कर फाइल तैयार की- मृतक जीवन लाल के द्वारा उनके जीवित होने की सूचना दी गई है. तत्संबंधी प्रमाणपत्र जारी किए जाने का निवेदन किया गया है. प्रकरण श्रीमान के अवलोकनार्थ एवं अग्रिम कार्यवाही के निर्देश जारी किए जाने हेतु प्रेषित है.
अग्रिम कार्यवाही का संज्ञान लेने हेतु वे अक्सर नगर निगम पहुंचे रहते. कई दिन अस्पष्ट जानकारी देने के बाद नामदेव ने स्पष्ट कहा, “फाइल भेज दी है. आप सरकारी मुलाजिम हैं. जानते होंगे काम में समय लगता है. परामर्श है, एक बार बड़े साहब से मिल लो.”
कई प्रयास के बाद साहब से भेंट हो पाई. वे हलाल की मुद्रा में साहब के सम्मुख प्रस्तुत हुए. बड़े साहब ने उन्हें सरसरी निगाह से देखा, “कहिए.”
“मैं जीवन लाल.”
“आप हैं. इतने दिन क्या कर रहे थे?”
वे पूरी गाथा बताते हुए बोले, “नहीं जानता था सरकारी रिकॉर्ड में मृतक बना दिया जाऊंगा.” “दुर्घटना के बाद नहीं, पूछ रहा हूं आवेदन देने के बाद क्या कर रहे थे?”
वे भ्रमित हो गए. साहब आवेदन के बाद की जानकारी चाहते हैं. उन्होंने दुर्घटना बता डाली. दुर्घटना बताने का इतना अभ्यास हो गया है कि कुछ और मुंह से फूटता ही नहीं. बोले, “निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा था.”
“निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि मैं आपके द्वार पर आकर आपको जीवित होने का प्रमाणपत्र पकड़ाऊंगा?”
“कृपा चाहिए साहब.”
“आपके कारण इतनी गंभीर शासकीय त्रुटि हो गई. आपको जीवित करने का मतलब सरकारी दफ़्तरों में होने वाली असावधानी को स्वीकार करना होगा.”
“इच्छा होती है आत्महत्या कर लूं. मृत्यु प्रमाणपत्र जारी हो ही चुका है.”
“आप सरकारी कर्मचारी हैं. असामाजिक बात करना शोभा नहीं देता. मृतक को जीवित करना जोखिम का काम है, पर देखता हूं क्या हो सकता है. नामदेव बाबू से मिल लें.”
“उन्होंने बाबू से मिल लें…” वाला संकेत ग्रहण किया, पर कह न सके. बाबू के माध्यम से क्यों आप सीधे दक्षिणा ले लें. ऐसा कुछ न करना चाहते थे, जिससे कुपित हो साहब उनके जीवित होने में अड़चन डालें. नामदेव की सीट पर आए. नामदेव ने उन्हें बैठने को कह दो उंगलियां दिखाईं.
“साहब को देना पड़ेगा.”
अर्थात इस दफ्तर में साहब, बाबू सभी का एक रेट है. उन्होंने खीसे से सौ के दो नोट निकाले, “बड़े भाई. साहब को दे दीजिएगा.”
“मंद बुद्धि हैं क्या? वे साहब हैं. एक शून्य और मिलाइए.”
“दो हज़ार जीवित होने के लिए बहुत नहीं है.”
“मेरे लिए बड़ी रकम है.”
“बच्चे के जन्म पर नर्सिंग होम वाले तीन-चार हज़ार लूट लेते हैं. आपका तो पुनर्जन्म होना है. साहब दयालु हैं. कह रहे थे जीवन लाल को मेरे पास क्यों भेज रहे हो? तुम सम्भाल लो. मैंने भेजना ज़रूरी समझा, वरना आप कहते सारा माल मैं हजम कर लूंगा.”
“अभी इतना नहीं लिए हूं.”
“कल लाइए. जब चाहें तब लाइए.”
अनंती ने आपातकाल के लिए उनके खीसे से थोड़ा-थोड़ा चुरा कर तीन-चार हज़ार जमा पूंजी बना रखी थी. वही जमा पूंजी आपातकाल में काम आई. उन्होेंने नामदेव को रकम दी. रकम ने प्रकरण को गति दी. साहब ने उनके जीवित होने के जांच के आदेश दिए. जिस इंस्पेक्टर को जांच सौंपी, उसने उनसे पांच सौ झटक लिए कि उनका जीवित होना उसकी जांच पर निर्भर है. इंस्पैक्टर घर आया. अनंती, मांगी लाल, गेंदा लाल से उचित-अनुचित प्रश्‍न पूछे. मुहल्ले और दफ़्तर में पूछताछ की. रिपोर्ट बनाई- कथित मृतक के पुत्र उसे पापा सम्बोधित कर रहे थे. मृतक की पत्नी अनंती सिंदूर, बिंदी, मंगल सूत्र, बिछुआ जैसे सुहाग चिह्न धारण किए थी. मुहल्ले और दफ़्तर के लोगों ने उसे खाते-पीते, चलते-फिरते देखा है. इससे उसके जीवित होने की पुष्टि होती है. तदनुसार प्रतिवेदन अनंती के बयान सहित अग्रिम कार्यवाही हेतु अग्रेषित है.
रिपोर्ट पढ़कर बड़े साहब ने टाइप बाबू से पत्र टाइप कराया- मृतक के संबंध में जांच के आदेश दिए गए थे. रिपोर्ट से मृतक के जीवित होने की पुष्टि होती है. रिपोर्ट की कॉपी संलग्न है.
वे जीवित होने का प्रमाणपत्र जल्दी से जल्दी हस्तगत करना चाहते थे. प्रफुल्ल भाव से नामदेव के पास गए. नामदेव ने सूचित किया, “फाइल बड़े साहब के पास भेज दी गई है. उनके हस्ताक्षर होने हैं.”
वे भ्रमित हो गए.
“बड़े भाई, यहां कितने बड़े साहब हैं?”
“बताया तो यहां सभी श्रीमान हैं. ये बड़े साहब दफ़्तर के सबसे बड़े साहब (शीर्ष अधिकारी है) हैं.”
“हस्ताक्षर कब तक हो जाएंगे?”
“जब उनकी मर्जी होगी.”
“कब आऊं?”
“आते रहें.”
फाइल शीर्ष अधिकारी की मेज पर कुछ दिन पड़ी रही. फिर टीप लगाकर दो हज़ार झटकने वाले बड़े साहब के पास भेज दी गई.
समस्त रिपोर्ट का अवलोकन किया गया. प्रकरण गंभीर है. भविष्य में कई विसंगतियों को जन्म दे सकता है. मृतक के जीवित होने के संबंध में डॉक्टरी परीक्षण करवाएं एवं शपथ पत्र प्रस्तुत करने हेतु निर्देशित करें. तदुपरांत समुचित एवं सुस्पष्ट प्रतिवेदन के साथ प्रकरण भेजा जाए.
नामदेव ने उन्हें आते रहने को कहा था. वे दो-चार दिन में नगर निगम पहुंच जाते. नामदेव ने उन्हें देखते ही कहा, “बड़े साहब से मिल लें.”
“कौन से वाले? यहां तो सब श्रीमान हैं.” “पहले वाले बड़े साहब.”
नामदेव ने दो उंगलियां दिखा कर समझाया, जो दो हज़ार ले चुके हैं. उन्हें लगा अब उन्हें जीवित होने से कोई नहीं रोक सकता. बड़े साहब ने उनकी उम्मीद को क्षीण कर दिया, “जीवन लाल जी, बड़े साहब (शीर्षस्थ अधिकारी) ने चिकित्सीय परीक्षण का आदेश दिया है. मैंने इस ओर विचार नहीं किया. लापरवाही हो गई.” “जीवित होने के लिए और क्या-क्या करना होगा साहब.”
“डॉक्टर से जांच करा लें और हां, एक बार साहब से मिल लें.”
“अभी मिल लूं.”
“दफ़्तर में वे व्यस्त रहते हैं. बंगले में मिल लें.”


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साइकिल फटकारते हुए वे चिकित्सक के क्लीनिक गए. फीस दी. गाथा कही. चिकित्सक के लिए यह अनोखा केस था. उन्होंने सहानुभूतिपूर्वक जांच कर रिपोर्ट तैयार की- इस व्यक्ति की छाती में हृदय धड़क रहा है. प्राकृतिक रूप से सांस लेता और छोड़ता है. नब्ज़ भी चल रही है. रक्तचाप सामान्य है. सभी इंद्रियां सुचारू रूप से काम कर रही हैं. जीवन के वे सभी लक्षण मौजूद हैं, जो जीवन लाल के जीवित होने की पुष्टि करते हैं.
रिपोर्ट लेकर वे बंगले गए. कुछ देर बंगले के बाहरी गेट के बाहर असमंजस में खड़े रहे. फिर साहस कर परिसर में प्रविष्ट हुए. घरेलू नौकर ने नाम पूछा. बाहरी दालान में रखी बेंत की कुर्सी पर बैठने को कहा. वे कतार में रखी चार कुर्सियों में अंतिम वाली पर बैठ गए. सोचते रहे, साहब को दंडवत प्रणाम कर अर्ज करेंगे, “आयु पूरी होने से पहले तो यम भी नहीं बुलाते. हस्ताक्षर कर मुझे जीवन-मरण के जंजाल से निकालने का कष्ट करें. पन्द्रह-बीस मिनट बाद प्रश्नवाची-सा मुख बनाए हुए साहब ने दर्शन दिए. वे सम्मान में खड़े हो गए.
“साहब, मैं जीवन लाल…”
प्रकरण से साहब भलीभांति परिचित थे. तत्परता से बोले, “आप हैं जिसे सरकारी रिकॉर्ड में मृत मान लिया गया है?”
“जी. जीवन दान देने की कृपा करें.”
साहब ने कृपा करने में विलंब न किया. दाहिने हाथ की पांच उंगलियां फैला दीं. जीवन लाल समझने लगे थे बाबुओं की उंगलियां सैकड़ा वाली, साहब की सहस्त्रवाली होती हैं. एक वह मल्लाह था, जिसने अपनी क्षमतानुसार धन लगाकर उनका जीवन बचाया, एक यह सरकारी तंत्र है जो उन्हें आधिकारिक तौर पर जीवित करने की क़ीमत मांग रहा है. वे साहब के मुख को नहीं, उंगलियों को देखने लगे. साहब को यह अभद्रता जान पड़ी. लहजे में दबाव बना कर बोले, “प्रमाणपत्र चाहिए न?”
“जी.”
“सामान (मुद्रा) घर पहुंचा दें, दफ़्तर से प्रमाणपत्र ले लें.”
“बड़ी रकम है. व्यवस्था करने में समय लगेगा.”
“मुझे जल्दी नहीं है.” कह कर साहब भीतर लोप हो गए. पैसे ने मानव मात्र को कितना निर्दयी बना दिया है. वे कुछ देर ठगे से खड़े रहे. फिर सिर झुकाए हुए लौट गए.
पांच हज़ार एकत्र करने के लिए दर-दर भटके. सहकर्मियों से मांगा. वे मुकर गए. जीवित होने का प्रमाणपत्र न मिला, तो मृतक जीवन लाल से उधारी वसूलना असम्भव होगा. घर में लगभग डेढ़ हज़ार बरामद हुआ. वे उच्च कल्प गए. बाबू के पास कुछ रुपया था. कुछ अड़ोस-पड़ोस से मांगा कि फसल बेचकर चुका देंगे. साहब के घर पर उन्हें रकम सौंपते हुए लग रहा था अपना कलेजा सौंप रहे हैं. दूसरे दिन नगर निगम गए. नोट शीट तैयार थी- प्रकरण में उपलब्ध साक्ष्य, डॉक्टरी रिपोर्ट, निरीक्षक के प्रतिवेदन व अन्य अधिकारियों की टीप से प्रमाणित होता है कि जीवन लाल जीवित है. उनके जीवित होने का प्रमाणपत्र जारी किए जाने का आदेश जारी किया जाता है. वे प्रमाणपत्र को ऐसे देख रहे थे जैसे सचमुच मर गए थे, जो किसी सिद्ध संत के मंत्रोच्चार से जीवित हो उठे हैं. यह भी लगा नश्‍वर संसार में नगर निगम की सील व शीर्षस्थ अधिकारी के हस्ताक्षर के अतिरिक्त सब मिथ्या है. जीवित होने के उपलक्ष्य में उनसे टाइप बाबू, डाक बाबू, भृत्यह आदि ने दक्षिणा वसूली. मंथर गति से साइकिल चलाना सुरक्षित मानते थे, लेकिन द्रुत गति से साइकिल सरसराते हुए अपने दफ़्तर पहुंचे. दिल में उठती हिलोरें लिए बड़े साहब के सम्मुख विनयशील होकर खड़े हुए. शीतल वाणी में बोले, “साहब, मैं जीवित हो गया.”
उपलक्ष्य में साहब ने बधाई देते हुए मुद्दे की बात की.
“चूंकि आप जीवित हैं, मरणोपरांत मिलने वाला शासकीय लाभ आपको नहीं दिया जा सकता. आपके अंतिम संस्कार के लिए कार्यालय ने आपके परिवार को तीन हज़ार रुपया दिया था. रकम लौटाकर पद भार ग्रहण करें.”


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कहना चाहते थे- हितैषियों से ऋण लिया, अनंती की बचत हड़पी, कहें तो उसके जो दो-चार गहने हैं, उन्हें बेच दूं या अपनी धमनियों का रक्त निथार कर बेच दूं? वे इतने स्तब्ध थे कि मात्र एक शब्द का उच्चारण कर पाए, “जी…”
“शासकीय नियमों का पालन करना होगा.”
वे सिर झुकाए घर में दाख़िल हुए. अनंती ने उनकी मनोदशा की थाह ली, “आज भी ज़िंदा नहीं हुए?”
“हो गया. वे तीन हज़ार दफ़्तर में जमा करने हैं, जिससे तुम लोगों ने मेरा दाह कर डाला.”
“कहां से लाओगे?”
उनकी गिद्ध दृष्टि अनंती के गहनों पर टिक गई. “यह जो मंगलसूत्र कंठ में लटकाए फिरती हो, इसे बेच कर लाऊंगा.”
“यह सुहाग चिह्न है.”
“सुहाग न रहेगा, तो सुहाग चिह्न का क्या करोगी?”
अनंती ने कान से बालियां, उंगली से अंगूठी, कंठ से मंगलसूत्र उतारकर उनके सम्मुख फेंक दिया. उन्होंने ढीठ की तरह उठा लिया. परिचित स्वर्णकार के पास गए.
“बड़े भाई, गहने रखकर तीन हज़ार दे दो. धीरे-धीरे चुकाकर मुकता (छुड़ा) लूंगा.”
स्वर्णकार ने असमर्थता व्यक्त कर दी. गहने बेचने पड़े. तीन हजार कार्यालय में जमा किए. चूंकि वे बॉडी से व्यक्ति बन गए थे, दफ़्तरवालों ने उनके सौजन्य से चाय-समोसे का स्वानंद लिया.
आज उन्हें याद नहीं इस घटना को कितने लोगों से कितनी बार बताया. काग़ज़ मूवी देखते हुए लगा मूवी नहीं देख रहे हैं, विगत को जी रहे हैं. पंकज की मुख मुद्रा देखकर कई बार अनायास मुस्कुराए. पंकज त्रिपाठी ने अभिनय से जो पीड़ा, दबाव, तिरस्कार, असमंजसता को चेहरे में व्यक्त किया, वे भुक्तभोगी होकर भी शायद व्यक्त नहीं कर पाए थे. करते भी कैसे? वे अभिनय नहीं कर रहे थे. स्थिति को जी रहे थे. अभिनय में जान डाली जाती है. स्थिति से जूझना पड़ता है.

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