"मैं भी तो अपने पिता की सौतेली बेटी हूं, तो क्या... किसी दिन वह भी मेरे साथ ऐसा कुछ कर सकते हैं? क्या सौतेला होने से रिश्तों की गरिमा ही खो जाती है? पिता, पिता नहीं रह जाते हैं. और बेटी, बेटी नहीं? क्या सभी सौतेले पिता ऐसे ही होते हैं? याद है मुझे, एक दिन अमर पापा ने मुझसे कहा था कि मैंने अमृता से शादी तुम्हारे लिए ही की है... तब उनकी बात सुन कर मैं बहुत ख़ुश हो गई थी, पर क्या उनका मतलब कुछ और ही था?.."
“निशू... निशू... जल्दी करो बेटा. देर हो रही है.” निशा ने अपने पापा की पुकार पर ठंडे स्वर में कहा, “आप जाओ, मुझे नहीं जाना आपके साथ! मैं अकेले चली जाऊंगी.” निशा के पापा अमर शायद जल्दी में थे, इसलिए ज़्यादा बात न करते हुए वे ऑफ़िस के लिए निकल गए.
निशा पिछले एक सप्ताह से कोई न कोई बहाना बनाकर अपने पापा के साथ स्कूल जाना टालती रही, पर आज तो उसने साफ़-साफ़ कह ही दिया कि वह उनके साथ जाना ही नहीं चाहती. निशा के पापा भी ऑफ़िस जाते हुए यही सोच रहे थे कि निशा को क्या हो गया है? निशा पिछले एक सप्ताह से उनके साथ इतना अजीब व्यवहार क्यों कर रही है? इसके पहले तो निशा उनसे इतनी बेरूखी से पेश नहीं आती थी! अब अचानक क्या हो गया उसे? क्या उसका वही पुराना रोष फिर लौट आया है? क्या निशा उसे अब तक अपने पिता के रूप में स्वीकार नहीं कर पाई है? नहीं... नहीं, अभी कुछ दिनों पहले तक तो सब ठीक था, वह मुझे पापा कह कर बुलाती थी और उसका बर्ताव, उसके हक़ जताने का भाव सब कुछ तो एक सगी बेटी की ही तरह था, फिर अचानक क्या हो गया? सोचते-सोचते अमर अतीत की गलियों में एक बार फिर खो गया. निशा की मां अमृता और अमर एक ही ऑफ़िस में काम करते थे. तीन साल पहले जब अमृता ट्रांसफर होकर अमर के ऑफ़िस में आई थी तो वह पहली ही नज़र में अमर के मन को भा गई. नई-नई होने के कारण अमर ने अमृता की काफ़ी मदद की थी और जल्दी ही दोनों अच्छे दोस्त भी बन गए. तभी अमर को पता चला कि अमृता ना स़िर्फ विधवा है, बल्कि उसकी एक 12 साल की बेटी भी है. पर अमर का प्यार कोई लड़कपन का प्यार नहीं था जो यह सब देख कर घबरा जाता. अमर एक खुले विचारोंवाला इंसान था और 35 की उम्र में वह अपने लिए किसी 16 साल की लड़की की कामना भी नहीं करता था. उसने निशा को देखते ही अपनी बेटी मान लिया. अमर का अमृता के घर आना-जाना होने लगा था. निशा भी अमर अंकल को पसंद करती थी. पर जब उसे यह पता चला कि उसके अमर अंकल उसकी मां से शादी करके उसके पापा बनना चाहते हैं तो वह इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पाई. वह अमर को अपने पापा की जगह नहीं देख पा रही थी. इस पर अमर और अमृता ने तय किया कि जब तक निशा अमर को अपने पापा के रूप में स्वीकार नहीं कर लेती, तब तक दोनों शादी नहीं करेंगे. काफ़ी समय इसी इंतज़ार में बीत गया. फिर एक घटना ने सब कुछ बदल कर रख दिया. हुआ यूं कि अमृता निशा को अपनी एक सहेली कली के पास छोड़ कर दो दिन के लिए ऑफ़िस के काम से बाहर गई थी. उसी दिन निशा का स्कूल से लौटते समय एक्सीडेंट हो गया. कली ने घबरा कर अमर को फ़ोन करके बुलाया. तब अमर ने ही निशा को अस्पताल ले जाकर उसका इलाज करवाया और अमृता के लौटकर आने तक निशा को अपने घर लाकर उसकी देखभाल करता रहा. इस घटना ने अमर को निशा के मन में एक आदर्श पिता के रूप में स्थान दिला दिया. तब निशा के ही कहने पर अमर और अमृता ने शादी कर ली. अमर के आने पर निशा भी बहुत ख़ुश रहने लगी. अब वह अपने को मां की नहीं, पापा की बेटी कहती. निशा अक्सर अमर से कहती कि पापा, मुझे अपने पापा की तो याद नहीं, पर यक़ीन है कि वे भी मुझसे उतना प्यार नहीं करते जितना आप करते हैं. अमर भी निशा की हर छोटी-बड़ी बात का ख़याल रखता. उसकी हर बात सुनता. वह भरसक कोशिश करता कि निशा को कभी उसके पापा की कमी न महसूस होने पाए. अमर सोचने लगा कि सब कुछ तो ठीक चल रहा था, फिर अचानक क्या हो गया जो निशा उससे इतनी कटी-कटी रहती है. न उसके साथ कहीं घूमने जाती है और न ही पहले की तरह पापा-पापा करके उसके गले से झूलती है. निशा की यह बेरूखी उसके लिए असहनीय हो रही थी. वह निशा से बहुत प्यार जो करता था. शाम को जब अमर वापस लौटा तो निशा के कमरे में गया, पर निशा कमरे में नहीं थी. उसकी टेबल पर एक डायरी रखी थी, जिस पर लिखा था पर्सनल. कौतूहलवश अमर उसे उठाकर देखने लगा. वह निशा की डायरी थी. पढ़ते-पढ़ते अचानक अमर की नज़र एक पेज पर ठहर गई. तारीख़ ठीक एक सप्ताह पहले की थी. उस पेज पर लिखा था- ‘आज मैंने एक पत्रिका में एक कहानी पढ़ी, जिसमें एक पिता अपनी सौतेली बेटी के साथ बलात्कार करता है. मैं भी तो अपने पिता की सौतेली बेटी हूं, तो क्या... किसी दिन वह भी मेरे साथ ऐसा कुछ कर सकते हैं? क्या सौतेला होने से रिश्तों की गरिमा ही खो जाती है? पिता, पिता नहीं रह जाते हैं, और बेटी, बेटी नहीं? क्या सभी सौतेले पिता ऐसे ही होते हैं? याद है मुझे, एक दिन अमर पापा ने मुझसे कहा था कि मैंने अमृता से शादी तुम्हारे लिए ही की है... तब उनकी बात सुन कर मैं बहुत ख़ुश हो गई थी, पर क्या उनका मतलब कुछ और ही था? आज मुझे अपने उस निर्णय पर बहुत पछतावा हो रहा है जब मैंने मम्मी को उनसे शादी करने के लिए रजामंदी दे दी थी. आइ हेट यू पापा... पापा नहीं, अमर... आई हेट यू अमर...’ अमर यह सब पढ़कर दंग रह गया. एक कहानी का इतना असर! क्या कहे इसे! कहानी की सफलता या निशा की बेवकूफ़ी! अब सारी बात अमर के सामने आईने की तरह साफ़ हो गई. उसे निशा की बेरूखी का मतलब भी समझ में आ गया. अचानक उसे निशा पर क्रोध हो आया, निशू ने मुझे इतना गिरा हुआ समझ लिया, वह भी एक कहानी के कारण?, फिर ठंडे दिमाग़ से सोचने पर उसे लगा कि निशा पर क्रोध करने या उसे दोष देने का कोई औचित्य नहीं है. दोष तो उसकी नाज़ुक उम्र का है, जिसके कारण उसने किसी पत्रिका में छपी एक कहानी को आधार बना कर मेरे चरित्र का ग़लत आंकलन कर लिया. वह नादान यह भी नहीं समझ पाई कि कोई भी बात सभी इंसानों पर समान रूप से लागू नहीं होती. और ना ही हर इंसान को एक ही तराजू में तौलना सही है. खैर, अमर ने निर्णय लिया कि इस बारे में निशा से बात करके उसका भ्रम तोड़ना ही होगा, वह ऐसे ही किसी कहानी के कारण अपनी लाड़ली बेटी को नहीं खो सकता. अगले दिन रविवार था, अत: निशा और अमृता घर पर ही थे. निशा अपने कमरे में ख़ुद को बंद किए बैठी थी. अमर सोच रहा था कि आज निशा अकेली कैसे बैठी है, अभी पिछले रविवार को ही उसने पिक्चर जाने के लिए अमर की नाक में दम करके रख दिया था. ‘बस, अब और नहीं झेल सकता मैं. अब और अपनी बेटी को दूर जाते नहीं देख सकता. उसे वापस लाना ही होगा...’ सोचते हुए अमर निशा के कमरे की ओर बढ़ गया. निशा बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी. अमर उसके पास बैठते हुए बोला, “पता है निशू... ये पत्रिकाएं भी अजीब होती हैं, तरह-तरह की कहानियां छपती हैं इनमें. कुछ प्रेरणादायक होती हैं. तो कुछ भटकाने वाली और कुछ तो ऐसी होती हैं, जिन्हें बस पढ़ा जाता है, उनमें ग्रहण करने लायक या छोड़ने लायक कुछ होता ही नहीं, पता है निशू, बचपन में मैंने एक कहानी पढ़ी थी, उसमें एक लड़के के पास एक चिराग़ होता है, जिसे रगड़ने से एक जिन्न निकलता है और उसके हर हुक्म को पूरा करता है. इस कहानी को पढ़कर मैं भी कहीं से एक चिराग़ ढूंढ़कर ले आया और लगा उसे रगड़ने कि शायद मुझे भी एक जिन्न मिल जाए जो मेरा हर काम कर दे. तब मेरी मां ने मुझे समझाया कि ऐसा कुछ नहीं होगा. कहानियां तो बस मन बहलाव के लिए होती हैं, उन्हें हक़ीक़त मान कर अपनी ज़िंदगी में नहीं उतार लेना चाहिए. हर आदमी की अपनी अलग ज़िंदगी होती है. किसी दूसरे के जीवन में घटित घटना को आपबीती मान कर अपने जीवन का निर्णय नहीं करना चाहिए. हर व्यक्ति के जीवन में अलग-अलग घटनाएं घटती हैं, ज़रूरी नहीं कि जो कहानी के पात्र के साथ हुआ, वह तुम्हारे साथ भी हो... कहानियां सामान्य जीवन से ही निकल कर आती हैं, पर उनमें लेखक के विचारों की मिलावट भी होती है, वे पूरी तरह सच्ची नहीं होतीं. कहानियां पढ़नी चाहिए, पर इतनी गहराई से भी नहीं कि आप जीवन और कहानी के फ़र्क़ को ही भूल जाएं. कहानी बस एक कहानी होती है, कभी कल्पनाओं के घोड़े पर सवार, कभी यथार्थ को छूकर निकलती हुई और कभी हक़ीक़त से कोसों दूर... पर कहानियां हर बार अनंत संभावनाओं से भरी हुई होती हैं, संभावनाएं अच्छी भी हो सकती हैं और बुरी भी. अच्छी संभावनाओं का स्वागत करना चाहिए, पर बुरी संभावनाओं को अनछुआ ही रहने देना चाहिए... तुम समझ रही हो ना निशू, मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूं.” इतना कहकर अमर ने निशा के सिर पर हाथ फेरा और किचन में जाकर खाना बनाने में अमृता का हाथ बंटाने लगा. थोड़ी देर बाद निशा वहां आई और अमर का हाथ पकड़ते हुए बोली, “आप ठीक कहते हैं, सारी कहानियां सच्ची नहीं होती हैं, पर सारे प्रॉमिस सच्चे होने चाहिए, है ना? और आपने मुझसे प्रॉमिस किया था कि आप आज मुझे और मम्मी को आइसक्रीम खिलाने ले जाएंगे, हम चलेंगे ना पापा...?”
- कृतिका केशरी