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कहानी- काकी का टिफिन (Short Story- Kaki Ka Tifin)

विभा काकी से आते-जाते ख़ूब बातें करती. काकी भी कभी उसके पास आकर बैठ जाया करतीं. विभा के दिमाग़ में काकी की बातें घूमती रहतीं. विभा का मन काकी के लिए करुणा से भरा रहता. जितना उनका स्वभाव जान रही थी, उतना उनके साथ मन से जुड़ती जा रही थी. काकी अपने बेटे-बहू, पोते-पोती की हमेशा तारीफ़ करतीं.

पड़ोस में नई आई विभा सामनेवाले घर की अस्सी वर्षीया चंदा काकी को देखकर बहुत ख़ुश होती थी, जब भी काकी से बात होती, काकी से हमेशा कुछ न कुछ सीख मिल ही जाती थी. काकी अकेली रहती थीं. ऐसा नहीं कि उनका कोई नहीं था. भरापूरा घर-परिवार था, पर अलग-अलग रहता था. काकी का एक बेटा विदेश में, दूसरा उसी घर में अपने परिवार के साथ ऊपर के पोर्शन में रहता. विभा को अपनी छत के एक कोने से दिखाई देता रहता कि काकी का पोता काकी के लिए खाने का टिफिन नीचे लेकर जाया करता. विभा को यह देखकर अच्छा लगता कि चलो, काकी के खाने-पीने का ध्यान बेटा अलग रहकर भी करता है.
काकी मस्त अंदाज़ में हमेशा विभा को कहतीं, ''मुझे खाने-पीने का बहुत शौक है, जो मन करता है, कहकर बनवा लेती हूं.‘’
विभा काकी से आते-जाते ख़ूब बातें करती. काकी भी कभी उसके पास आकर बैठ जाया करतीं. विभा के दिमाग़ में काकी की बातें घूमती रहतीं. विभा का मन काकी के लिए करुणा से भरा रहता. जितना उनका स्वभाव जान रही थी, उतना उनके साथ मन से जुड़ती जा रही थी. काकी अपने बेटे-बहू, पोते-पोती की हमेशा तारीफ़ करतीं.
विभा के पति टूर पर रहते, दो छोटे बच्चों के साथ विभा उनकी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहती, पर बीच-बीच में काकी की ज़िंदगी पर नज़र डालने का लोभ संवरण छोड़ न पाती. काकी के बेटा-बहू उसे शुष्क से इंसान लगते. कभी उन्हें काकी के साथ कहीं आते-जाते, हंसते-बोलते नहीं देखा था, पर काकी थी कि इतने शौक से बताती कि आज टिफिन में क्या था, क्या चीज़ अच्छी बनी थी, क्या चीज़ बहुत दिनों बाद खाई. काकी जितना इमोशनल होकर बात करतीं, उतनी ही प्रैक्टिकल भी थीं.

Kahaniya


विभा के पति सुनील जब घर होते, विभा काकी की बात करती, तो वे कहते, ''विभा, तुम्हारी काकी तो तुम्हारे सिर चढ़कर बोलती हैं, इतना दिल मत लगाओ उनसे, हम किराएदार हैं, यहां से जाना होगा, तो काकी को याद करके फिर उदास रहोगी."
''क्या करूं सुनील, काकी इस उम्र में भी कितनी ज़िंदादिल हैं, एक प्रेरणा-सी मिलती है उनसे. यहां तो अपने रिश्तेदार ही दूर हो गए, सब के सब मतलब के दोस्त थे.'' विभा अपने पुराने ज़ख़्म याद कर उदास होती रही.
शिकायतों का एक दौर शुरू हुआ, तो विभा दिल की भड़ास निकालती रही, सुनील क्या कहते. हां, यह सच था कि विभा का दिल कुछ अपनों के व्यवहार से दुखी था.
एक बार यूं ही सर्दियों की एक शाम को विभा काकी से मिलने उनके घर गई, उनकी गैलरी में उसे काकी और उनके पोते की आवाज़ सुनाई दी.
पोता राकेश कह रहा था, ''दादी, इस बार आपने अभी तक टिफिन के पैसे नहीं दिए. पापा ने कहा है कि महीने की तीन तारीख़ हो गई, पेंशन तो आ गई होगी? और पापा ने यह भी कहा है कि महंगाई बहुत बढ़ गई है, अब दो हज़ार नहीं, तीन हज़ार दिया करना टिफिन के लिए.‘’


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''अरे, इतना महंगा? इससे अच्छा तो मैं सामनेवाली गली से टिफिन मंगा लूंगी, मुझे सस्ता पड़ेगा.‘’
''सोच लो दादी, हम वही बना कर देते हैं, जो आप कहती हैं बिना मिर्च-मसाले का खाना, आपको ऐसा घर जैसा खाना बाहर मिल जाएगा?''
''हां, ये बात भी है, पर जाकर पूछ कर आ कि ढाई हज़ार चलेगा?''
''ठीक है, पूछ कर आता हूं.'' कहकर राकेश जाने के लिए मुड़ा, तो विभा तुरंत चुपचाप वापस लौट आई. उसकी आंखों से आंसू बहे चले जा रहे थे. मन कर रहा था कि दौड़ कर जाए और काकी को अपने सीने से लगा ले, पर नहीं काकी के झूठ का भ्रम रखने के लिए वह भारी मन से घर की तरफ़ चलती रही. काकी के टिफिन के स्वाद का सच बहुत कड़वा था…

पूनम अहमद

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