वृंदा ने एक बार फिर गौर से तस्वीर को देखा. जिस मज़बूत किले में वह अपने आपको सुरक्षित महसूस कर रही थी उसी किले की दीवारें एक-एक करके गिरती जा रही थीं. यह उसके पति मनोज की तस्वीर थी. वृंदा को लगा जैसे ज़मीन पर पड़ा सारा का सारा कांच उसके सीने में धंस गया है.
“एक्सक्यूज़ मी, आप वृंदा है ना?”
पीछे से अपना नाम सुनकर वृंदा ने पलटकर देखा. एक पल पहचानने की कोशिश के बाद अनायास ही वृंदा के मुंह से निकल पड़ा, “अरे शैली तुम, कैसी हो?”
“थैंक गॉड़, मैंने सही पहचाना. पहले तो मैं डर ही रही थी कि कहीं कोई और ना हो. लेकिन तुम्हें इतने दिनों बाद देखा तो मैं ख़ुद को रोक नहीं पाई. कितने अरसे के बाद मिल रहे हैं ना हम. तुम यहां कब आई?”
“कुछ ही दिन हुए हैं यहां आए. आजकल बच्चों के स्कूल की छुट्टियां चल रही हैं ना इसलिए सोचा कि कुछ दिन मां-बाबूजी के साथ बिता लूं.”
“तो ठीक है, आज मैं ज़रा जल्दी में हूं, तुम्हें जब भी समय मिले घर ज़रूर आना. आराम से बैठकर ढेर सारी बातें करेंगे. ये रहा मेरा कार्ड.” शैली ने अपना विज़िटिंग कार्ड वृंदा के हाथ में थमाते हुए कहा और फिर वृंदा से आने का वायदा लेकर डिपार्टमेन्टल स्टोर से बाहर निकल गई.
वृंदा बच्चों के स्कूल की छुट्टियों में अपने मायके आई हुई थी. बच्चों का ही कुछ सामान ख़रीदने के लिए डिपार्टमेन्टल स्टोर तक चली आई थी और यहां उसकी मुलाक़ात अचानक ही शैली से हो गई थी.
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घर आने के बाद भी वृंदा के दिमाग़ में शैली ही घूम रही थी. वृंदा और शैली एक ही मोहल्ले में रहती थीं. शैली के पिता आर्मी में थे. उन्हें दूर-दराज़ के इलाकों में रहना पड़ता था, इसलिए शैली को उसकी बुआ के पास पढ़ने के लिए भेज दिया गया था. गोरी-चिट्टी ख़ूबसूरत शैली शोख मिज़ाज की स्वच्छन्द विचारोंवाली लड़की थी. उसका गठीला बदन, बड़ी-बड़ी आंखें आसानी से किसी को भी आकर्षित कर सकती थीं. बात-बात पर ठहाका लगाकर हंस पड़ती. हंसते हुए गालों में गड्ढ़े पड़ते तो उसकी सुंदरता और बढ़ जाती. अपनी सुंदरता और आधुनिक पहनावे के कारण शैली मोहल्ले की दूसरी लड़कियों से अलग ही दिखती थी.
शैली कभी सलवार-कमीज़ पहनती तो दुपट्टा गले में झूलता हुआ मानो रस्म ही पूरी करता. छोटी मिडी और ऊंची सैंडल पहनकर इतनी अदा से चलती कि देखने वालों के दिल हलक में आ जाते. कॉलेज जाना हो या कहीं और, इतना सज-धज कर निकलती जैसे किसी सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जा रही हो.
कॉलेज जाते समय नुक्कड़ पर मनचलों का जमावड़ा ही लग जाता. अपने ऊपर कसने वाले फिकरों से परेशान होने की जगह शैली इस तरह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाती जैसे उसे किसी बड़ी उपाधि से नवाज़ा गया हो. मोहल्ले में वह चालू लड़की के रूप में पहचानी जाने लगी थी. ख़ुद को इ़ज़्ज़तदार कहनेवाले घरों ने अपने परिवार की लड़कियों पर शैली से मिलने-जुलने, बातचीत करने पर पाबंदी लगा दी थी, क्योंकि उन्हें शैली की संगति में अपना मान-सम्मान ख़तरे में दिखाई देने लगी थी. वृंदा को भी शैली से मिलने-जुलने की मनाही थी, लेकिन दोनों के कॉलेज के रास्ते एक होने की वजह से अक्सर दोनों की बातें हो जाती थीं. एक दिन शैली का अच्छा मूड़ देखकर वृंदा पूछ ही बैठी “तुम जानती हो शैली, तुम्हें लेकर लोग किस तरह की बातें करते हैं?”
“जानती हूं यार, मुझे सब मालूम है. मोहल्ले वाले जलते हैं मुझसे, इसलिए अनाप-शनाप बोलते रहते हैं. बट, आई डोन्ट केयर.”
“लेकिन शैली.....”
“छोड़ वृंदा.” शैली ने उकताए हुए स्वर में कहा, “लोगों की चिंता करके मैं इस उम्र में बूढ़ी दिखना नहीं चाहती और तू भी लोगों की परवाह ज़रा कम किया कर, नहीं तो ़फेयर लेड़ी की जगह ओल्ड लेडी लगेगी.” फिर ठहाका लगाकर हंस पड़ी.
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मोहल्ले की लड़कियों के लिए अछूत बन चुकी शैली उन तमाम लड़कों के आकर्षण का केन्द्र थी, जिन्हें दिनभर मटरगश्ती करने के अलावा कुछ काम न था. शैली के नए-नए प्रेम के क़िस्से मोहल्ले की हवाओं में गूंजते रहते जिनमें अधिकतर सच्चाई कम ही होती और मनगढ़ंत क़िस्से ़ज़्यादा. उन्हें फैलाने वाले लोग भी वही होते जिन्हें वह नज़र उठाकर देखती भी न थी. बी.ए. करने के बाद कॉलेज बंद होने से वृंदा का शैली से मिलना-जुलना बंद ही हो गया था. फिर एक दिन सुनने में आया कि शैली किसी के साथ भाग गई. उसके बाद फिर कभी उसकी ख़बर नहीं मिली.
इधर वृंदा के पिताजी वृंदा के विवाह के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे. काफ़ी दौड़-धूप के बाद वृंदा का विवाह मनोज से हो गया. मनोज की एक मल्टीनेशनल कंपनी में नई-नई नियुक्ति हुई थी और दूसरे शहर में कार्यरत थे. शादी के कुछ समय बाद वृंदा भी मनोज के पास चली गई थी. अब तक वृंदा दो प्यारे-प्यारे बच्चों की मां बन चुकी थी.
इतने वर्षों के बाद अचानक शैली को देखकर वृंदा के मन में उसके बारे में जानने की चाह जाग उठी थी. इतना व़क़्त बीतने पर भी शैली में लेशमात्र परिवर्तन नहीं आया था. वही बोलती-सी आंखें, वही मादक मुस्कान, वही छरहरी काया. शैली की सूनी मांग देखकर इतना तो वह समझ ही गई थी कि शैली ने शादी नहीं की. अचानक ही वह अपनी तुलना शैली से करने लगी. साधारण रंग-रूप होने के बावजूद आज वह ख़ुद को शैली से ़ज़्यादा श्रेष्ठ समझ रही थी. वह सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रही थी. उसके पति मनोज उसे बहुत प्यार करते थे. उनका प्यार उसे एक मज़बूत किले के समान लगता था जिसके साए में वह अपने बच्चों के साथ सुरक्षित महसूस करती थी, जहां एक ओर उसके पास मनोज जैसे प्यार करने वाले पति थे, दो फूल से बच्चे उसके जीवन की बगिया को महका रहे थे, वहीं दूसरी ओर शैली के जीवन की रिक्तता उसे साफ़ नज़र आ रही थी. उसे शैली के साथ हमदर्दी होने लगी थी.
एक दिन शाम को मां से सहेली के यहां जाने का बहाना बनाकर वृंदा शैली के घर जाने के लिए निकल पड़ी. महानगर की भीड़भाड़ से दूर समुंदर के किनारे पॉश कॉलोनी में शैली का फ्लैट था. अपने घर वृंदा को आया हुआ देखकर शैली प्रसन्नता से खिल उठी.
“आओ वृंदा, मैं तो समझी थी कि तुम नहीं आओगी.”
“आती कैसे नहीं? तुमसे मिलने का इतना मन जो था. कैसी हो तुम.”
“कैसी दिख रही हूं?” शैली हल्के से मुस्कुरा उठी. एक लंबे अरसे के बाद दोनों को आराम से बैठकर बातें करने का मौक़ा मिला था. काफ़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं. शैली को मूड़ में देखकर वृंदा पूछ ही बैठी, “एक बात पूछूं शैली? बुरा तो नहीं मानोगी?”
“हां-हां, बोलो.”
“तुमने तो अपने दोस्त के लिए घर छोड़ दिया था ना. क्या वो बेवफ़ा निकला? शादी नहीं की उसने?” वृंदा ने जैसे शैली की दुखती रग को छेड़ दिया था. एक फीकी-सी मुस्कान शैली के होंठों पर तैर गई.
“नहीं यार, वो तो बेवफ़ा नहीं है. वह तो चाहता था शादी करना, लेकिन उसके मां-बाप ने पैसों के चक्कर में कोई और लड़की उसके गले बांध दी.”
“लेकिन तुम्हें क्या मिला? स़िर्फ बदनामी. वह तो अपनी पत्नी के साथ मज़े में रह रहा होगा और यहां तुम अकेली ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर हो.”
“सबकी क़िस्मत में सब कुछ नहीं होता वृंदा.” शैली ने मायूसी से कहा.
“मनु ने शादी ज़रूर कर ली है, लेकिन उसका प्यार आज भी मेरा है. वह अपनी बीवी के पास होकर भी उसके पास नहीं है.”
“तुम अब भी उसके प्यार का दम भरती हो शैली?” वृंदा ने थोड़े आश्चर्य से कहा.
“अगर वह तुमसे सच में ही प्यार करता तो सारे ज़माने को ठुकराकर तुम्हें अपना बना लेता.”
“वह उसकी मजबूरी थी वृंदा.” शैली ने मनु का पक्ष लेते हुए कहा.
“मनु अपने मां-बाप का इकलौता बेटा है. मुझसे इतनी दूर रहकर भी मेरी ज़रूरतों का पूरा ध्यान रखता है. यह फ्लैट भी उसी ने दिया है. महीने में एक बार मेरे पास ज़रूर आता है, बाकी दिन मैं उसके फिर से आने के इंतज़ार में काट देती हूं.” शैली की आवाज़ में दिवानगी-सी झलकने लगी थी.
“तुम कुछ भी कहो शैली, क्या तुम्हें नहीं लगता कि अगर तुम इश्क़ के चक्कर में नहीं पड़ती तो आज बेहतर ज़िंदगी बसर कर रही होती.”
“अब जाने भी दो वृंदा.” शैली ने थकी-सी आवाज़ में कहा. फिर शायराना अंदाज़ में किसी अनाम शायर का शेर कह उठी, “कांटे ही किया करते हैं फूलों की हिफाज़त सब नेक बनेंगे तो खता कौन करेगा.”
फिर कुछ सोचकर बोली, “वृंदा, तुम देखना चाहोगी उसे?” फिर वृंदा के जवाब का इंतज़ार किए बिना ही तेज़ी से दूसरे कमरे में जाते हुए बोली “तुम बैठो वृंदा, मैं अभी आती हूं.”
कुछ पलों के बाद अचानक छन से किसी चीज़ के टूटने की आवाज़ आई. वृंदा लगभग दौड़ते हुए दूसरे कमरे में गई. शैली फ़र्श पर अपना पांव पकड़े बैठी थी. पास ही में एक स्टूल उल्टा हुआ पड़ा था, साथ ही कांच के टुकड़े और एक फ़ोटो. शायद उसने स्टूल पर चढ़कर फ़ोटो उतारने की कोशिश की थी, जिसकी वजह से वह फ़ोटो समेत नीचे आ गिरी थी.
“शैली, ठीक तो हो ना?”
“हां मैं तो ठीक हूं, लेकिन सारा शीशा टूट गया. देख ज़रा, फ़ोटो तो ठीक है ना?”
वृंदा ने आगे बढ़कर धीरे से फ़ोटो को उठाया. फ़ोटो पर नज़र पड़ने के बाद तो जैसे वह पलक झपकना ही भूल गई. उसे लगा जैसे उसके कानों के पास बम फूट रहे हों. शैली कुछ कह रही थी, पर वह क्या कह रही थी उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था.
“ये, ये...” वृंदा के मुंह से बस इतना ही निकल पाया.
“हां, यही है मेरी ज़िंदगी, मेरा प्यार, मेरा मनु.”
वृंदा ने एक बार फिर गौर से तस्वीर को देखा. जिस मज़बूत किले में वह अपने आपको सुरक्षित महसूस कर रही थी उसी किले की दीवारें एक-एक करके गिरती जा रही थीं. यह उसके पति मनोज की तस्वीर थी.
वृंदा को लगा जैसे ज़मीन पर पड़ा सारा का सारा कांच उसके सीने में धंस गया है.
वृंदा ने एक कहरभरी नज़र शैली पर डाली, वह दीवार का सहारा लेकर उठने की कोशिश कर रही थी. बाहर सूरज समुंदर में उतरने को तैयार था. उसकी लाल रौशनी सारे समुंदर को भी लाल किए हुए थी. वृंदा को लगा शायद कुछ कांच के टुकड़े समुंदर के सीने के भी पार हो गए हैं.”
- प्रीति विवेक
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