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कहानी- कशमकश (Short Story- Kashmakash)

मुरली मनोहर श्रीवास्तव

लक्ष्मी के मनोभाव का प्रकट न होना और शंकर के आध्यात्म से गुज़रते हुए भौतिक स्पर्श की अनुभूति का सांसारिक हो उठना ही रहस्यवाद है. एक गुरू इस रहस्यवाद को समझता है और वह संसार में रह कर भी उससे विरक्त हो उठता है.

बहुत आसान था अगर वह वैसे ही सब कुछ स्वीकार कर जी लेता जैसे उसे अपने आसपास दिखाई देते लोग जीते दिखाई देते हैं.
इंसान का बागी नेचर उसे बहुत तंग करता है. कई बार वह खुद भी परेशान हो जाते और सोचता क्या जरूरत है सच की गहराई में उतरने की. छोड़ो भी जो जैसा है वैसा है उसे चुपचाप वैसा ही मान लो, जैसे सारी दुनियां जी रही है वैसे ही जीते रहो शांति से जिंदगी पूरी हो जाएगी. लेकिन वह क्या करें उनसे सब कुछ जस का तस मान लेते नहीं बनता था.
बस यही वह मोड़ था जहां वह पिछले कई महीनों से खुद के भीतर बेचैनी महसूस कर रहे थे. जिंदगी का सीधा रास्ता तो कहता है, बहुत हुआ अब पैक करो, सेमेंट लो खुद को इस संसार से, बाहर कुछ नहीं रक्खा है अपने भीतर झांको और बचे हुए समय को पूजा पाठ में लगाओ इहलोक तो गया परलोक सुधार लो.
दूसरी तरफ उनका दिल इसे मानने को तैयार नहीं था। उनकी सोच कहती कि जब तक सांस चल रही है तब तक खुद को सरेंडर कर देने का कोई अर्थ नहीं है. कल वह जिस प्रवचन से लौटे थे वहां भी स्वामी जी ने, भले ही दक्षिणा को हाथ न लगाया हो उनके सेवादार भक्तों द्वारा संस्था को दिए जाने वाले दान को सहर्ष स्वीकार कर रहे थे. गुरु पूर्णिमा के अवसर पर स्वामी हृदयानंद के आश्रम की छटा देखने लायक होती. ऋषिकेश में उस आश्रम में कदम रखने का स्थान न होता. देश विदेश से हजारों भक्त वहां उतर पड़ते. वैसे भी ऋषिकेश के मनोरम स्थल पर पूरे साल आश्रम में लोग आते जाते रहते । वहां कोई डिमांड नहीं थी लेकिन कोई ऐसा भी नहीं था जो वहां आए और अपनी सामर्थ्य के अनुरूप दान दे कर न जाए. कोई भी संस्था बिना लक्ष्मी की कृपा के नहीं चलती.
लक्ष्मी अजीब बात है हमारे देश में स्त्रियों के नाम देवियों के नाम पर क्यों रखे जाते हैं. ओह यही तो नाम था उस साध्वी का जिसे मिलने शंकर पिछले चार साल से लगातार आ रहे थे. गेरूए वस्त्र में दमकती उसकी देह उन्हें विचलित कर देती. अद्भुत आकर्षण था लक्ष्मी के व्यक्तित्व में, धीर गंभीर और जब साध्वी प्रवचन देती तो लगता मां सरस्वती कंठ में बैठी हों.
लेकिन वही लक्ष्मी जब स्टेज से उतर आश्रम के काम देखती भक्तों को स्नेह बांटती, तो उनकी सरलता देखने लायक होती और कभी आश्रम के पेड़ पैधों और प्रकृति के बीच यह कोई उसे विहार करते हुए देख ले तो अप्सरा का भान हो. कोई सौंदर्य प्रसाधन नहीं नैसर्गिक सौंदर्य ऐसा कि, विश्वामित्र भी रीझ जाएं. बातें इतनी मधुर कि क्या बच्चे क्या बड़े और क्या प्रौढ़ सब लक्ष्मी के सानिध्य को तरसते रहते. वह जिससे हंस कर बोल दे वह उसका मुरीद हो जाए.
कब और कैसे शंकर इस आश्रम में लक्ष्मी के भक्त हो गए उन्हें पता ही न चला. वैसे शंकर खुद भी तो किसी कामदेव से कम न थे, लेकिन अपनी पद प्रतिष्ठा और नैतिकता से कुछ ऐसे बंधे हुए थे कि तिल भर भी मन को डावांडोल न होने देते.

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लेकिन पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि जब लक्ष्मी स्वामी हृदयानंद के सानिध्य में भजन प्रस्तुत कर रही थी कि वो बोल उठे, "गुरुदेव ये देवी तो बहुत सुंदर गाती हैं. क्या हम इन्हें अपने संस्थान में आमंत्रित कर सकते हैं."
हृदयानंद बोले, "वत्स यह भी मेरे लिए ठीक वैसी ही है जैसे तुम. यह कोई छह महीने पहले आश्रम में आई थी और बस यहीं की हो कर रह गई. तुम देवी से पूछ लो उन्हें आपत्ति न हो, तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है."
और इस तरह लक्ष्मी का आवागमन ऋषिकेश से मथुरा, वृंदावन होते हुए न जाने किस किस नगरी होने लगा था.
तमाम अध्यात्म के बाद भी मानव बस मानव होता है.
शंकर अपने पद और रसूख से उसके कार्यक्रम आयोजित करवाते रहते, जिसमें लक्ष्मी को उपहार से ले कर आर्थिक लाभ तक सब प्राप्त होता. कुछ वाणी कुछ लक्ष्मी का तेज और कुछ चेहरे पर अप्रतिम सौंदर्य के साथ विरक्तता के भाव लक्ष्मी के व्यक्तित्व को रहस्यमय बना देते, जिससे पंडाल में बैठे श्रोता मंत्रमुग्ध हो उसे देखते और सुनते रह जाते.
इधर निरंतर मुलाक़ात से शंकर और लक्ष्मी के बीच अच्छी बातचीत होने लगी थी, लेकिन भक्ति और वैराग्य के मध्य सांसारिक प्रेम के लिए स्थान नहीं होता. आश्चर्य यह कि भागवत कथा में गोपियों के रासलीला का प्रसंग हो या वास्तविक जीवन की रासलीला, कथा में आगे बढ़कर दोनों का ऐसा एकाकार होता कि शंकर के लिए लौकिक और अलौकिक जीवन में अंतर करना कठिन हो जाता.
हम सब सामान्य मनुष्य हैं और बाकी ओढ़े हुए चोले हैं. धीरे-धीरे वे लक्ष्मी के प्रवास के समय, उसके साथ एकांतवास भी कर लेते, जिसमें ढेर सारी आध्यात्म और अलौकिक प्रेम की बातें होती. लक्ष्मी भी उनके सिर पर हाथ रखती कभी उनके हाथों को अपने हाथों में स्नेह से भर लेती. निःसंदेह लक्ष्मी उम्र में उनसे काफ़ी छोटी थी. वे पचास पार कर रहे थे और लक्ष्मी अभी तीस-बत्तीस रही होगी.
आध्यात्मिकता के बावजूद वे लक्ष्मी के स्पर्श से धीरे-धीरे अपने भीतर उत्तेजना और वासना के भाव महसूस करते. यह रस उन्हें अनजाने ही लक्ष्मी से जोड़े जा रहा था, लेकिन आध्यात्म के अपने नियम होते हैं. लक्ष्मी ने कभी भी उन्हें अतिक्रमण करने की इजाज़त नहीं प्रदान की थी. साथ ही किसी भी कार्यक्रम में साध्वी के दरवाजे सभी के लिए सदैव खुले रहते हैं, सो चाह कर भी शंकर बहक नहीं सकते थे. लक्ष्मी जहां रुकती उस स्थान के दरवाजे बंद नहीं होते थे. एक बात और शंकर और लक्ष्मी के भावों में अंतर है या नहीं कह पाना मुश्किल था.
लक्ष्मी साध्वी थी उसने वैराग्य ग्रहण कर लिया था, सो भौतिक दृष्टि से उसके भाव मोह माया से दूर हों, ऐसी कल्पना की जा सकती थी. किसी व्यक्ति के भीतर कौन सी भावना जन्म ले रही है इसे मात्र वह ही समझ सकता है कोई और नहीं. लक्ष्मी का शंकर के सिर पर हाथ रखना वात्सल्य भाव भी हो सकता था. जो लोग मानसिक रूप से परिपक्व हो जाते हैं वे उम्र से परे निकल जाते हैं यह बात लक्ष्मी की बातचीत और प्रवचन में झलकती भी थी. लक्ष्मी के मनोभाव का प्रकट न होना और शंकर के आध्यात्म से गुज़रते हुए भौतिक स्पर्श की अनुभूति का सांसारिक हो उठना ही रहस्यवाद है. एक गुरू इस रहस्यवाद को समझता है और वह संसार में रह कर भी उससे विरक्त हो उठता है. खैर आज यहां इस बात का कोई अर्थ नहीं था.
शंकर आज गुरू पूर्णिमा के अवसर पर स्वामी हृदयानंद के आश्रम में बैठे थे और यह इस आश्रम में उनकी चौथी गुरू पूर्णिमा थी. इस बार उनकी धर्मपत्नी सरिता भी साथ आई थी. वास्तव में हरिद्वार और आश्रम की उत्तम व्यवस्था ने सरिता को मंत्रमुग्ध कर दिया था. घर गृहस्थी से बाहर निकल कर वह भी शांति का अनुभव कर रही थी.
इधर शंकर लक्ष्मी के सानिध्य में बैठे थे कि उनकी नज़र अपनी पत्नी सरिता पर पड़ी. वह भी अध्यात्म में डूबी स्वामी हृदयानंद से बातचीत में मग्न थी. स्वामी हृदयानंद हंसते-खिलखिलाते एक से बढ़कर एक जीवन के प्रसंग सुना रहे थे. कभी विदेश यात्रा का वर्णन करते, तो कभी गंगा की कलकल धारा में सरिता को बहा ले जाते. सरिता भी जैसे जीवन के सभी तनाव भूल लच्छेदार प्रसंग में खोई हुई थी. तभी किसी सेवादार ने स्वामी हृदयानंदजी से मंच तैयार होने की बात कही. स्पष्ट था कि अब हृदयानंदजी को उठ कर मंच पर जाना था, जहां अपार भीड़ उनके सत्संग और प्रवचन की प्रतीक्षा कर रही थी.
स्वामीजी ने बड़े ही आदर भाव से कहा, "मां, अब मैं सत्संग के लिए चलता हूं, फिर समय मिलेगा तो और चर्चा होगी. भागवत कथा पर आप जब भी मुझे आमंत्रित करेंगी आपके नगर निश्चित रूप से आऊंगा."
इतना कह कर जैसे ही स्वामी हृदयानंद उठने को हुए सरिता ने झुक कर स्वामीजी के चरण स्पर्श किए और स्वामी हृदयानंद ने अपने आशीर्वाद का हाथ सरिता के सिर पर रखा. साथ ही हाथ हटाते समय सरिता का कंधा भी थपथपपाया. बोले, " यह आपका ही आश्रम है नियमित आती रहना."
स्वामी हृदयानंद तो इतना कहकर उठकर चल दिए. स्वामीजी के उठते ही लक्ष्मी भी उनके साथ उठकर चली गई.
लेकिन शंकर यह घटना बड़े ही ध्यान से देख रहे थे और अब अपने ही कशमकश में डूबे थे. आज उनके अपने मनोभाव जैसे उनसे ही चुगली कर रहे थे कि जिस प्रकार लक्ष्मी का स्पर्श उनके भीतर तरंग पैदा कर देता है, इस बात की क्या गारंटी है कि स्वामीजी या सरिता के भीतर स्पर्श मात्र से वह तरंग पैदा नहीं होगी.
किसी भी आध्यात्मिक प्रक्रिया में मन की चंचलता का अनुमान भर लगाया जा सकता है. वास्तविक मनःस्थिति का नहीं. और बस इतना सोचना था कि उनके भीतर वैराग्य और लौकिकता के बीच द्वंद प्रारम्भ हो गया. यह जो लहर है इस लहर का कोई ओर छोर नहीं होता और न ही ऐसे प्रश्नों के कोई सपष्ट उत्तर होते हैं कि व्यक्ति का स्पर्श सांसारिक है और कब आध्यात्मिक. वह चार साल से जिस अध्यात्म की खोज से गुज़रते हुए सांसारिकता और वैराग्य के बीच झूला झूल रहे थे, प्रीत की पेंग बढ़ा रहे थे और ख़ुद को अपने विचारों के खोल में सुरक्षित पा रहे थे, आज एक क्षण में उन्हे अपना सुरक्षा घेरा टूटता सा लगा. उन्हें एहसास हुआ कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही विरक्त हो जाना ही असली वैराग्य है. जिस रस को वह यहां आश्रम में चार साल से ढूंढ़ रहे हैं, वह एकमात्र मृगमरीचिका है, जिससे अति शीघ्र बाहर निकलना होगा.
यदि वे ऐसे ही कशमकश में जीते रहे, तो घर भी आश्रम हो जाएगा और तब न गृहस्थी बचेगी और न ही आश्रम में शरण मिलेगी. यह दूर से दिखाई देती आध्यात्म की रोशनी है, उसकी लौ को अपने भीतर ही जलाना होगा. इस कशमकश से बाहर निकलना ही होगा. जीवन के इन रहस्यवादी प्रश्नों के सटीक उत्तर कहीं नहीं मिलते…
अचानक उन्होने सरिता का हाथ पकड़ा बोले, " सरिता, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है. काफ़ी ठंड-सी महसूस हो रही है. सुनो ज़रा ड्राइवर को बुलाओ. घर निकलते हैं. यहां बीमार पड़ गया, तो दिक़्क़त होगी. वैसे भी आश्रम के कार्यक्रम में मेरी वजह से रंग में भंग पड़े यह मैं नहीं चाहता." सरिता ने पति को इस तरह घबराते और परेशान होते देखा, तो तुरंत मोबाइल से कॉल लगाकर ड्राइवर को बुला लिया.

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देखते ही देखते बस दस मिनट में एस यू वी 300 अस्सी की स्पीड से हरिद्वार से दिल्ली लौट रही थी. इस वक़्त दोनों के हृदय में न आश्रम था, न लक्ष्मी और न ही स्वामी हृदयानंद. शंकर शायद अपने जीवन की कशमकश से बाहर आ चुके थे. उनका सिर बैक सीट पर बैठी सरिता की गोद में था.

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