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कहानी- क़ीमत (Short Story- Keemat)

Dr. K. Rani
डॉ. के. रानी

"तुमने मेरी आंखें खोल दी मधु. मैं समझता था कि दुनिया में सब कुछ बिकता है, लेकिन समय नहीं. तुमने उसकी क़ीमत बताकर मेरे ऊपर जो एहसान किया उसे मैं जीवनभर नहीं भूलूंगा."
"कोई बात नहीं, जितना मैंने किया है उसकी क़ीमत तो आप मुझे दे ही चुके हैं."

पूरे एक हफ़्ते बाद सरला आज भतीजे की शादी से घर लौट रही थी. सुभाष सुबह जल्दी उठकर पत्नी का इंतज़ार कर रहे थे. वे हर आधे घंटे में फोन कर लेते.
"कहां तक पहुंचे हो?"
"चिंता मत करो हम जल्दी घर पहुंच जाएंगे." सरला बोलती और उन्हें स्टेशन का नाम बता देती.
उन्होंने आज कामवाली नीतू को भी जल्दी बुला लिया था, जिससे वह समय से नाश्ता तैयार कर दे. सरला के साथ उनका इकलौता बेटा शिशिर और उसकी बहू रश्मि भी थे. आधे घंटे में वह घर पहुंचने ही वाले थे कि तभी ऐसी ख़बर आई जिसकी सुभाष को सपने में भी उम्मीद न थी. रातभर गाड़ी चलाने की वजह से शिशिर को सुबह के समय झपकी लग गई और वह सड़क किनारे खड़े ट्रक से टकरा गया. एक्सीडेंट इतना भयानक था कि कार के परखच्चे उड़ गए और तीनों ने उसी जगह दम तोड़ दिया. ख़बर सुनते ही सुभाष बेहोश हो गए थे. काफ़ी देर बाद जब उन्हें होश आया तब तक उनकी दुनिया वीरान हो गई थी.
जीवन संध्या पर पत्नी, बेटे और बहू के इस तरह अचानक चले जाने से सुभाष का मन दुनिया से उचट गया. उस पर इतनी बड़ी विपदा आई थी कि उन्हें ख़ुद यकीन नहीं आ रहा कि उन्होंने इसे अकेले कैसे झेला.
'समय बड़े से बड़ा घाव भर देता है' बचपन से अपने बड़े-बुज़ुर्गो के मुंह से उन्होंने यह बात कई बार सुनी थी, लेकिन अब उसे हक़ीक़त में भुगत भी लिया था. उनकी दुनिया उजड़ गई थी. किसी तरह बासठ साल की उम्र में वे फिर से जीने की हिम्मत जुटा रहे थे.
वे सरकारी विभाग में अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हुए थे. उन्हें अच्छी-ख़ासी पेंशन मिल रही थी. रहने के लिए नौकरी के दौरान उन्होंने एक अच्छा-सा घर ले लिया था. सरला ने उसे बड़े प्यार से अपने अनुसार सजाया था. अब न सरला रही और न उनकी प्यार भरी दुनिया. घर में अकेले रहते हुए बेटे, बहू और पत्नी की यादें उन्हें रुलाती.
'आत्महत्या कायरता है' यह सोच कर वे किसी तरह अपने आपको संभाले हुए थे. अकेले उनका कहीं जाने का मन न करता. उन्होंने अपने आपको एक कमरे में क़ैद कर लिया था, जो कोई उनसे मिलने आता वह सहानुभूति दर्शाते हुए उनके दुख को कुरेद कर फिर से ताज़ा कर देता. इसीलिए उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया.
महीने भर बाद आज किसी तरह मन को मनाकर वे घर से बीस किलोमीटर समुद्र किनारे अकेले चले आए थे. भीड़भाड़ से दूर इस शांत जगह पर पानी की लहरों को देखते हुए उनके विचारों की तरंगे भी ऊपर-नीचे हो रही थी. यह जगह उन्हें भली लगी.
दो-तीन दिन से लगातार वे इसी जगह पर आ रहे थे. वे घंटों वहां बैठे रहते. अचानक तबियत बिगड़ जाने के कारण वे चार दिन तक यहां न आ सके. स्वास्थ्य ठीक होने पर घर पर मन न लगा, तो उन्होंने गाड़ी उठाई और वहीं समुद्र किनारे पहुंच गए. अभी उन्हें बैठे मुश्किल से पांच मिनट हुए थे कि शांत वातावरण में खनकती हुई मीठी आवाज़ गूंजी, "आपने आने में आज बहुत देर कर दी."
सुभाष को लगा जैसे सरला यहीं-कहीं उनके आसपास है और उससे यह सब कह रही है. ऑफिस से आने में जब कभी देर हो जाती, तो वह यही कहा करती थी.
सुभाष ने चौंककर गर्दन घुमाई. उनके ठीक पीछे पैंतीस छत्तीस साल की ख़ूबसूरत युवती खड़ी थी. हल्के गुलाबी रंग की झीनी साड़ी में लिपटी वह बहुत सुंदर लग रही थी. सुभाष से नज़रें मिलते ही उसने हाथ जोड़ दिए. बदले में सुभाष ने उसे कोई जवाब नहीं दिया. अंजान औरत से वह बात नहीं करना चाहते थे.
"आप चार दिन बाद यहां आए हैं. तबियत तो ठीक है?"
उसकी बात सुनकर सुभाष को बड़ा आश्चर्य हुआ. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह कौन औरत है, जो उसका लगातार पीछा कर रही थी.
'महानगरों की यही तो समस्या है न चाहते हुए भी लोग पीछे लग जाते हैं.' अपरिचित नज़रों से उसे देखते हुए वह बोले, "तुम्हें इससे क्या लेना-देना? तुम अपना काम देखो."
उसने उनकी बातों का बुरा नहीं माना और मुस्कुराकर बोली, "बहुत दुखी लगते हैं. उससे उबरने के लिए एकांत बहुत भला लगता है."
सुभाष तुरंत वहां से उठकर चल दिए और दूर जाकर रेत पर चहलकदमी करने लगे. उस औरत ने उनका पीछा नहीं किया. कुछ देर बाद वे उसी जगह वापस लौट आए. रह-रहकर उनके मन में एक ही बात घूम रही थी कि यह औरत उनका पीछा क्यों कर रही है.
देखने से तो किसी भले घर की संस्कारवान लग रही थी. पहनावा भी सादा था. घर आकर भी उसे लेकर कई प्रश्न और उनके दिमाग़ में चल रहे थे, लेकिन वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए. बड़ी मुश्किल से उन्होंने उसका विचार दिमाग़ से निकाला. दो दिन तक उन्होंने उस जगह का रुख नहीं किया और कुछ दूर जाकर अपनी शाम बिताने लगे. वे दुनिया से भागकर अकेले में समय बिताना चाहते थे. इसी वजह से वह घर से इतनी दूर आ रहे थे, लेकिन यहां पर भी पता नहीं वह औरत कहां से उसके बारे में जानने को उत्सुक हो गई.
मन के किसी कोने में शंका सिर उठा रही थी. 'ज़रूर वह उसका इंतज़ार कर रही होगी.' उत्सुकतावश वे तीसरे दिन फिर उसी जगह पहुंच गए. उन्हे देखकर उस औरत के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान फैल गई. वह बोली, "मेरा नाम मधु है. मेरे सवालों से बचने के लिए आप दो दिन यहां नहीं आए, लेकिन मुझे पूरा विश्वास था आप मुझसे मिलने ज़रूर आएंगे."
"तुम ठीक कहती हो. मैं तुम्हें पहचानता नहीं, तो मैं तुम्हारे सवालों के जवाब क्यों देता?"
"अब आप मुझे पहचानने लगे हैं. इस जगह अक्सर वे बुज़ुर्ग आते हैं, जिनकी ज़िंदगी में कोई बड़ा हादसा घटा होता है. कह लेने से मन हल्का हो जाता है." मधु बोली.

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सुभाष ने ज़्यादा बात आगे बढ़ानी ठीक नहीं समझी. वह जानता था आजकल बूढ़े लोगों को अपनी बातों के जाल में उलझाकर औरतें आसानी से अपना शिकार बना लेती हैं. क्या पता यह भी किसी गैंग की सदस्य हो और उसे अपने जाल में फंसाना चाहती हो. उन्हें इस तरह घबराकर उठते देख मधु मुस्कुरा दी और बोली, "आप मुझसे बेवजह डर रहे हैं. मैं ऐसी नहीं हूं. यहीं पास की कॉलोनी में रहती हूं. मेरे दो बच्चे हैं. शाम के समय अक्सर यहां घूमने चली आती हूं. आपको उदास देखा, तो मुझे आपसे सहानुभूति हो गई."
उसके कहने में ऐसा जादू था कि सुभाष चुपचाप वहीं बैठ गए.
"ऐसे हालात में अक्सर इंसान अकेला पड़ जाता है. उसे बात करने के लिए किसी साथी की ज़रूरत होती है, जिससे कहकर मन हल्का हो जाए. यही सोचकर मैं आपसे बातें कर रही हूं."
बहुत साहस जुटाकर वे बोले,
"तुम्हें बात करने के लिए किसी बुज़ुर्ग नहीं युवा साथी की ज़रूरत है, जो तुम्हारा दिल बहला सके और तुम्हारी ज़रूरतों को भी पूरा कर सके."
"आप ठीक कहते हैं, लेकिन मेरी युवाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है. बड़ी उम्र के बुज़ुर्ग लोग बहुत संवेदनशील होते हैं और दूसरे को समझते हैं. उनसे एक तरह का भावनात्मक रिश्ता जुड़ जाता है, जिसकी वे बड़ी कद्र करते हैं."
पुरुषों की मानसिकता पर मधु की पकड़ देखकर उन्हें बड़ा अच्छा लगा. उसकी हाज़िरजवाबी पर सुभाष को बड़ा आश्चर्य हो रहा था. मधु अपनी ओर से उनसे बातें किए जा रही थी और सुभाष हां या ना में उत्तर दे रहे थे. जीवन के इस मोड़ पर हताश सुभाष को इस समय मधु का साथ अच्छा लग रहा था पर भीतर से वे भयभीत थे कि पता नहीं आगे यह क्या गुल खिला दे.
घर आकर उन्होंने मधु का ख़्याल अपने दिमाग़ से झटकने की बहुत कोशिश की पर असफल रहे. उसकी बातों में बड़ा जादू था. उन्हें दूसरे दिन का इंतज़ार था. शाम होते ही वे वक़्त से पहले वहां पहुंच गए. मधु पहले से उनका इंतज़ार कर रही थी. उन्हें देखते ही उसके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान खिल गई. रेत पर टहलते हुए वे दोनों बातें करने लगे. बातों ही बातों में दो घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला. समुद्र किनारे ठंडी हवा के साथ मधु की बातों का सुभाष पर नशा-सा चढ़ रहा था. उसका साथ पाकर उनके अंदर फिर से जीने की ललक पैदा होने लगी थी.
हफ़्ते भर की मुलाक़ात के बाद वे दोनों एक-दूसरे के लिए अंजान नहीं रह गए थे. इतना सब होते हुए भी सुभाष उससे बातें करते हुए निजता का पूरा ख़्याल रखते. वे उसके साथ पूरी तरह खुले नहीं थे.
मधु ने उसे अपने बारे में बहुत कुछ बता दिया. दो साल पहले उसके पति की एक्सीडेंट में मौत हो गई थी. उसके दो छोटे बच्चे थे. वह किसी तरह अपनी गृहस्थी चला रही थी. शाम के समय वह रोज़ समुद्र किनारे आकर अपना दिल बहलाती. बच्चों की फीस के लिए भी उसके पास रुपए नहीं थे. सुभाष को उससे सहानुभूति हो गई और वे उसकी आर्थिक मदद करने लगे. आज उसे हज़ार रुपए थमाते हुए बोले, "फ़िलहाल इससे अपना काम चला लो. मुझे तुम भले घर की लगती हो जिसने इतने अभावों में रहकर भी ग़लत रास्ता नहीं चुना है."
उनसे आर्थिक सहायता पाकर मधु ख़ुश थी. वह अपनी छोटी-मोटी ज़रूरतें उन्हें बता देती और सुभाष उन्हें पूरा करने की भरसक कोशिश करते. एक दिन रेत पर टहलते हुए सुभाष बोले,
"तुम अभी जवान हो. पूरी ज़िंदगी अकेले कैसे काटोगी? अच्छा होगा किसी भले आदमी का हाथ पकड़कर अपना घर बसा लो."
"यह मेरे लिए संभव नहीं है. मुझे अपने बच्चों से बहुत प्यार है. मैं उन्हें ख़ुश देखना चाहती हूं. मर्द की ज़रूरत क्या होती है यह आप जानते हैं. उम्र निकल जाने पर कोई भाव नहीं देता. मुझे अपने से ज़्यादा बच्चों की फ़िक्र है."
"दुनिया में सब मर्द एक जैसे नहीं होते. कोशिश करोगी तो तुम्हें कोई भला आदमी ज़रूर मिल जाएगा."
"रहने दीजिए मैं जैसी हूं ठीक हूं. आप जैसे सज्जन बुज़ुर्ग मेरे घर की ज़रूरतों को पूरा कर देते हैं. मुझे और क्या चाहिए?" मधु बोली, तो सुभाष ने राहत की सांस ली. उन्हें मधु के साथ घंटे-दो घंटे बात करने से लगने लगा कि उनका जीना कितना आसान हो गया है, वरना उनके लिए यह ज़िंदगी बोझ बन गई थी.
इंसान का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है. किसी का सुंदर साथ पाकर भावनाएं बाहर आने को अपने आप मचल जाती हैं. जब से सुभाष को मधु का साथ मिला, उन्हें सरला की याद कम ही आती. वे अब ख़ुशी-ख़ुशी अपने काम निपटा देते. वे ख़ुद को पहले के मुक़ाबले युवा महसूस करने लगे थे. ज़िंदगी के प्रति उनकी शिकायतें काफ़ी कम हो गई थीं.
बहुत दिनों बाद एक दिन उनकी अपने दोस्त पवन से अचानक मॉल में मुलाक़ात हो गई.
"कैसे हो सुभाष? ज़िंदगी पटरी पर आई या नहीं."
"पवन ज़िंदगी को पटरी पर लाना पड़ता है वह ख़ुद से नहीं आती. मैंने वक़्त के साथ समझौता कर लिया है और अब ख़ुश हूं." सुभाष बोले.
पवन सुभाष में आए परिवर्तन को साफ़ महसूस कर रहा था. आज उसकी बातें निराशावादी नहीं थी. वह बोला, "मुझे अच्छा लग रहा है तुमने बहुत जल्दी अपने आपको वक़्त के साथ एडजस्ट कर लिया, वरना इस उम्र में संभलना थोड़ा मुश्किल हो जाता है."
"ज़िंदगी बहुत कुछ ख़ुद ही सिखा देती है. जीने के लिए नई राह चुननी ही पड़ती है. मैंने भी अपनी सोच को कल से हटाकर आज पर लगा दिया है." सुभाष बोले.
"चलो आज साथ मिलकर कॉफी पीते हैं." इतना कहकर वे सामने कैफिटेरिया में आ गए. सुभाष ने अभी कॉफी का पहला घूंट ही लिया था कि मधु को एकदम आधुनिक लिबास में एक बुज़ुर्ग के साथ सामने की मेज पर बैठा देखकर वे बुरी तरह चौंक गए. मधु की नज़र जैसे ही उन पर पड़ी उसने एक सुंदर-सी परिचित मुस्कान उसकी तरफ उछाल दी. उसके चेहरे पर चोरी पकड़े जाने जैसा कोई भाव नहीं था. यह देखकर सुभाष की कॉफी का स्वाद ख़राब हो गया.
किसी तरह उन्होंने पवन के साथ थोड़ा समय बिताया और उससे विदा लेकर वापस चले आए. उनका मूड बहुत उखड़ा हुआ था. उन्हें मधु से ऐसी उम्मीद न थी. उसकी बड़ी-बड़ी बातें हवा हवाई महसूस हो रही थी. वे सोचने लगे, 'सच ही कहा है औरत के चरित्र का पता नहीं चलता.'
ऊपर से सीधी-सादी दिखनेवाली मधु उसके सामने हमेशा साड़ी पहनकर आती और आज स्लीवलेस टॉप के साथ तंग जींस में एक बुज़ुर्ग के साथ बैठी वहां मज़े से कॉफी पी रही थी. यह सब उनकी कल्पना से परे था.
इस ड्रेस में भी वह बहुत स्मार्ट लग रही थी. उसके इस रूप पर कोई भी मोहित हो सकता था. उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि उसे देखकर मधु ने नज़रें नहीं चुराई और ख़ुश होकर एक मुस्कान के साथ अपनी पहचान पुख्ता करवा दी थी.
आज उनका मन शाम के समय समुद्र किनारे जाने का नहीं कर रहा था. मन में उमड़ रहे ढेरों प्रश्न उसे घर पर चैन से नहीं रहने दे रहे थे. बहुत देर तक अपने आप से लड़ने के बाद उनके कदम घर से बाहर बढ़ गए.
रोज़ की तरह मधु इस समय उनका इंतज़ार कर रही थी. उन्हें आते देखकर उसने चिर-परिचित अंदाज़ में हाथ जोड़े और मुस्कुराकर बोली, "आप ठीक तो हैं?"


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"मुझे क्या हुआ है? तुम सोच रही होगी कि तुम्हें वहां देखकर शायद मैं परेशान हो गया."
"आपने बिल्कुल ठीक समझा. मुझे ऐसा ही लगा था और सच में आप परेशान भी थे, लेकिन वह मेरी मजबूरी थी."
"हमारा अब इतना परिचय तो हो गया है कि तुम अपनी मजबूरी मुझे बता सकती थी."
"मैं आपको और परेशान नहीं करना चाहती थी."
"इसका मतलब मेरे अलावा तुम्हारे और भी कई जाननेवाले हैं."
"यह सच है, आपने देख लिया है. मैं और लोगों से भी मिलती रहती हूं."
"मैं तुम्हारी परेशानी दूर करने की भरसक कोशिश करता तुम कहती तो सही."
"आप कब तक यह सब करेंगे. कोई किसी का जीवनभर का ठेका नहीं लेता. उसके बाद क्या होगा? आप मेरे लिए परेशान न हो. मैं जैसी हूं ठीक हूं. सबकी मदद से मेरा काम बहुत अच्छे ढ़ंग से चल रहा है. अकेलेपन से जूझ रहे ज़रूरतमंद बुज़ुर्गों से मेलजोल बढ़ाकर उनका अकेलापन दूर करना यही मेरा काम है. मुझे और कुछ करना आता भी नहीं. सच पूछो तो मैं लोगों के घरों में झाड़ू, पोंछा, चौका-बर्तन करके अपना जीवन नहीं गुज़ार सकती. मुझे सजना-संवरना अच्छा लगता है. मेरे पास यह सब करने के लिए इतने रुपए नहीं है, इसी वजह से मैंने यह रास्ता चुना है. मैं अपनी बातों से बुज़ुर्गों का दिल बहलाती हूं. बदले में वे भी मेरी मदद कर देते हैं. इसमें कोई बुराई तो नहीं."
उसकी बात सुनकर सुभाष दंग रह गए. उन्हें समझ नहीं आ रहा था क्या जवाब दें? उसने पहले ही बता दिया था अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वह ग़लत रास्ता नहीं चुन सकती. हां, अपनी बातों से दूसरों में जीने की चाह पैदाकर उनकी हताशा ज़रूर कम कर सकती है.
"अच्छा तो यह तुम्हारा काम है. मैं समझा था तुम्हें मुझसे हमदर्दी है, इसीलिए मेरा इंतज़ार कर मुझसे बातें करती हो."
"मुझे उन सबसे हमदर्दी रहती है, जो जीवन संध्या पर जीने की उम्मीद छोड़ने लगते हैं."
"और तुम उनमें जीने की चाह पैदा करती हो."
"इसमें कोई बुराई है क्या?"
"बुराई तो नहीं फिर भी…" मन की बात मन में दबाते हुए सुभाष अपनी बात पूरी न कर सके .
"आपको इन सब बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए. मैं शाम को रोज़ दो घंटे आपसे बातें कर आपके दिल का बोझ कम करती हूं. आपको इस उम्र में संभलने में मैंने बहुत मदद की है. आप जैसे कई बुज़ुर्ग इसी तरह की हताशापूर्ण ज़िंदगी जी रहे हैं. मैं उनसे उन्हीं के हिसाब से मिलकर बातें करती हूं."
"जैसी तुम्हारी मर्जी तुम चाहो तो…"
"आप जैसा सोच रहे हैं. वह सब करना होता, तो मैं बहुत पहले कर चुकी होती. आज के समय में लोगों को पास दूसरे के दर्द को सुनने और समझने का समय नहीं है. आख़िर बुज़ुर्ग लोग अपनी बात कहें, तो किससे कहें? मैं उन्हें अपना पूरा समय देती हूं. उनकी तकलीफ़ कम करने में सहायता करती हूं. बदले में उनसे मदद की उम्मीद रखती हूं. यही सब मैंने आपके साथ भी किया है. लोग तरह-तरह का सामान बेचते हैं, मैं तो अपने और अपने परिवार की ख़ातिर केवल अपना समय बेचती हूं." इतना कहकर वह अपने चिर-परिचित अंदाज़ में मुस्कुरा दी.
सुभाष के लौटने का समय हो गया था. वे बुझे स्वर में बोले, "चलता हूं. अभी तुम्हें कहीं और भी जाना होगा."
"आप जैसे कई बुज़ुर्ग हैं, जिन्हें मेरी बातों की बहुत ज़रूरत है. लेकिन उससे पहले मुझे घर जाकर अपनी ड्रेस बदलनी है. इंसान की मनोदशा पर पहनावे का भी बड़ा असर पड़ता है." मधु बोली.
सुभाष ने जेब से पांच पांच सौ के दो नोट उसकी ओर बढ़ा दिए और बोले, "तुमने मेरी आंखें खोल दी मधु. मैं समझता था कि दुनिया में सब कुछ बिकता है, लेकिन समय नहीं. तुमने उसकी क़ीमत बताकर मेरे ऊपर जो एहसान किया उसे मैं जीवनभर नहीं भूलूंगा."
"कोई बात नहीं, जितना मैंने किया है उसकी क़ीमत तो आप मुझे दे ही चुके हैं."
"अपनी इज्ज़त बचाते हुए दूसरे की मदद करना नेक काम है मधु."
"मेरे पास कोई हुनर नहीं तो क्या हुआ बात करने को तो बहुत कुछ है. बस, उसी का सहारा लेकर मैं अपनी गृहस्थी चला रही हूं. कभी-कभी आते रहिएगा. मुझे अच्छा लगेगा."
कहकर अपने चिर-परिचित अंदाज़ में मुस्कुराते हुए वह आगे बढ़ गई. सुभाष उसे दूर तक जाते देखते रहे. उन्हें लगा पत्नी के चले जाने के बाद उनके जीवन में अचानक जो ख़ुशबू का झोंका आया था, वह उन्हें छूकर ताज़गी का एहसास दे, फिर से आगे बढ़ गया.

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