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कहानी- खोया हुआ सा कुछ (Short Story- Khoya Hua Sa Kuch)

“ऐ सफ़ेद सूट..!” मैं ठिठक गई. समीर मेरी ओर ही आ रहे थे. मैं डर गई कि पता नहीं क्या बात है? उन्होंने मेरे पास आकर कहा, “तुम जूनियर हो न?” मैंने कांपते हुए कहा, “जी सर!” “क्या नाम है तुम्हारा?” “पीहू गुप्ता...”
“पीहू... अच्छा नाम है. पीहू थोड़ी देर में पेंटिंग कॉम्पिटिशन है, तुम जल्दी से वहां पहुंचो, आज मैं तुम्हारा पोट्रेट बनाऊंगा. ठीक है?” मैंने चौंककर उनकी ओर देखा, “जी... जी सर!” और समीर चला गया. मैं हक्की-बक्की-सी उसे जाता देखती रह गई.

“पीहू... ओ पीहू...” नील ने अख़बार पढ़ते हुए तीसरी बार आवाज़ लगाई, तो मुझे काम छोड़ कर आना ही पड़ा.
“क्या है...? क्यों शोर मचा रहे हो?” नील ने उत्साहित होते हुए कहा, “तुम्हारे काम की ही बात बता रहा हूं, शहर में एक बहुत बड़े पेंटर की पेंटिंग एग्ज़िबिशन लगी है, चलोगी देखने?”
“नेकी और पूछ-पूछ... आज ही चलते हैं, पेंटर का नाम तो बताओ?”
“समीर ठाकुर... अच्छा सुनो मैं शाम को जल्दी आ जाऊंगा, तुम तैयार रहना.”
“समीर ठाकुर... समीर..!” मैंने दोहराया, तो नील बोले, “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं... नील, मैं आज न चल सकूंगी. अभी याद आया, आज मुझे मिसेज़ शर्मा के साथ कहीं और जाना है.”
“ठीक है तो कल चलेंगे.”
मैंने जल्दी से कहा, “नहीं... मेरा मतलब तुम अपना प्रोग्राम मत ख़राब करो, तुम हो आना.”
“जैसी आपकी मर्ज़ी सरकार, हम अकेले ही चले जाएंगे.” नील के ऑफिस निकलते ही मैंने अख़बार उठाया. 'समीर ठाकुर की पेंटिंग एग्जिबिशन...’ समीर... मेरे समीर की एग्ज़िबिशन... तुमने मेरा सपना पूरा कर दिखाया समीर...’ अख़बार हाथों में लिए मेरा मन अतीत की गलियों में खो गया. तब मैं एमकॉम प्रीवियस में पढ़ती थी. मेरे एक सीनियर थे- समीर ठाकुर, बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व, लंबी क़द-काठी और बेहद हंसमुख. हमारी क्लास की सारी लड़कियों की तरह वे मुझे भी बहुत अच्छे लगते थे, पर वे कभी हम पर ध्यान नहीं देते थे.
मुझे याद है, उस रोज़ हमारे कॉलेज में आर्ट कॉम्पिटिशन था. मैंने सफ़ेद रंग का सूट पहना था, मैं उनके सामने से होकर थोड़ी दूर ही गई थी कि उन्होंने मुझे पुकारा, “ऐ सफ़ेद सूट..!” मैं ठिठक गई. समीर मेरी ओर ही आ रहे थे. मैं डर गई कि पता नहीं क्या बात है? उन्होंने मेरे पास आकर कहा, “तुम जूनियर हो न?” मैंने कांपते हुए कहा, “जी सर!”
“क्या नाम है तुम्हारा??”
“पीहू गुप्ता...”
"पीहू... अच्छा नाम है. पीहू थोड़ी देर में पेंटिंग कॉम्पिटिशन है, तुम जल्दी से वहां पहुंचो, आज मैं तुम्हारा पोट्रेट बनाऊंगा. ठीक है?” मैंने चौंककर उनकी ओर देखा, “जी... जी सर!” और समीर चला गया. मैं हक्की-बक्की-सी उसे जाता देखती रह गई. समीर ने मेरा बहुत सुंदर पोट्रेट बनाया. मैं उनके इस रूप को देखकर चकित थी. कुछ देर बाद जब कविताओं की प्रतियोगिता में भी समीर का नाम पुकारा गया, तो मैं फिर चौंकी थी. वह मेरे बगल से निकला, तो मैंने उससे धीरे से पूछा, “पोट्रेट तो मेरा बनाया था आपने, कविता किस पर लिख डाली है?” उसने मुस्कुराकर मेरी ओर देखकर कहा, “उसी पर... जिसका पोट्रेट बनाया था.” मुस्कुराने से उसके गालों पर पड़े भंवरों में मैं अपना मन खो बैठी थी.


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धीरे-धीरे हमारी बातों-मुलाक़ातों का सिलसिला चल पड़ा था. वक़्त के बीतते-बीतते हम कब एक-दूसरे से प्यार कर बैठे, हम ख़ुद नहीं समझ पाए. पर न कभी उसने अपने प्यार का इज़हार किया था, न मैंने इकरार किया था. देखते-देखते एक साल बीत गया. उसकी पढ़ाई पूरी हो गई थी और मैं जूनियर से सीनियर हो गई थी. इसके साथ ही उसकी नौकरी की तलाश तेज़ हो गई और मेरे घर में मेरे लिए योग्य वर की. मैं समीर के सिवा किसी और को अपने जीवनसाथी के रूप में सोच भी नहीं पाती थी. मैं समीर से इस बारे में बात करना चाहती थी, पर उसका खिलंदड़ स्वभाव मुझे कुछ भी कहने से रोक देता था.
मैं उसे कितना समझाती कि समीर कभी तो सीरियस हुआ करो, कहीं ऐसा न हो कि इस लापरवाही के कारण एक दिन तुम्हें बहुत बड़ा नुक़सान उठाना पड़े. पर वह मेरी इस बात को भी मज़ाक मान कर हंस देता था. एक रोज़ कुछ लोग मुझे देखने आने वाले थे. मैं कॉलेज से निकली ही थी, कि समीर आता दिखा, “इतनी जल्दी कहां जा रही हो पीहू?”
“आज कुछ लोग शादी के लिए मुझे देखने आनेवाले हैं.” वह चौंक पड़ा, “ऐसा मज़ाक मत किया करो पीहू, मुझे पसंद नहीं.” “मज़ाक..? मज़ाक तुम करते हो समीर, मैं नहीं!” वह तड़पकर बोला, “तुम किसी और से शादी नहीं कर सकती पीहू!” मैंने अनजान बनते हुए कहा, “क्या मतलब, मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती?”
“पीहू, तुम जानती हो कि मैं तुमसे... तुमसे...” मैं झुंझला कर बोली, “मुझसे... क्या समीर?” समीर एक लंबी सांस लेकर, आंख बंद करके, जल्दी-जल्दी बोला, “मैं तुमसे प्यार करता हूं पीहू, तुमसे शादी करना चाहता हूं, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?” इतना कहकर उसने आंखें खोलीं, मुझे मुस्कुराता देखकर उसने चैन की सांस ली. फिर तुनककर बोला, “जब सब जानती थी, तो इस तरह अनजान क्यों बनी?”
“सब जानती थी, पर तुम्हारे मुंह से सुनकर इस पर सच की मोहर लगवाना चाहती थी. अब चलो मेरे घर... मेरे घरवालों से बात करने." समीर ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, “आऊंगा... ज़रूर आऊंगा, पर उस दिन जिस दिन कुछ बन जाऊंगा. प्लीज़ पीहू, थोड़ा-सा वक़्त दो मुझे.” मुझे भी उसकी बात सही लगी थी, सो मैं मान गई. छह माह बीतने को आए थे, पर उसे तब तक कोई नौकरी नहीं मिली.
तब एक दिन मैंने उससे कहा, “समीर, तुम इतने अच्छे कवि हो, पेंटर हो, फिर इसी को अपना प्रोफेशन क्यों नहीं बना लेते? क्यों नौकरी के लिए ठोकरें खा रहे हो?” वह हंस कर बोला, “मैं भी यही चाहता था पीहू, पर मां-पापा का सपना है कि मैं भी बड़े भैया की तरह नौकरी ही करूं. उनका मानना है कि कला संतुष्टि तो देती है, पर पेट नहीं भरती.” मैंने उससे असहमत होते हुए कहा, “पता नहीं समीर, पर मैं तुम्हें एक पेंटर के रूप में ही देखना ज़्यादा पसंद करूंगी. तुम्हारी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगे, लोग तुम्हें सराहें, कलाकार के रूप में जानें, मेरा यही सपना है समीर.”
“कुछ और समय तक नौकरी नहीं मिली न पीहू, तो तुम्हारा यही सपना सच कर दिखाऊंगा.” उसने कहा था. जल्दी ही समीर को एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई थी. अपने काम में व्यस्त समीर को अब मेरे लिए कम ही समय मिल पाता था, पर मैं उसका सपना पूरा होते देख ख़ुश थी. तभी पता नहीं कैसे, मेरे घरवालों को हमारे रिश्ते के बारे में पता चल गया था, मां ने कहा, “कुछ सोचा है कि अगर तुम अंतर्जातीय शादी करोगी, तो रिया का क्या होगा? और चलो हम मान भी जाएं, तो क्या उसके घरवाले अपना लेंगे तुझे?”
मैंने शांत स्वर में कहा, “मां, आप चिंता मत  करो, अगर वह सच में प्यार करता है, तो न सिर्फ़ अपने घरवालों को मनाएगा, बल्कि ख़ुद आकर आपसे मेरा हाथ भी मांगेगा. मुझे भरोसा है उस पर...”
मां ने पूछा था, “पर अगर ऐसा न हुआ तो...?”
“अगर वह सारे रीति-रिवाज़ निभाते हुए मुझे लेने न आया, तो जैसा आप कहोगे, वही करूंगी.” पापा ने मेरा साथ देते हुए कहा था, “ठीक है पीहू, जैसा तुम ठीक समझो. हम तो बस तुम्हारी ख़ुशी चाहते हैं.” जब मैंने समीर को इस बारे में बताया, तो समीर ने कहा, “मैं अभी अपने घरवालों से बात नहीं कर सकता पीहू. अभी तो मैं अपनी नौकरी में ठीक से सेट भी नहीं हो पाया हूं, थोड़ा और वक़्त दे दो मुझे पीहू.”
मैं झुंझलाकर बोली, “समय ही तो नहीं है मेरे पास. अब तो मेरी पढ़ाई भी पूरी हो गई है. अब क्या बहाना बना कर रोकूं अपनी शादी? और फिर अभी मेरी छोटी बहन रिया भी तो है.”
वह बात बदलते हुए बोला, “अच्छा छोड़ो यह बात, सुनो मुझे कंपनी के काम से सिंगापुर जाना है.”
“समीर तुम जाने से पहले बात करके जाओगे न?” वह उलझन भरे स्वर में बोला, “कह नहीं सकता, पर कोशिश ज़रूर करूंगा.”
“ठीक है, तुम मेरे घरवालों से बात करने अभी मत आओ, पर जाने से पहले तुम्हें अपने घरवालों को मेरे बारे में बताना होगा, ताकि मैं आश्‍वस्त हो सकूं. अपने घरवालों से कह सकूं कि मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगी. बोलो कर सकोगे बात?” कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद उसने कहा, “ठीक है, मैं करूंगा बात...” सिंगापुर जाने से पहले वह मुझसे मिलने आया. मैंने पूछा, “समीर, क्या तुमने बात की घर पर..?” उसने बुझे स्वर में कहा, “हां पीहू... बात की है मैंने... पर मेरी बात सुनते ही मां-पापा भड़क उठे. बहुत बुरा-भला कहा मुझे. वे इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रहे पीहू.” समीर की बात सुन मैं कांप उठी. उसका हाथ थाम कर कहा, “अब क्या होगा समीर, क्या करेंगे हम?” “कुछ नहीं सोचा कि क्या करूंगा! पर पीहू मैं मां-पापा के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहता... और उनके मानने की कोई उम्मीद नहीं दिखती!”
“समीर?” मैं चौंक पड़ी थी. मैंने उसका चेहरा अपनी ओर उठाया, तो उसने नज़रें झुका लीं, उस पल लगा कि सब कुछ ख़त्म हो गया. मैं लड़खड़ा कर वहीं बैठ गई. और समीर बिना कुछ कहे चला गया. जिस समीर के प्यार और भरोसे के बल पर मैं इतनी बड़ी बात कह सकी थी अपने घरवालों से, आज वही समीर अपना वादा, मेरा भरोसा सब तोड़कर चला गया था. मैं अपने घरवालों से नज़रें भी नहीं मिला पा रही थी. न जाने कितनी बातें थीं, जो फांस बनकर चुभी थीं मन के अंतस में. न जाने कितनी शिकायतें, चाहतें और सवाल उमड़ रहे थे मन में. न जाने कितने आंसू ठहरे हुए थे मेरी पलकों में, पर मैं इतनी असहाय थी कि उन्हें बहा भी न सकती थी, किसी को अपना हाल बता भी नहीं सकती थी.

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ठीक ऐसे ही वक़्त पर नील का रिश्ता आया था मेरे लिए. और फिर जल्द ही मैं नील की पत्नी बनकर उसके घर की मर्यादा बन गई..! पर तब से आज तक मुझे बस एक ही सवाल का जवाब नहीं मिलता था कि ‘समीर तुम मेरे दिल का सुकून हो सकते थे, फिर ज़ख़्म क्यों हो गए..?’ दरवाज़े की घंटी बजी, तो मैं अपने अतीत के गलियारों से बाहर आई. देखा तो शाम ढल रही थी. कमरे में लाइट जला कर मैंने दरवाज़ा खोला, “नील... तुम आ गए?” नील ने मुस्कुराकर कहा, “कहां खोई थीं सरकार, जो वक़्त का पता ही नहीं?"
"हम तो समीरजी की एग्ज़बीशन भी देखकर आ गए हैं. पीहू तुम्हें चलना चाहिए था मेरे साथ, कितनी सुंदर पेंटिंग थी उनकी. मैं मिला समीरजी से, पर वह भी अजीब इंसान लगे मुझे. जानती हो, यह महाशय पहले किसी बड़ी कंपनी में काम करते थे, फिर अचानक सब कुछ छोड़कर पेंटर हो गए. और पता है अब तक शादी नहीं की है. लोग कहते हैं कि किसी से बहुत प्यार करते थे, पर उसे पा न सके, बस उसकी याद में कभी शादी न करने का फ़ैसला ले बैठे...” नील अपनी ही रौ में पता नहीं क्या-क्या कहे जा रहे थे, पर मेरा मन तो उन्हीं चंद शब्दों में अटक गया था, ‘शादी नहीं की... तो क्या अब तक समीर मुझे भूला नहीं पाया..?’ नील मेरे मन की बेचैनी भांपते हुए बोले, “पीहू, क्या हुआ. तुम कुछ परेशान-सी लग रही हो?”
“कुछ नहीं, बस ज़रा थकावट लग रही है.” यह कह कर मैं बात को टाल गई.
अगली दोपहर नील का फोन आया, “पीहू, आज शाम मेरा एक मित्र आएगा. ज़रा अच्छी-सी तैयारी कर लेना.” मेरा मन तो अब तक समीर में ही उलझा हुआ था. कितने सवाल थे, जो पूछने थे, मन हुआ एक बार जाकर मिल आऊं उससे. फिर लगा जाकर भी क्या हासिल होगा? मैं बेमन से घर का काम करने में लग गई. शाम होने पर मैं नील के आने का इंतज़ार करने लगी. तभी फोन बजा.
फोन नील का था, “पीहू, मुझे कुछ काम आ गया है, थोड़ी देर हो जाएगी. मेरा मित्र आए, तो तुम उसका ख़्याल रखना.” मैं झल्ला गई. जान न पहचान बस कह दिया कि ख़्याल रखना. ठीक छह बजे दरवाज़े की घंटी बजी. दरवाज़ा खोलते ही मैं सामने खड़े इंसान को देखकर चौंक पड़ी, “समीर... तुम यहां?” मुझे देखते ही समीर के हाथ में फंसे रजनीगंधा के फूल कांप उठे, “पीहू..!” कुछ पल हम दोनों बिना कुछ कहे यूं ही खड़े रह गए.
मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करूं? मेरी परेशानी भांपकर उसने कहा, “मुझे यहां नीलजी ने बुलाया है. यह उन्हीं का घर है न?” मैंने उसे अंदर आने का रास्ता देते हुए कहा, “हां... उन्हीं का घर है और मैं उनकी पत्नी..!”
"कैसी हो?"
मैंने मुस्कुराकर कहा, “बहुत अच्छी... बहुत ख़ुश!”
“पीहू... क्या कभी माफ़ कर सकोगी मुझे...?”
मैंने व्यंग्य से कहा, “माफ़ी... किस बात की माफ़ी समीरजी..? आपको जो सही लगा, सो आपने किया. उससे किसी पर क्या गुज़री इससे आपको क्या? छो़ड़ो वह सब... आप अपनी सुनाएं. जहां तक मुझे याद है, आप तो एक बहुत अच्छी कंपनी में थे. फिर वह छोड़कर पेंटर कैसे बन गए?”
समीर व्यंग्य से हंसकर बोला, “वक़्त के साथ बहुत कुछ छूट जाता है और बहुत कुछ छोड़ना पड़ जाता है. कोई थी जो मुझे पेंटर के रूप में देखना चाहती थी, पर एक दिन वही मुझसे रूठ कर, न जाने कहां चली गई, इसलिए उसके इस सपने को पूरा करके, उसे अपनी पेंटिंग के रंगों में बांधने की कोशिश करता रहता हूं.”
मैंने तड़पकर कहा, “इतना प्यार करते थे उससे, तो उसे जाने ही क्यों दिया?”
समीर सिर झुकाकर बोला, “अगर जानता कि मेरी एक पल की कमज़ोरी से यह हादसा घटित हो जाएगा, तो शायद..! जानती हो पीहू... उस दिन तुमसे दूर जाते वक़्त एक-एक कदम उठाते हुए ऐसा लग रहा था मानो, मेरे हाथों से कुछ बहुत ही अनमोल चीज़ छूटी जा रही है. छह माह, जो सिंगापुर में गुज़ारे मैंने तुम्हारे बिना, ऐसे थे मानो छह बरस बीत गए हों. तभी मुझे एहसास हुआ कि तुम मेरे जीवन का कितना अहम हिस्सा हो चुकी थी. वहां से लौटते हुए मैं निर्णय कर चुका था कि चाहे सारी दुनिया मेरे ख़िलाफ़ हो जाए, पर मैं तुम्हें अपना बना कर ही रहूंगा. आते ही तुम्हारे घर गया. पर जब तुम्हारी बहन ने बताया कि तुम्हारी...!”
इतना कहकर समीर रुक गया. फिर एक लंबी सांस लेकर बोला, “उस पल ऐसा लगा था पीहू मानो किसी ने मुझसे मेरे हिस्से की ज़मीन और आकाश दोनों छीन लिए हों. याद है पीहू, तुम ही कहती थी कि अपनी लापरवाही की बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी मुझे, पर वह क़ीमत तुम होगी पीहू... यह तो मैंने सोचा भी नहीं था. तुम्हारा साथ मुझे जीने की वजह देता था, पर तुम्हारे चले जाने पर लगता था कि मैं तुम्हारे लिए मर जाऊं. हर पल, हर क्षण मैं तुम्हें अपने आस-पास देखना चाहता था. कैसा पागलपन था वह, जो मुमकिन नहीं था वही सब चाहता था मैं. घरवाले समझा-समझाकर हार गए, पर मैं शादी के लिए तैयार न हुआ.
फिर एक दिन मां ने कहा, “ठीक है समीर जाओ, जिसे तुम अपनाना चाहते हो, उसे ही हमारी बहू बनाकर ले आओ.” मां की बात सुनकर पहले मैं बहुत ज़ोर से हंसा और फिर उनके गले लगकर, बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़ा.
मां बिना कुछ कहे बस मेरे सिर पर हाथ फेरती रही. शायद वह भी समझ गई थी कि अब इसके लिए भी देर हो गई है. तुम्हारे भरोसे पर पूरा न उतर सकने के अपराधबोध ने मुझे व्यथित कर दिया था. हर पल बस एक ही ख़्याल रहता मेरे मन में कि मैंने तुम्हारा भरोसा तोड़ दिया पीहू..! जिस तड़प और तकलीफ़ से तुम्हें गुज़रना पड़ा होगा, उसे सोचता तो आत्मा तक कांप उठती मेरी. इसी से आज तक अपने को माफ़ नहीं कर सका मैं! न जाने कितनी बार मैंने ईश्‍वर से दुआ मांगी कि बस एक बार मुझे पीहू से मिला दो. तुमसे मिल पाता तो कहता कि पीहू मुझे माफ़ कर दो! मैं सचमुच कायर था, जो कुछ न कर सका, न अपने प्यार के लिए, न तुम्हारे विश्‍वास के लिए.
और जब मैं पूरी तरह टूट गया, तो एक रात न जाने कहां से आकर तुमने ही मुझसे कहा, “समीर, मैंने सदा तुम्हें एक पेंटर के रूप में देखना चाहा था. मेरा यह सपना पूरा कर दो न समीर...” और उस सुबह जब मैं उठा, तो मन में तुम्हारा सपना पूरा करने का लक्ष्य बना चुका था... बस यही है इस मामूली से पेंटर का सफ़र पीहू...!” इतना कहकर वह ख़ामोश हो गया, तो अपनी आंखों से बह चले आंसुओं को पोंछते हुए मैंने कहा, “क्यों दी अपने आपको इतनी बड़ी सज़ा समीर..? क्यों अपने साथ मुझे भी गुनहगार बना दिया तुमने?” समीर ने मेरा हाथ थामकर कहा, “मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं पीहू, वह तो मैं ही था जो तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा न उतर सका, और जब यह बात समझ आई तब तक वक़्त मेरे हाथों से फिसल चुका था. फिर कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद बोला, “अच्छा हुआ तुम मुझे मिल गईं, बहुत इच्छा थी तुमसे मिलने की, तुमसे माफ़ी मांगने की और यह बताने की कि देखो पीहू मैं तुम्हारा सपना पूरा कर रहा हूं...”
तभी मेरी पांच साल की नन्हीं-सी बिटिया, "मां...मां..." कहती हुई आकर मेरे गले में झूल गई. मैंने समीर से उसे मिलवाते हुए कहा, “समीर... यह है मेरी बिटिया परी...” परी को गोद में लेते हुए वह चौंक उठा, “परी..?” मैंने उसकी बात समझकर कहा, “हां समीर, परी... वही नाम जो तुम हमारी बिटिया का रखना चाहते थे. तुम्हें तो न पा सकी, पर परी के नाम में तुम्हें सदा अपने क़रीब पाती हूं मैं.” मेरी बात पर समीर मुस्कुरा उठा.
तभी दरवाज़े की घंटी बजी. देखा तो नील थे, आते ही उन्होंने पूछा, “समीर आ गए?”
“हां...” अंदर आकर वे समीर से बोले, “जानता हूं कि आप सोच रहे होंगे कि जान-पहचान न होने पर भी मैंने आपको घर खाने पर क्यों बुलाया है?” उनकी बात पर मैंने समीर की ओर देखा. फिर उत्सुकता से नील के आगे कहने का इंतज़ार करने लगी, “कल जब मैं आपकी पेंटिंग देख रहा था, तो मैंने वहां पीहू की भी एक पेंटिंग देखी. उसे देख मैं चौंक पड़ा. फिर जब आपके सेक्रेटरी से मैंने उस पेंटिंग को ख़रीदने की इच्छा जताई, तो उसने यह कह कर इंकार कर दिया कि समीर साहब ने इस पेंटिंग को बेचने से मना किया है. वहीं आपके शादी न करने के बारे में, अच्छी-ख़ासी नौकरी छोड़ पेंटर हो जाने के बारे में सुना, तो लगा कि कहीं इसका संबंध पीहू से ही तो नहीं?


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प्यार किसी का भी हो, सम्मान करने लायक होता है और फिर जो कुछ आपने अपने प्यार के लिए किया था, उसने आपको मेरी नज़रों में बहुत ऊंचा उठा दिया था. तब सोचा कि जिसके लिए यह सब किया जा रहा है, कम से कम उसका तो हक़ बनता ही है यह सब जानने का! बस यही सोच कर आपको यहां बुलाया था. आशा है आप मुझे अन्यथा न लेंगे.”
समीर ने नील का हाथ पकड़ कर कहा, “आप सोच भी नहीं सकते नीलजी कि आपने मुझ पर कितना बड़ा एहसान किया है. आठ बरस से अपनी आत्मा पर एक बोझ लिए जी रहा था और आज उससे कुछ हद तक निजात पा सका हूं, तो सिर्फ़ आपके कारण! अगर पीहू से माफ़ी न मांगता, तो शायद चैन से मर भी न पाता. नीलजी, कई बार अपनी नासमझी में इंसान जान ही नहीं पाता कि उसके पास कुछ अनमोल है, वह तो उसके चले जाने के बाद ही समझ में आता है कि उसने क्या खो दिया है? आप सच में बहुत क़िस्मत वाले हैं, जो आपके पास पीहू जैसी जीवनसाथी है.”
नील ने मुस्कुराकर मेरे गले में बांह डालते हुए कहा, “वह तो मैं हूं, क्यों पीहू?” उनकी बात पर हम मुस्कुरा पड़े.
तभी समीर ने कहा, “अब मैं चलता हूं. आज की शाम जीवनभर मीठी याद बनकर मेरे साथ रहेगी."
समीर को छोड़ने मैं और नील बाहर तक आए, तो मैंने समीर से कहा, “समीर, बहुत सज़ा दे चुके अपने आपको, अब तो कोई अच्छा सा जीवनसाथी चुन लो.” समीर ने मुस्कुराकर कहा, “पीहू, तुम बहुत क़िस्मतवाली, जो तुम्हें नील जैसा समझदार पति मिला है. जो सम्मान, जो प्यार तुम्हारा हक़ था, जो मैं तुम्हें नहीं दे सका था, वह नील तुम्हें दे रहा है. पर अगर मुझे भी वैसा ही साथी न मिला, जो तुम्हारे प्रति मेरी भावना को वही सम्मान दे सके तो..? इसलिए मैं अकेला ही ठीक हूं. बस एक इच्छा है, कहो पूरी करोगी?”
मैंने अपनी प्रश्‍नचिह्न सी आंखें उसकी ओर उठा दीं, “चाहता हूं कि एक बार, बस एक बार तुम मेरी पेंटिंग देखने आओ... देखो कि मैं तुम्हारा सपना पूरा कर सका या नहीं? आओगी पीहू?” “आऊंगी, ज़रूर आऊंगी समीर...” मेरी बात सुन समीर के चेहरे पर तृप्ति के भाव उभर आए. हम दोनों दूर तक समीर को जाता देखते रहे. मैंने हौले से अपना सिर नील के कंधे पर टिका दिया, तो नील ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया.
- कृतिका केशरी


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