"हां, ये एक किराएदार ही है और मेरा इनका किराए का ही रिश्ता है. मेरे घर में रहने का ये लोग किराया देते हैं, पर मेरी सेवा करने के लिए बाध्य नहीं है.
काश! तुम लोग समझ पाते कि इस उम्र में मुझे तुम्हारी कितनी ज़रुरत है, पर तुम लोगों ने इस हालत में भी यहां आना ज़रूरी नहीं समझा. कोई रिश्ता न होते हुए भी इन दोनों ने मेरा इतना ख़्याल रखा. इतनी सेवा की कि आज मैं सही सलामत तुम्हारे सामने खड़ा हूं…"
सुधीर वर्माजी (रिटायर्ड)और उनकी पत्नी हमारी ही सोसाइटी में रहते हैं. कुछ मकान छोड़कर उनका दो मंजिला मकान है. दो बेटा-बहू हैं, पोते-पोती हैं, पर दोनों अपने परिवार के साथ बाहर रहते हैं. कभी-कभी तीज-त्योहार पर आना होता, वरना वो भी नहीं. एक फुलटाइम मेड लगी थी घर का सब काम करने के लिए, पर खाना बनाने का काम आंटी ही करती थी. ऊपर का हिस्सा किराए पर दे रखा था, जिसमें सौरभ और उसकी पत्नी रहते थे. जिनका अंकल-आंटी के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था.
धीरे-धीरे हमारा उनसे परिचय हुआ. वे दोनों पति-पत्नी सोसाइटी पार्क में शाम को टहलने आते थे, वहीं उनसे मुलाक़ात हुई थी. मैं मेरी चार साल की बेटी को लेकर पार्क जाती थी.
एक ही सोसाइटी में होने के कारण किसी न किसी के यहां पार्टी में भी अंकल-आंटी से मुलाक़ात हो जाती थी, पर काम की व्यस्तता के कारण ज़्यादा आना-जाना न था.
एक दिन जब मैं अपनी बेटी को स्कूल से लेकर लौटी, तो पता चला कि आंटी की हालत बहुत ख़राब है, उन्हें हॉस्पिटल ले गए है, पर आंटी वहां से वापस घर न आ पायी! वो चली गयी थीं अनंत यात्रा पर जहां से कोई वापस नहीं आता.
उनके बेटे-बहू आए थे. अंतिम क्रियाकर्म के बाद वापस चले गए थे. अब अंकल बिल्कुल अकेले रह गए थे. कामवाली काम करने आती थी, तो अंकल के लिए खाना भी बना देती थी.
ऐसे में सौरभ और उसकी पत्नी ही अंकल का हर तरह से ख़्याल रखते थे.
बेटे-बहू साल में कभी एक बार आ जाते थे, पर एक-दो दिन रुककर वापस चले जाते थे.
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एक बार किसी ने कहा भी कि अपने पिताजी को साथ ले जाओ, तो बोले कि हम सब तो ऑफिस चले जाते हैं और बच्चे स्कूल, तो पिताजी वहां भी बिल्कुल अकेले कैसै रहेंगे. यहां सौरभ और उसकी पत्नी रहते हैं, तो पिताजी को अकेलापन नहीं महसूस होगा.
आज अंकल की तबीयत अचानक ख़राब होने पर सौरभ ही उनको अस्पताल ले गया था. अंकल को एडमिट कर लिया गया था. सोसाइटी के एक-दो लोग और थे वहां. उनके बेटों को ख़बर कर दी गयी थी. उन्हीं के आने का इंतज़ार हो रहा था.
पूरा दिन बीत गया था. कोई नहीं आया था. बाकी के लोग भी अपने घर जा चुके थे. अंकल को होश आ गया था. उन्हें रूम में शिफ्ट कर दिया गया था. रूम में आने पर वहां केवल सौरभ को देख उन्होंने इशारे से बेटों के बारे मे पूछा, तो सौरभ ने बताया कि उनको तत्काल ख़बर कर दी थी, आते होंगे.
अंकल ने आंखे बंद कर ली. आंसू उनके गाल पर ढुलक आए थे. पूरी रात सौरभ ही उनके साथ रहा था.
दूसरे दिन छोटे बेटे रवि का फोन आया कि उन लोगों को ऑफिस से छुट्टी नहीं मिली और बड़े भाई-भाभी बाहर घूमने गए हैं, तो प्लीज़ पिताजी का ध्यान रख लें. अस्पताल का बिल वो ऑनलाइन पेमेंट कर देगा. छुट्टी मिलते ही वो सब घर आएंगे.
तीसरे दिन अंकल डिस्चार्ज होकर घर आ गए थे. सौरभ और उसकी पत्नी दोनों ही उनका हर तरह से ध्यान रख रहे थे. सौरभ ने अपने ऑफिस से चार दिन की छुट्टी ली थी. उसके बाद उसे ऑफिस जाना था.
उसने व उसकी पत्नी ने अंकल का भरपूर ध्यान रखा था. अब अंकल स्वस्थ हो चले थे. क़रीब एक हफ़्ते बाद दोनों बेटे परिवार सहित आए थे.
अंकल का ध्यान रखने के लिए उन दोनों का धन्यवाद किया और दो दिन वापस रुककर चले गए थे.
क़रीब दो महीने बाद उनके घर से झगड़े की आवाज़ें आ रही थीं. पता चला कि अंकल ने मकान सौरभ के नाम कर दिया था, इसलिए दोनों बेटे उनसे झगड़ रहे थे.
बेटे ने कहा, "एक किराएदार के नाम आप मकान कैसे कर सकते हैं? क्या रिश्ता है आपका इनसे?.."
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अंकल ने कहा, "हां, ये एक किराएदार ही है और मेरा इनका किराए का ही रिश्ता है. मेरे घर में रहने का ये लोग किराया देते हैं, पर मेरी सेवा करने के लिए बाध्य नहीं है.
काश! तुम लोग समझ पाते कि इस उम्र में मुझे तुम्हारी कितनी ज़रुरत है, पर तुम लोगों ने इस हालत में भी यहां आना ज़रूरी नहीं समझा. कोई रिश्ता न होते हुए भी इन दोनों ने मेरा इतना ख़्याल रखा. इतनी सेवा की कि आज मैं सही सलामत तुम्हारे सामने खड़ा हूं. इसलिए मैंने ये मकान इनके नाम कर दिया है. जब तक मैं जीवित हूं ये दोनों यही रहेंगे और मेरे मरने के बाद ये मकान इनका होगा."
दोनों बेटे निरुत्तर थे. ग़ुस्से में दोनों वहां से चले गए.
- रिंकी श्रीवास्तव
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