कंचन अपना लंच बॉक्स निकाल कर खोलती, फिर ग़ुस्से से हम दोनों को देखती. हम अच्छी और मासूम सहेलियों की तरह अपना टिफिन उसकी तरफ़ बढ़ा देतीं.
वो एक बार हमारे टिफिन को देखती फिर हम दोनों को ऐसे देखती मानो खा ही जाएगी, लेकिन हम निश्चिंत थे कि जो हमारा टिफिन नहीं खाती, हमें क्या खाक खाएगी. बस कंचन क्रोध में साक्षात चंडी बन क्लास रूम से बाहर जाती और हमारा खाना हमारे पेट के अंदर.
उस दिन कुछ बढ़िया सा बनाया था बेटे के टिफिन के लिए, देखते ही बोला, "मुझे कुछ नहीं मिलेगा, सब फ्रेंड्स खा लेंगे."
"कोई नहीं, तुम उनका टिफिन ले लेना."
"नहीं! मैं किसी के टिफिन से नहीं खाता हूं!"
पलट कर देखा, तो बेटे के चेहरे में मुझे दो चोटी वाली अपनी स्कूल फ्रेंड कंचन मसूढ़े दिखा अट्टहास करती दिखाई दी. जैसे चिढ़ा रही हो… "देखा! तेरे बेटे में मेरी आदत आ गई." मैं तुरंत संभल कर बोली, "क्यों बेटा? फ्रेंड्स तो टिफिन शेयर करते हैं."
"मुझे नहीं पसंद."
इतना कह वो कंचन वाले एटिट्यूड में ही पलटा और चला गया.
ऐसा लगा कंचन की चोटी लहराती हुई तड़ाक से मेरे चेहरे पर लगी हो. हाय मेरी वो सहेली जिसे मैंने इतना परेशान किया था कि असेंबली में उसके पीछे खड़ी हो उसकी चोटी से रबरबैंड निकाल उसी के हाथ में पकड़ा दिया करती थी. आज मेरा बेटा बन कर आ गई है. कहीं इसमें कंचन की आत्मा तो नहीं आ गई… ना, ना वो तो अभी ज़िंदा है. खैर मैं समझ गई कि अब मेरे बेटे के साथ क्या होनेवाला है. चलो अब फ्लैशबैक में चलते हैं…
स्कूल फ्रेंड वो प्राणी होते हैं, जिनके साथ आप चाह कर भी तमीज़ से पेश नहीं आ सकते. हम चार फ्रेंड्स थीं, ओह फिर वही ग़लती, थीं नहीं.. हैं! मैं, अनु, कंचन और भावना.
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अनु पैदाइशी दादी मां थी, जिसकी वजह से हमारी टीनएज पूरी तरह संस्कारों से भरी बीती (जिसका मुझे मलाल है). भावना और मैं बिल्कुल एक जैसे थे एक बार हंसने का खटका दब गया, तो बंद ही नहीं होता था.
हम चारों लंच करते, तो हम तीनों तो टिफिन शेयर करते, लेकिन कंचन कभी नहीं करती… मुझसे और भावना से उसकी ये बेहूदी आदत बर्दाश्त नहीं होती थी. फिर हमें सीआईडी के एसीपी प्रद्युम्न की तरह आइडिया आया.
कंचन ठहरी गुड गर्ल बिना हाथ धोए बगैर टिफिन खोलती ही नहीं थी और हम तो सुबह ही हाथ धोकर आते थे. स्कूल में तो हम हाथ धोकर कंचन के पीछे पड़ रहते थे. वो जाती हैंड वॉश करने और हम उसकी वापसी से पहले उसके टिफिन पर हमला कर देते!
आज हमें उसके टिफिन में रखे खाने का स्वाद याद नहीं है, क्योंकि हमें स्वाद आता ही कहां था, वो तो बस टार्गेट होता था कंचन के आने से पहले उसका खाना ठूंस जाना. हालांकि अनु हमें मना करती थी, लेकिन मैं और भावना भला खाते हुए किसकी सुनते थे. जब कंचन क्लास में घुसती तो हम मुंह पोंछ कर अपना लंच बॉक्स निकाल रहे होते.
कंचन अपना लंच बॉक्स निकाल कर खोलती, फिर ग़ुस्से से हम दोनों को देखती. हम अच्छी और मासूम सहेलियों की तरह अपना टिफिन उसकी तरफ़ बढ़ा देतीं.
वो एक बार हमारे टिफिन को देखती फिर हम दोनों को ऐसे देखती मानो खा ही जाएगी, लेकिन हम निश्चिंत थे कि जो हमारा टिफिन नहीं खाती, हमें क्या खाक खाएगी. बस कंचन क्रोध में साक्षात चंडी बन क्लास रूम से बाहर जाती और हमारा खाना हमारे पेट के अंदर.
अपना खाली लंच बॉक्स बैग में रख हम दोनों आंखों-आंखों में इशारा करते और अगले मिशन की ओर बढ़ जाते. गज़ब की खुराक हुआ करती थी हमारी जो डबल डायट भसकने के बाद भी और खाने को तैयार रहते.
हमें पता था कि भूखी शेरनी हमें कैंटीन में मिलेगी और अब तक उसने भीड़ में घुस, जद्दोजेहद कर गरमागरम पेटीज ले ली होगी. हम तेज गति से क्लास से निकलते और लगभग भागते हुए कैंटीन में ऐसे घुसते जैसे इनकम टैक्सवाले छापा मारने जाते हैं.
"वो रही..!" और फिर कंचन आगे-आगे, हम दोनों पीछे-पीछे. कुछ ही देर में हम उसे घेर लेते.
"देख कंचन चुपचाप हमें भी खिला, नहीं तो…"
"नहीं तो हम छीन लेंगे!" कहते हुए मैं उसे पकड़ लेती और भावना उसके हाथ से पेटिस छीन लेती. कुछ ख़ुद खाती, कुछ मुझे खिलाती और बची हुई कंचन के हाथ मे पकड़ा कर हम वहां से चले जाते. ये लगभग हर रोज़ होता था.
बेटे को पूरा क़िस्सा बता दिया है कि दोस्ती में एटीट्यूड को अलग रखे, वरना भूखे रहना पड़ेगा.
- संयुक्ता त्यागी
Photo Courtesy: Freepik
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