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कहानी- मां का ख़त मां के नाम… (Short Story- Maa Ka Khat Maa Ke Naam…)

डॉ. निरुपमा राय

इतना तो जानती हूं, बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से खाए. फिर भी मन तो बेचैन हो ही जाता है न? जब श्वेता मेरे साथ बुरा व्यवहार करती है, उस समय मेरी आंखों के सामने तुम्हारा चेहरा घूम जाता है. ऐसा ही तो तुम्हें भी लगता होगा, मेरे द्वारा अपशब्द सुनने के बाद? मन ग्लानि से भर उठता है.

मेरी अच्छी मां, मैं तुम्हारी बिट्टू, तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा, तुम्हारी सोना. यही कहा करती थीं न तुम मुझे? सच कहती हूं, जब तक तुम्हारे साथ रही, तुम्हारी कद्र न कर सकी. आज, जब तुम्हारे पास नहीं, और  ख़ुद भी एक युवा बेटी की मां बन चुकी हूं, ऐसे में बचपन की तमाम यादें मन को झिंझोड़ जाती हैं. अब जाना मां का प्यार कितना निःस्वार्थ, कितना पवित्र होता है. आज जाना कि तुम्हें कितना मानसिक क्लेश दिया है मैंने. और कितनी महान हो तुम, पता नहीं कैसे सह जाती थीं मेरे उस कटु व्यवहार को? आज शर्मिन्दा हूं, बेहद शर्मिन्दा बचपन की तमाम घटनाएं आंखों के सामने पुनः सजीव हो उठी हैं. कमला बुआ याद हैं न? कितनी मुंहफट और वाचाल थीं. वह बाबूजी के दूर के रिश्ते की बहन लगती थीं. हर दूसरे-तीसरे महीने अपनी बहू से लड़कर तुम्हारे पास आ जाया करती थीं.
मुझे याद है… तुमने मुझे बताया था, जब शादी के आठ वर्षों तक तुम्हें संतान नहीं हुई, तो यही कमला बुआ तुम्हें कैसे-कैसे तानें दिया करती थीं. कभी कहतीं, "बाबू (मेरे पिताजी) की क़िस्मत ही ख़राब है. कितना समझाया पत्नी का नहीं अपने वंश का ख़्याल कर पर कुछ सुनता ही नहीं. जोरू का ग़ुलाम. सगी बहन होती, तब न मेरी बात मानता. मैं तो ठहरी दूर के रिश्तेवाली बहन मुझे भला उसकी फ़िक्र क्यों होने लगी?" बुआ आंचल से आंसू पोंछने लगतीं. पर धीरे से चोर नज़र से बाबूजी के चेहरे का अवलोकन करने से भी न चूकतीं. क्या पता कब तीर निशाने पर लग जाए, और अपने जेठ की सांवली, नाटी, चेचक के दाग़ से भरे मुखवाली बेटी का ब्याह वे बाबूजी से कर दें. पर बाबूजी कुछ न कहते. उनका निर्लिप्त भाव बुआ को और घायल कर जाता. उनका क्रोध उनकी जिह्वा में समाकर विभिन्न प्रवाहों में फूट पड़ता, "अरे बहू! तू ही क्यों नहीं समझाती बाबू को? क्यों उसके वंश नाश पर तुली हुई है? हमारे गांव की बड़ी-बूढ़ियां तो स्पष्ट कहती हैं, मरोछ (जिसके बच्चे पैदा होकर मर जाते हैं) का मुंह देखो तो भी पुण्य ही है, पर बांझ का मुख देखना तो महापाप है."

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तुम कुछ कहना चाहती, पर बाबूजी के वचन तुम्हारे कानों में गूंज उठते, "सुमन, कभी भूल से भी दिदिया का मन न दुखाना, अगर मां-बाप के असमय गुज़र जाने के बाद इन्होंने मुझे सहारा न दिया होता, तो आज मैं स्कूल में मास्टरी नहीं, किसी की चाकरी कर रहा होता. याद रखना सुमन, दिदिया का दुख या कष्ट मेरी आत्मा को आहत करेगा." तुम चुप लगा जातीं और बुआ का प्रलाप अनवरत जारी रहता.
मुंह अंधेरे उठकर सीताराम का जाप करती बुआ यदि तुम्हारी थोड़ी-सी भी झलक आंगन में पा लेती, तो घर में कोहराम मच जाता. ज़ोर से चीख पड़ती, "देख रे बाबू! मैं ठहरी धर्म-कर्म, पूजा-पाठ वाली स्त्री. मैं अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकती. यहां तो रोज़ सुबह उठकर बांझ के ही दर्शन होते हैं. वो तो तेरी ममता है, जो यहां टिक जाती हूं, नहीं तो यहां झांकने भी न आऊ."
दिन पर दिन इसी तरह गुज़र रहे थे. एक दिन तो हद ही हो गई, पड़ोस की अनीता मौसी अपनी मां के साथ आई थीं. तुम उनकी आवभगत में जुटी थीं. तभी तुमने बुआ को फुसफुसाते हुए सुना, "क्या कहूं बहन, एक बच्चे के लिए हमारा आंगन तरस गया है. बाबू को पाला है मैंने, इसलिए चाहती हूं कि उसके घर में भी किलकारियां गूंजे. पता नहीं भगवान किस पाप की सज़ा दे रहा है, जो बांझ बहू पल्ले पड़ गई. पूरे नौ साल हो गए शादी को, पर… खैर, अब तो
मुझे लगता है, उसको कभी संतान नहीं होगी. हथेली पर भी कभी दूब उगी है क्या?" तुम सुन सुन्न रह गयी थीं.
सच ही तो है, एक औरत की परिपूर्णता मां बनने में ही है. नहीं तो क्या अस्तित्व है उसका? एक आधी-अधूरी स्त्री ही न? जिस पौधे पर फूल नहीं खिलते, वो पौधा सबकी स्नेहिल नज़रों से अनछुआ रह जाता है. ख़ुद पौधे को सींचनेवाला माली भी उसकी अनदेखी कर जाता है.
पूरे दस साल बाद, जब मैं तुम्हारी गोद में आई, तो तुम ख़ुशी से झूम उठी थीं. मेरे जन्म पर सारे शहर को न्यौता दे आए थे बाबूजी. दिवाली जैसा माहौल था घर में.
मेरे जन्म के बाद जब भी बुआ हमारे घर आतीं, मुझे उनकी गोद में डालकर तुम विहंस उठतीं, “दीदी, दूब, कितनी सुंदर और हरी-भरी है." बुआ झेंप जातीं. तुम पूरी तृप्ति से खिलखिला उठतीं. और जब तुम्हारी नज़रें बरामदे में बैठे बाबूजी से टकरातीं, तो उनकी हल्की सी स्मित मुस्कान बौछार बन तुम्हारी आत्मा को सिक्त कर जाती. ये सब बातें तुम कभी-कभी ख़ुशगवार मिजाज़ में बताया करती थीं.
कितना प्यार, कितना ममत्व तुमने मुझ पर लुटाया, उसे आज महसूस करती हूं. मेरे छोटे भाई पर भी तुम उतना स्नेह नहीं लुटा पाई थीं.

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उस समय कितनी नासमझ थी मैं. मुझे मेरा छोटा भाई फूटी आंख नहीं सुहाता था. तुम जब भी उसे लिपटाकर प्यार करती, मैं सुलग उठती. कितना कुछ कह देती थी मैं तुम्हें. जब भी बाबूजी मुझे मेरी किसी ग़लती पर डांटते, तुम तुरंत उन्हें टोक देती, “भूल गए क्या वो दस वर्षों का क्लेश? इसे मत डांटो, मुझे अच्छा नहीं लगता." बाबूजी चुपचाप बाहर चले जाते, पर उनका बड़बड़ाना आज भी मेरे कर्णरन्धो में गूंज रहा है, "ख़ूब बिगाड़ो, एक दिन जब सिर पर चढ़ कर बोलेगी, तब तुम समझोगी."
मैं भी अब मां हूं. जान चुकी हूं कि अपनी संतान पर लगी चोट, मां के कलेजे को ही छलनी कर जाती है. आज मेरी बेटी मुझसे कितना भी बुरा बर्ताव करे, मैं उस पर हाथ नहीं उठा सकती, अगर ग़ुस्से में आकर कुछ कह भी देती हूं, तो बाद में बहुत पछतावा होता है. शायद यही मां की नियति है.
तुम्हें याद ही होगा, भला कैसे भूल सकती हो, मेरे द्वारा बारंबार किए जानेवाले अपने अपमानों को. जानती हो मां, आज से पहले मैं ये कभी कह नहीं पाई, पर आज स्वीकारती हूं कि मैं तुम से बहुत प्यार करती थी, तब भी और आज भी. पर तुम्हें सताने में पता नहीं मुझे क्या आत्मिक सुख मिलता था? अगर स्कूल से आने में थोड़ी भी देर हो जाती, तो तुम बुरी तरह घबरा उठती थीं. और तुम्हें तंग करने के लिए मैं कभी-कभी किसी सहेली के यहां रुक जाती.. लौटने पर जब तुम पूछतीं, तो मैं टका सा जवाब दे देती, "मैं क्या बच्ची हूं. तुम तो बेवजह परेशान होती रहती हो." तुम फिर भी चुप ही रहतीं. तुम्हारी यही चुप्पी मुझे धीरे-धीरे उद्दंड बनाती चली गई. इस बात को तुम्हें मानना ही होगा. मैं जब भी सुनती सुनीता का उसकी मां से झगड़ा हो गया या कल्पना की मां ने आज उसे एक चांटा मार दिया, तो मेरे भीतर कुछ दरक जाता. मुझे लगता कि तुम अधिकार के साथ मुझे क्यों नहीं डांटतीं? मेरी ग़लती पर चपत क्यों नहीं लगातीं? शायद, तुम्हें मुझ से ज़रा भी प्यार नहीं.. मेरे मन की कड़वाहट बढ़ती जा रही थी.
तुम्हें तंग करने में मुझे बड़ा ही अच्छा लगता था. मेरी और विनय की लड़ाई किसी महाभारत से कम नहीं होती थी. अब महसूस करती हूं कि मैं तो अकारण ही उससे झगड़ पड़ती थी. तुम हम दोनों के बीच पिसकर रह जातीं. अगर मेरा पक्ष लेतीं, तब भी मैं नाराज़ हो जाती, "बेटा है न वह, पूरा अधिकार है उस पर तभी तो उसको डांटती हो." और अगर कहीं मुझसे कह बैठती, "तेरा छोटा भाई है न, क्यों हमेशा लड़ती रहती है?" तो मेरा पारा चढ़ जाता, "हां हां! मैं तो पागल हूं न, झगड़ालू हूं. हमेशा लड़ती रहती हूं. तुम्हारे बेटे का जीना हराम कर दिया है न मैंने?" तुम दुखी होकर रोने लगतीं, तब कहीं जाकर मेरा ग़ुस्सा ठंडा होता.
आज सब कुछ याद आ रहा है, जिसे मैं अपनी अवहेलना समझती रही, वह तुम्हारा असीम प्यार था मां. वो कहते हैं न, 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' वही हुआ, तुम्हारा अतिशय प्रेम मुझे तुमसे दूर ले आया. शिरीष के साथ मेरा मिलना-जुलना तुम्हें ज़रा भी पसंद नहीं था. पर मैं तो उसका साथ पाकर वैसे ही मगन थी, जैसे उन्मुक्त गगन में उड़ान भरता पंछी. तुम्हें शिरीष पसंद नहीं था, इसलिए वो मेरा और चहेता बनता गया. मैं उसके प्यार में आकंठ डूब चुकी थी. मुझे याद है, एक शाम जब शिरीष मुझे घर छोड़ने आया, तो तुम ने पहली बार मेरे मामले में हस्तक्षेप कर शिरीष से कहा था, "तुम्हें शर्म नहीं आती, इतनी छोटी उम्र में शराब पीते हो? रात-रात भर होटलों में मटरगस्ती करते हो? बेटे! अभी अपना करियर देखो, पूरा जीवन पड़ा है तुम्हारे सामने."

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शिरीष ने पलटकर कह दिया था, "मैं आपकी बेटी से प्यार करता हूं. इसका यह मतलब नहीं कि आप जो चाहे, मुझे कह दें. मेरे पापा के पास इतना पैसा हैं कि मेरी चार पुश्तें बैठकर खाएंगी. मुझे नौकरी की क्या जरूरत?"
"पर… बेटे!" तुमने कुछ कहना चाहा. तुम्हारी बात काटकर वह मुझ पर बरस पड़ा, "मैं जा रहा हूं बिट्टू. तुम अगर मुझसे प्यार करती हो, तो कल कोर्ट में चली आना. हम कल शादी करेंगे." और वह भुनभुनाता हुआ चला गया. मैं तुम पर बरस पड़ी, "कर दिया न तुमने शिरीष का अपमान? अब वो कभी यहां पैर भी नहीं रखेगा और मैं भी नहीं. कल उससे शादी करने जा रही हूं. तुम जो चाहती हो, कर लो." मैंने दो टूक फ़ैसला सुना दिया था.
बाबूजी की असमय मौत के बाद तुम उदास रहने लगी थीं. अपने दुख को पी कर तुमने शांत भाव से कहा था, ''बेटा! जोश में लोग होश खो बैठते हैं और ठोकर खाकर गिरना ही उनकी नियति होती है, क्योंकि उनके कदम कहां पड़ रहे हैं, इसका उन्हें तनिक भी भान नहीं होता. संभल जा बेटी अभी भी वक़्त है. " तुमने मुझे समझाने की बहुत कोशिश की थी. पर मैं तो 'मैं' थी. अहंकार में डूबी हुई.
मैंने व्यंग्य से हंसकर कहा था, "पीना-पिलाना तो बड़े आदमियों का काम है. न मेरे बाबूजी इतने बड़े आदमी
थे, न नानाजी. तुम्हें क्या मालूम बड़े आदमी कैसे जीते हैं?" तुम चुप रह गई थीं. पर उस समय तुम्हारी आंखों में जो प्रश्न कौंधा था, उसका उत्तर मुझे वर्तमान में मिल गया है.
वो शिरीष जो शादी से पहले दीवानों की तरह मेरे इर्दगिर्द घूमता रहता था, आज उसे मुझसे बात करने की भी फ़ुर्सत नहीं, दिन-रात क्लब, जुआ और शराब, बस यही उसकी ज़िंदगी है,. मेरे प्रति उसकी निर्लिप्तता मुझे आहत कर जाती है. एयरकंडीशन बंगले में ममतामयी गोद में, छोटी-सी बच्ची बन अकेली पड़ी कुढ़ती रहती हूं.
आज भी बचपन की वो शामें याद हैं, जब बाबूजी स्कूल से घर लौटते थे. हम सभी एक साथ बैठकर गपशप करते हुए रात का खाना खाते थे. दिनभर की थकान हंसी-मज़ाक में घुल जाती थी. आज शानदार डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हुए लगता है, जैसे कोई गुनाह कर रही हूं. न कोई गप्पबाजी, न कोई हंसी-मज़ाक ? क्या ज़माना इतनी जल्दी बदल गया.
बच्चे तो बाप से भी चार कदम आगे हैं. कल श्वेता से ज़रा सा कह दिया, "इतनी रात तक अकेली मत घूमा करो." बस, बो बरस पड़ी मुझ पर, क्या-क्या नहीं कह दिया मुझे दिमाग़ में कूड़ा भरा है… और भी न जाने क्या-क्या मैं स्तब्ध रह गई. मैं उसकी मां हूं इस बात का भी ख़्याल नहीं रहा. दिन-प्रतिदिन उद्दंड होती जा रही है. इतना तो जानती हूं, बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से खाए. फिर भी मन तो बेचैन हो ही जाता है न? जब श्वेता मेरे साथ बुरा व्यवहार करती है, उस समय मेरी आंखों के सामने तुम्हारा चेहरा घूम जाता है. ऐसा ही तो तुम्हें भी लगता होगा, मेरे द्वारा अपशब्द सुनने के बाद? मन ग्लानि से भर उठता है.


मेरा बेटा अमित भी दिन-रात क्लब और पार्टियों में व्यस्त रहता है. मेरी फ़िक्र किसी को नहीं है. रात ढले अपनी किसी गर्लफ्रेंड के साथ घर लौटता है. और सीधे अपने कमरे में चला जाता है. मेरा तन-बदन जल उठता है. कैसा ज़माना आ गया है? न शर्मोहया रही, न तमीज ही. मैं जानती हूं, मेरा अपना कोई नहीं. न बेटा, न बेटी और न पति ही. दिन-रात अपमान और वेदना के भंवर में डूबती जा रही हूं. गहरे… और गहरे.
मां, आज मुझे तुम बहुत याद आ रही हो. तुम्हारी कमी बहुत महसूस हो रही है. फिर से वापस लौटना चाहती हूं. तुम्हारे आंचल में मुंह छिपाकर रोना चाहती हूं. आज अठारह वर्षों के बाद तुम्हें पत्र लिख रही हूं. अब तक मेरा 'अहं' मुझे रोकता रहा. पर अब सारी कसमें तोड़कर तुम्हारे पास आ रही हूं. जानती हूं, तुम मुझे माफ़ कर दोगी. एक मां हूं, इसलिए मां का दिल कैसा होता है जान गई हूं.
सीधे आने का साहस न कर सकी. न तुमसे बात करने का साहस है, न माफ़ी मांगने का. इसलिए पत्र लिख रही हूं. कुछ ही दिनों में तुम्हारे पास आ रही हूं मां,
शायद सदा के लिए…
तुम्हारी अभागी बेटी,
बिट्टू

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