"हमें किसी को परेशान करके अपनी ख़ुशी नहीं तलाशनी चाहिए. दूसरों के दुख में ख़ुश नहीं होना चाहिए. तुम्हारे पास सब कुछ है, अतः किसी और प्रकार की शैतानी करके ख़ुश हो सकते हो..."
मेरे बचपन में मेरी मां बातों बातों में बहुत अच्छी सीख दिया करती थीं.
मेरी उम्र लगभग आठ वर्ष की होगी, तब मेरी मां ने कहा, “औरों के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि तुम चाहते हो कि वह लोग तुम्हारे साथ करें."
और मैंने पिछले ८० वर्षों में अब तक यह नियम निभाया है.
एक बार का वाकया है, मैं अपने बेटे के साथ खेतों के बीच से होकर कहीं जा रहा था कि हम ने एक बहुत पुराने जूतों का एक जोड़ा देखा. यूं लगता था जैसे किसी ने उन्हें छुपाकर रखने का प्रयास किया है.
शायद वह इसी खेत में कहीं काम कर रहा है और काम ख़त्म कर अपने जूते पहन लेगा.
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बेटे को एक शैतानी सूझी, कहने लगा-, “क्यों न हम इन जूतों को उठा कर कहीं और छुपा दें और फिर देखें कि लौटने पर इसके मालिक की क्या प्रतिक्रिया होती है? बहुत मज़ा आएगा.”
मुझे यह बात कुछ अच्छी नहीं लगी. मुझे अपनी मां की बात याद आ गई और मैंने अपने बेटे से पूछा, “क्या तुम्हें अच्छा लगेगा यदि कोई तुम्हारे साथ ऐसा करे?"
“हमें किसी को परेशान करके अपनी ख़ुशी नहीं तलाशनी चाहिए. दूसरों के दुख में ख़ुश नहीं होना चाहिए. तुम्हारे पास सब कुछ है, अतः किसी और प्रकार की शैतानी करके ख़ुश हो सकते हो. पर सोचो ज़रा अपने एकमात्र जूते न देख वह कितना उदास होगा? संभव है उसके पास कोई और जूता हो ही न!
तुम्हें पैसों की तो कमी नहीं. तुम इसकी सहायता करके भी इसे ख़ुश कर सकते हो और स्वयं भी ख़ुशी हासिल कर सकते हो.”
पिता के कहे अनुसार बच्चे ने दोनों जूतों में मुट्ठी भर-भर के सिक्के डाल दिए और वह दोनों झाड़ियों के पीछे छुपकर बैठ गए.
कुछ देर में फटे-पुराने कपड़े पहने एक मज़दूर वहां आया. वह बहुत थका लग रहा था. उसने ज्यों ही जूते में पैर डाला, उसे महसूस हुआ कि जूते में कुछ है. वह पैर निकालकर उसने दूसरे जूते में पैर डाला तो वहां भी ऐसा लगा.

उसने बैठ कर जूतों में हाथ डाला तो दोनों में ढेर सारे सिक्के निकले.
उसे बहुत विस्मय हुआ, विश्वास ही न हुआ जैसे. पर सच तो सामने था. उसने चारों तरफ़ सिर घुमा कर देखा, परन्तु कोई भी दिखाई नहीं दिया.
उसने सब सिक्के जेब में डाले और घुटनों के बल बैठ गया. वह आंखें आसमान की तरफ़ उठा कर बोला, “हे ईश्वर आपको तो पता ही था कि मेरी पत्नी बीमार है और मेरे पास दवा के लिए पैसे नहीं हैं. बच्चे भी भूखे थे और सेठ ने आज की दिहाड़ी भी नहीं दी. अतः आज भी बच्चों को भूखा सोना पड़ता.
धन्यवाद ईश्वर आज आपने मेरे दोनों काम पूरे कर दिए."
उसने बार-बार ईश्वर को धन्यवाद दिया.
यह सुन मेरे बेटे की आंखें भर आईं.
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मैंने बेटे से पूछा, “तुम अब ख़ुश हो या उस मज़दूर के जूते छुपा कर होते?”
बेटे ने स्वीकार किया, "निश्चय ही कुछ प्राप्त करने से ज़्यादा ख़ुशी कुछ ‘देने’ से मिलती है और मैं यह बात सदैव याद रखूंगा."


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